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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २

         चम्पानगर। मैं कर्ण और मेरा छोटा भाई श्रोण – हमारा वह छोटा सा संसार ! शोण ! हाँ शोण ही ! उसका मूल नाम था शत्रुन्तप। लेकिन सब उसे शोण ही कहते थे। शोण मेरा छोटा भाई था। यों तो वृकरथ नामक मेरा एक और भी भाई था, लेकिन वह बचपन में ही विकटों के राज्य में अपनी मौसी के पास चला गया था। शोण और मैं – हम दो ही रह गये थे। मेरे बचपन का संसार मेरे और उसकी स्मृतियों से ही भरा हुआ था। चम्पानगरी की विशुद्ध हवा में पलनेवाले दो भोले-भाले प्राणों का अद्भुत कल्पनाओं से भरा हुआ छोटा सा संसार था वह। वहाँ झूठी प्रतिष्ठा के बनावटी दिखावे नहीं थे या अपने स्वार्थ के लिये एक-दूसरे को फ़ूटी आँख से भी न देख सकनेवाली असूया नहीं थी। वह केवल दो भाईयों का नि:स्वार्थ विश्व था और उस विश्व के केवल दो ही द्वारपाल थे। एक हमारी माता — राधा और दूसरे हमारे पिता —- अधिरथ। आज भी उन दोनों की स्मृतियाँ मेरे हृदय के एक अत्यन्त कोमल तार को झंकृत कर देती हैं और अनजाने ही कृतज्ञता से कुछ बोझिल से तथा ममता से कुछ रससिक्त से दो अश्रुबिन्दु तत्क्षण मेरी आँखों में छलक आते हैं। लेकिन क्षणभर के लिये ही ! तुरन्त ही मैं उनको पोंछ लेता हूँ । क्योंकि मैं जानता हूँ कि आँसू दुर्बल मन का प्रतीक है। संसार के किसी भी दुख की आग अश्रु के जल से कभी बुझा नहीं करती। लेकिन फ़िर भी, जबतक आँसू की ये दो बूँदें छलक नहीं पड़तीं, तबतक मुझको यह प्रतीत ही नहीं होता कि मेरा मन हल्का हो गया है ! क्योंकि आँसू की इन दो बूँदों के अतिरिक्त, अपने जीवन में मैं उनको ऐसा कुछ भी दे नहीं सका, जो बहुत अधिक मूल्यवान हो ! और इनकी अपेक्षा अधिक मूल्यवान कोई अन्य वस्तु है, जो माता-पिता के प्रति प्रेम के प्रतीकस्वरुप दी जा सकती है – ऐसा मैं समझता भी नहीं। मेरे माता-पिता ने कभी किसी प्रकार की आशा मुझसे नहीं की थी। उन्होंने मुझको जो कुछ दिया था, वह निरा प्रेम ही था।
          मेरी माँ तो ममता का विशाल समुद्र ही थी। मुझको बचपन में सभी नगरजन वसुसेन कहते थे। मेरा छोटा भाई शोण, मुझको सदैव ’वसुभैया’ कहते था। माँ तो मुझको दिन में सैकड़ों बार ’वसु-वसु’ कहकर बुलाती थी। उसने मुझको केवल अपना दूध ही नहीं पिलाया था, बल्कि उसके विशुद्ध प्रेम का अमृत भी मैं अब तक जी भरकर पीता आया था। सबको समान भाव से प्रेम करने के लिये ही मानो उसका जन्म हुआ था। सारा चम्पानगर उसको ’राधामाता’ कहता था। मेरे कानों में दो जन्मजात कुण्डल थे। उनकी चर्चा वह नगर के लोगों से प्राय: करती ही रहती थी। मैं क्षण भर के लिए भी आँखों से ओझल हो जाता था, वह घबरा जाती थी। बार बार मेरे सिर पर हाथ फ़िराकर वह प्रेम से मुझसे कहती, “वसु! गंगा की ओर भूलकर भी मत जाना, अच्छा ऽ !”
“क्यों नहीं जाऊँ ?” मैं पूछता ।
“देखो, बड़े लोगों का कहना मानते हैं। जब जाने को मना किया जाये, तो नहीं जाना चाहिए !”
“तू सचमुच बहुत डरपोक है, माँ ! अरी, चले जायेंगे तो क्या हो जायेगा ?”
“नहीं रे वसु !” मुझको एकदम पास खींचकर मेरे बालों में अपनी लम्बी ऊँगलियाँ फ़िराती हुई वह मुझसे पूछती, “वसु, मैं तुझको अच्छी लगती हूँ या नहीं ?”
“आँ हाँ !” कहकर मैं सिर हिलाता। मेरे कानों में लय के साथ हिलनेवाले कुण्डलों की ओर विस्मय से देखती हुई वह कहती, “तो फ़िर मेरा आदेश समझकर कभी गंगा की ओर मत जाना।“ वह मुझको कसकर जकड़ती हुई कहती और एक अजाना भय उसकी आँखों में होता।
उसका मन रखने के लिये मैं कहता, “तू कहती है तो नहीं जाऊँगा। बस अब तो ठीक ?”
और उसका वात्सल्य उमड़ पड़ता मुझे अलिंगन में कसकर मेरे सिर और कानों को पटापट चूमती। उस समय मेरी इच्छा होती कि मैं इसी तरह गोद में समा जाऊँ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १

        आज मैं कुछ कहना चाहता हूँ ! मेरी बात को सुनकर कुछ लोग चौकेंगे ! कहेंगे, जो काल के मुख में जा चुके, वे कैसे बोलने लगे ? लेकिन एक समय ऐसा भी आता है, जब ऐसे लोगों को भी बोलना पड़ता है ! जब जब हाड़-मांस के जीवित पुतले मृतकों की तरह आचरण करने लगते हैं, तब-तब मृतकों को जीवित होकर बोलना ही पड़ता है ! आह, आज मैं औरों के लिये कुछ कहने नहीं जा रहा हूँ, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि इस तरह की बात करने वाला मैं कोई बहुत बड़ा दार्शनिक नहीं हूँ ! संसार मेरे सामने एक युद्ध-क्षेत्र में बाणों का केवल एक तरकश ! अनेक प्रकार की, अनेक आकारों की विविध घटानाओं के बाण जिसमें ठसाठस भरे हुए हैं – बस ऐसा ही केवल एक तरकश !!
        आज अपने जीवन के उस तरकश को मैं सबके सामने अच्छी तरह खोलकर दिखा देना चाहता हूँ ! उसमें रखे हुए विविध घटनाओं के बाणों को – बिल्कुल एक-सी सभी घटानाओं के बाणों को – मैं मुक्त मन से अपने ही हाथों से सबको दिखा देना चाहता हूँ। अपने दिव्य फ़लकों से चमचमाते हुए, अपने पुरुष और आकर्षक आकार के कारण तत्क्षण मन को मोह लेने वाले, साथ ही टूटे हुए पुच्छ के कारण दयनीय दिखाई देने वाले तथा जहाँ-तहाँ टूटे हुए फ़लकों के कारण अटपटे और अजीब से प्रतीत होने वाले इन सभी बाणों को – और वे भी जैसे हैं वैसा ही – मैं आज सबको दिखाना चाहता हूँ !
        विश्व की श्रेष्ठ वीरता की तुला पर मैं उनकी अच्छी तरह परख कराना चाहता हूँ। धरणीतल के समस्त मातृत्व के द्वारा आज मैं उनका वास्तविक मूल्य निश्चित कराना चाहता हूँ। पृथ्वीतल के एक-एक की गुरुता द्वारा मैं उनका वास्तविक मूल्य निश्चित करना चाहता हूँ। प्राणों की बाजी लगा देनेवाली मित्रता के द्वारा मैं आज उनकी परीक्षा कराना चाहता हूँ। हार्दिक फ़ुहारों से भीग जाने वाले बन्धुत्व के द्वारा मैं उनका वास्तविक मूल्यांकन कराना चाहता हूँ।
        भीतर से – मेरे मन के एकदम गहन-गम्भीर अन्तरतम से एक आवाज बार-बार मुझको सुनाई देने लगी है। दृढ़ निश्चय के साथ जैसे-जैसे मैं मन ही मन उस आवाज को रोकने का प्रयत्न करता हूँ, वैसे-ही-वैसे हवा के तीव्र झोंकों से अग्नि की ज्वाला जैसे बुझने के बजाये पहले की अपेक्षा और अधिक जोर से भड़क उठती है, वैसे ही वह बार-बार गरजकर मुझसे कहती है, “कहो कर्ण ! अपनी जीवन गाथा आज सबको बता दो। वह कथा तुम ऐसी भाषा में कहो कि सब समझ सकें, क्योंकि आज परिस्थिति ही ऐसी है। सारा संसार कह रहा है, ’कर्ण, तेरा जीवन तो चिथड़े के समान था !’ कहो, गरजकर सबसे कहो कि वह चिथड़ा नहीं था, बल्कि वह तो गोटा किनारवाला एक अतलसी राजवस्त्र था। केवल – परिस्थितियों के निर्दय कँटीले बाड़े से उलझने से ही उसके सहस्त्रों चिथड़े हो गये थे। जिस किसी के हाथ में वे पड़े, उसने मनमाने ढंग से उनका प्रचार किया। और फ़िर भी तुमको उस राजवस्त्र पर इतना अभिमान क्यों है ?”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ तथ्य

    मृत्युंजय मतलब होता है मृत्यु पर विजय। मैंने अपना स्नातक हिन्दी साहित्य में किया इसलिये हिन्दी साहित्य पढ़ने में बहुत ज्यादा रुचि है। चूँकि साहित्यिक किताबें बाजार में बहुत ही दुर्लभ हैं और उस समय हमारी किताबें खरीदने की इच्छाशक्ति भी नहीं थी। हमारे पिताजी को शुरु से ही साहित्यिक किताबें पढ़ने का शौक था तो हर जिला मुख्यालय में शासकीय वाचनालय एवं पुस्तकालय होता है, बस वो लाते थे और हम भी पढ़ते थे, एक बार पढ़ने का सफ़र शुरु किया तो वो आज तक रुका नहीं है, हिन्दी के लगभग सभी साहित्यकारों को पढ़ा जिनकी किताबें पुस्तकालय में उपलब्ध होती थीं। कुछ किताबें ऐसी होती थीं जिसके लिये रोज चक्कर लगाने पड़ते थे।
    हमें ऐसी दो किताबों के नाम याद हैं पहली थी मृत्युंजय, दूसरी है लोकमान्य तिलक रचित “गीता”। जिसमें हमने मृत्युंजय को पढ़ लिया है और वाकई मृत्युंजय को पढ़़ना जीवन के सर्वोच्च आनंद की अनुभूति लगा। ऐसा लगा कि कुछ चीज जीवन में अपूर्ण थी और कहीं न कहीं मेरे अंदर कमी थी वह पूरी हो गई।
       “मृत्युंजय” में हमने सीखा, देखा कर्ण की सहनशीलता, उदारता, कर्त्तव्यनिष्ठा, निश्चल प्रेम, दान के लिये तत्परता और भी बहुत कुछ जिसका शब्दों में उल्लेख करना मेरे लिये असंभव है। बहुत से ऐसे तथ्य उन पात्रों के बारे में जो महाभारत से जुड़े हुए हैं, सबसे ज्यादा कर्ण और दुर्योधन और पांडवों के बारे में। वाकई इसके लेखक शिवाजी सावन्त की कर्ण के रहस्यों को जानने की इच्छाशक्ति के कारण ही यह सर्व सुलभ है। उनको मेरा प्रणाम है।
    
     मेरी अगली पोस्टों पर मृत्युंजय से मिले तथ्यों को पढ़ेंगे, जिसके बारे में आम दुनिया सर्वथा अनभिज्ञ है और आप लोगों को भी जानकर आश्चर्य होगा। हर जगह केवल कर्ण का जिक्र होता है कर्ण के परिवार से सर्वथा अनभिज्ञ हैं, इसमें कर्ण के परिवार का भी पूर्ण विवरण दिया गया है और बताया गया है कि किसी भी व्यक्ति के सफ़ल और असफ़ल जीवन के पीछे परिवार भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालांकि कर्ण को शुरु से ही इस दुविधा में दिखाया गया है कि एक आम आदमी के घर में रहते हुए भी मेरे पास इतना ओज और बल कैसे आया क्या मुझे जन्म देने वाले माँ बाप यहीं हैं, जिनके घर पर मैं रह रहा हूँ। और भी बहुत कुछ।
     शिवाजी सावन्त ने मूलत: इस उपन्यास की रचना मराठी भाषा में किया है और इस कालजयी उपन्यास की रचना कई भाषाओं में हो चुकी है, हिन्दी अनुवाद ओम शिवराज ने किया है।