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पत़्नी के कर्तव्य जो पत़्नी को निभाने चाहिये

पति की तरह ही पत़्नी के भी कुछ कर्तव्य होते हैं, जिनका पालन कर गृहस्थाश्रम का पूर्ण आनन्द लिया जा सकता है। किसी ने ठीक कहा है – ईंट और गारे से मकान बनाये जा सकते हैं, घर नहीं। मकान को घर बनाने में गृहिणी का ही पूरा हाथ होता है। वैसे भी इतिहास साक्षी है कि बहुत से महापुरुषों जैसे तुलसीदास, कालिदास, शिवाजी आदि के उत्थान पतन में स्त्री की ही मुख्य भूमिका रही है। मधुर भाषी स्त्री घर को स्वर्ग बना सकती है तो कर्कशा व जिद्दी स्त्री घर को नर्क बना देती है। पत़्नी को निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिये –

  • पति के माता – पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों का आदर करे तथा उनकी सुविधा का हमेशा ध्यान रखे।
  • कभी भी अपने पीहर में ससुराल वालों की निंदा या बुराई न करे।
  • कभी भी पति पर कटु, तीखे एवं व्यंग्यात्मक शब्दों का प्रयोग न करें। सब समय ध्यान रहे कि तलवार का घाव भर जाता है, बात का नहीं।
  • पति के सामने कभी भी ऐसी मांग न करे जो पति की सामर्थ्य के बाहर हो।
  • कभी भी झूठी शान शौकत के चक्कर में पैसे का अपव्यय न करे। पति से सलाह मशविरा करके ही संतुलित एवं आय के अनुसार ही व्यय की व्यवस्था करें। पति के साथ रिश्ते को पैसे का आधार नहीं बनाकर सहयोग की भावना से गृहस्थी चलानी चाहिये।

सर्वोपरि पति – पत़्नी में एक दूसरे के प्रति दृढ़ निष्ठा एवं विश्वास भी होना चाहिये। दोनों का चरित्र संदेह से ऊपर होना चाहिये। कभी – कभी छोटी – छोटी बातें भी वैवाहिक जीवन में आग लगा देती हैं, हरे भरे गृहस्थ जीवन को वीरान बना देती है। आपसी सामंजस्य, एक दूसरे को समझना, किसी के बहकावे में न आना, बल्कि अपनी बुद्धि से काम लेना ही वैवाहिक जीवन को सुन्दर, प्रेममय व महान बनाता है।

पहले की कुछ ओर कड़ियाँ परिवार के संदर्भ में –

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पति के कर्तव्य जो पति को निभाने चाहिये ..

उस माँ की ममता को याद रखना जिसने पाल पोस कर तुम्हें इतना बड़ा किया है ।

पति को पत्नी के सामने कभी भी उसके पीहर वालों की बुराई नहीं करनी चाहिये। यह स्त्री स्वाभाव है कि वह सब कुछ सहन कर सकती है, लेकिन अपने माँ – बाप, भाई – बहन की बुराई नहीं सहन कर सकती। क्या पति अपने परिवार वालों की बुराई सुन सकता है? यदि नहीं तो पत्नी से कैसे अपेक्षा करे कि वह अपने सामने अपने परिवार वालों की बुराई सुन सके। वैसे विवाह के बाद पत्नी अपने पति की बुराई भी नहीं सुन सकती।

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पति अगर पत्नी की किसी आवश्यकता को पूरी नहीं कर सकता तो पत्नी को अपनी मजबूरी एवं कारण प्रेमपूर्वक  मीठे शब्दों द्वारा समझाना चाहिये।

पति को कभी भी अपने पुरुष होने का झूठा अभिमान नहीं करना चाहिये। स्त्री के साथ सब समय सहयोग की भावना रखनी चाहिये एवं उसे अर्धांगिनी का दर्जा देकर सम्मान देना चाहिये।

संयुक्त परिवार कुछ महत्वपूर्ण बातें

       संयुक्त परिवार में रहने का एक अलग ही आनंद है। एकाकी जीवन भी भला कोई जीवन है ? जब तक परिवार संयुक्त रहता है, परिवार का हर सदस्य एक अनुशासन में रहता है। उसको कोई भी गलत कार्य करने के पहले बहुत सोचना समझना पड़ता है, क्योंकि उस पर परिवार की मर्यादा का अंकुश रहता है। यह अंकुश हटने के बाद वह बगैर लगाम के घोड़े की तरह हो जाता है। लेकिन संयुक्त परिवार में अगर सुखी रहना है तो ’लेने’ की प्रवृत्ति का परित्याग कर ’देने’ की प्रवृत्ति रखना पड़ेगी। परिवार के हर सदस्य का नैतिक कर्त्तव्य है कि  वे एक दूसरे की भावानओं का आदर कर आपस में तालमेल रख कर चलें। ऐसा कोई कार्य न करें जिससे कि दूसरे की भावनाओं को ठेस पहुँचे। किसी भी विषय को कृपया अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनायें।

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            गम खाकर और त्याग करके ही संयुक्त परिवार चलाया जा सकता है। इसमें भी सबसे अहम भूमिका परिवार प्रधान की होती है। हमें शंकर भगवान के परिवार से शिक्षा लेनी चाहिये। उनके परिवार के सदस्य हैं – पत्नि उमा (पार्वती), पुत्र गणेश और कार्तिकेय। सदस्य के वाहन हैं – नन्दी (बैल), सिंह, चूहा और मयूर (मोर)। शंकर भगवान के गले में सर्पों की माला रहती है। इनके जितने वाहन हैं – सब एक दूसरे के जन्मजात शत्रु हैं, फ़िर भी शंकर भगवान परिवार के मुखिया की हैसियत से उनको एकता के सूत्र में बाँधे रहते हैं। विभिन्न प्रवृत्तियों वाले भी एक साथ प्रेम से रहते हैं। इसी तरह संयुक्त परिवार में भी विभिन्न स्वाभाव के सदस्यों का होना स्वाभाविक है, लेकिन उनमें सामंजस्य एवं एकता बनाये रखने में परिवार प्रमुख को मुख्य भूमिका निभानी पड़ती है। उसको भगवान की तरह समदर्शी होना पड़ता है।

 

           विभिन्नता में एकता रखना ही तो हमारा भारतीय आदर्श रहा है। इसीलिये कहा गया है – “India offers unity in diversity.” शंकर भगवान के परिवार के वाहन ऐसे जीव हैं, जिनमें सोचने समझने की क्षमता नहीं है। इसके उपरांत भी वे एक साथ प्रेमपूर्वक रहते हैं। फ़िर भला हम मनुष्य योनि में पैदा होकर भी एक साथ प्रेमपूर्वक क्यों नहीं रह सकते ? आज छोटा भाई बड़े भाई से राम बनने की अपेक्षा करता है, किन्तु स्वयं भरत बनने को तैयार नहीं। इसी तरह बड़ा भाई छोटे भाई से अपेक्षा करता है कि वह भरत बने लेकिन स्वयं राम बनने को तैयार नहीं। सास बहू से अपेक्षा करती है कि वह उसको माँ समझे, लेकिन स्वयं बहू को बेटी मानने को तैयार नहीं। बहू चाहती है कि सास मुझको बेटी की तरह माने, लेकिन स्वयं सास को माँ जैसा आदर नहीं देती। पति पत्नि से अपेक्षा करता है कि वह सीता या सावित्री बने पर स्वयं राम बनने को तैयार नहीं। यह परस्पर विरोधाभास ही समस्त परिवार – कलह का मूल कारण होता है। थोड़ी सी स्वार्थ भावना का त्याग कर एक दूसरे की भावनाओं का आदर करने मात्र से ही बहुत से संयुक्त परिवार टूटने से बच सकते हैं।

 

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