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Praveen Tambe

कौन प्रवीण ताँबे

कौन प्रवीण ताँबे फ़िल्म हम परिवार के साथ देख रहे थे, तो उसमें एक समय ऐसा बताया गया है कि प्रवीण रणजी की प्रेक्टिस दिन में करते थे और परिवार चलाने के लिेये रात में बार में वैटर का काम करते थे। एक दिन वहाँ वे पत्रकार आते हैं जो उसे बिल्कुल पसंद नहीं करते हैं, तो प्रवीण को अपने वैटर होने पर बहुत ही शर्म महसूस होती है और वह बाद में रोता हुआ भी दिखाया है।


इस पर बेटेलाल का कहना था कि इसमें शर्म की क्या बात है, प्रवीण कोई चोरी तो कर नहीं रहा और न ही कोई भीख माँग रहा है, प्रवीण तो शान से अपने परिवार के लिये पैसा कमा रहा है, और ये सब सेक्रिफाईज वो केवल अपने रणजी खेलने के लिये कर रहा है, जब प्रवीण को यह पता है तो उसे शर्म किस बात की करनी चाहिये, यह समझ नहीं आया। शर्म तो उन पत्रकारों को अपने बर्ताव पर आनी चाहिये और उन्हें प्रवीण की इज़्ज़त करनी चाहिये थी।

फ़िल्म में बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन्हें गौर से समझने की ज़रूरत है, व्यक्ति जो सोचता है कि वह केवल इसी में comfortable है तो वह ग़लत हो जाता है और सफलता नहीं मिलती, क्योंकि वह अपनी ख़ुद की प्रतिभा को ही नहीं पहचानता, जैसा कि प्रवीण के साथ हुआ, वह ख़ुद को मीडियम पैसा बॉलर समझता था, पर कोच ने उसकी प्रतिभा को पहचाना और कहा कि तुम लैग स्पिनर अच्छी करोगे, अपनी बॉलिंग बदलो, पहले प्रवीण ने कोच की बात नहीं मानी, पर जब ठोकर लगी तो प्रवीण ने नये जुनून से स्पिनर बॉलर की कला सीखी। यह अपने आप में बहुत बड़ी बात है, क्योंकि अपने आप में किसी एक समय के बाद बदलाव लाना वो भी बिल्कुल ABCD से बहुत मुश्किल होता है।

फ़िल्म बहुत अच्छी है, अगर न देखी हो तो ज़रूर देखें, अपने अंदर की कुछ कर गुजरने की आग कैसी होनी चाहिये, जुनून क्या होता है, यह देखने को मिलेगा। श्रैयस तलपा़ड़े का अभिनय ज़बरदस्त है, कई बार मेरी आँखों में आँसू आये, और उसके लिये उनका अभिनय ही ज़िम्मेदार है।

हानिकारक बापू

हानिकारक बापू – यह गाना है आमिर खान की फिल्म दंगल का, जबसे हमारे बेटेलाल ने यह गाना सुना है, तब से वे इसे कई बार सुन चुके हैं और लगभग याद ही कर लिया है। अब आलम यह है कि जब भी हम या घरवाली कुछ कहने को होते हैं तो बस इस गाने को गाना शुरू कर देते हैं। हमें भी उत्सुकता हुई कि आखिर यह गाना बना ही क्यों ?

फिल्म की कहानी और ट्रेलर से इतना पता चला कि मुख्य अभिनेता आमिर खान जो कि एक पहलवान की भूमिका में हैं और घर में बेटे होने का इंतजार कर रहे होते हैं, परंतु उनके घर में केवल लड़कियाँ ही पैदा हो रही होती हैं, और ये स्वर्ण पदक जीतने में नाकामयाब रहे तो अपना यह सपना अपने बेटे से पूरा करवाना चाहते हैं। पर एक दिन उनकी दो लड़कियों नें दो गाँव के छोरों को धो दिया तो पहलवान पिता ने सोचा कि पदक तो बेटी भी ला सके है और बस पहलवान पिता दोनों बेटियों के पीछे लग गया कि अब तो ये छोरियाँ ही स्वर्ण पदक लायेंगी। Continue reading हानिकारक बापू

“शाहिद” शहादत और सुसाईड (“Shahid” Martyrdom or Suicide)

    आज फ़िल्म “शाहिद” देख रहा था, फ़िल्म बहुत ही अलग विषय पर बनी है, जिसे हम अनछुआ पहलू कह सकते हैं, इन अनछुए पहलुओं में केवल आतंकवाद से ग्रस्त लोग ही नहीं है, और भी बहुत सारे सामाजिक पहलू हैं जो अनछुए हैं, जिनके बारे में हमें आपको और बाहरी विश्व को कुछ पता नहीं है। क्योंकि इन पहलुओं को इतना लुका छिपाकर रखा जाता है कि हम तक कभी कोई खबर इस बारे में पहुँच ही नहीं पाती है।
    “शाहिद” में साफ़ साफ़ बताया गया है जो लोग आपका उपयोग करना चाहते हैं, उनसे दूर रहें, वे लोग केवल और केवल अपने स्वार्थ के लिये आपकी जिंदगी में आते हैं, बेहतर है कि उनसे बहुत दूरी बना ली जाये और मजबूरी हो तो कभी कभार मिलना जुलना रखना चाहिये। जो इंसान दुसरे के अनुभव से सीख लेता है वह शायद बहुत कुछ खोने से बच जाता है।
    फ़िल्म की कहानी बहुत ही सीधी सादी है, जिसमें केवल एक व्यक्ति के इर्दगिर्द यह फ़िल्म घूमती है और उसके परिवार को भी बताया गया है, फ़िल्म की कहानी में किसी भी तरह का कोई ड्रामा नहीं रखा गया है जो कि इसका बहुत ही अच्छा पक्ष है, जैसे कि अपने क्लाईंट से ही प्यार होने पर सीधे उसे शादी के लिये बात कह देना, अपने घर पर कुछ भी ना बताना और जब पता भी चले तो साफ़ साफ़ कह देना, यह साफ़गोई बहुत ही पसंद आई। जिसमें हीरोईन याने कि शाहिद की बीबी का यह संवाद कि “मुझे मेरी लाईफ़ कॉम्लीकेटेड नहीं चाहिये, कोई हर्डल कोई घुमाव फ़िराव नहीं चाहिये, बस स्टेट फ़ार्वर्ड लाईफ़ चलनी चाहिये” जमा।
    बहुत सारे संवाद दिल को छूने वाले हैं और प्रेरक हैं, जैसे शाहिद को उसकी बीबी ने कहा “लोग तो तुमको अतीत में धकेलकर तुम्हें अपने रास्ते से हटाने की कोशिश करेंगे, तुम केवल आगे की और देखो, नई किरण, नई रोशनी तुम्हारा इंतजार कर रही है”।
    जब शाहिद जेल में था तो उनका एक कैदी मित्र उनको पढ़ने में सहायता करता है और कहता है “लहरों के विरूद्ध चलना बहुत आसान नहीं होता परंतु अगर जो लहरों के विरूद्ध चलकर आगे बड़ता है, वह अपनी बुलंदियों को छूता है”, और उसने कहा कि जितना चाहो उतना पढ़ो तुम्हें अपनी मंजिल जरूर मिलेगी।
    किस प्रकार से झूठे केसों में लोगों को फ़ँसाया जाता है, और इतने कमजोर सबूत होने पर भी न्यायपालिका मूक दर्शक बनी देखती रहती है, हमारी न्यायपालिका पर भी बहुत बड़ा प्रहार है। किस प्रकार से धर्म के नाम पर नौजवानों को बरगलाया जाता है उसके लिये फ़िल्म खत्म होने के बाद फ़िल्म को एक्स्टेंडेड पार्ट में दिखाया गया है, वहाँ हमें शहादत और सुसाईड का अंतर पता चलता है।
    फ़िल्म बहुत ही शानदार है, अभिनय दिल छूने वाला है, शायद बहुत दिनों बाद ऐसी कोई फ़िल्म देखी कि लगा इसके लिये वाकई कुछ लिखना चाहिये। फ़िल्म की पूरी टीम को बधाई।

जिस्म २ देह का प्रेम प्रदर्शन… (Jism 2..)

फ़िल्म जिस्म २ देखी, यह फ़िल्म देहप्रदर्शन के साथ ही संपूर्ण देह के प्रेम प्रदर्शन का अच्छा अक्स दिखाती है। जिसमें बताया गया है कि मन तो नफ़रत कर सकता है, परंतु जिस्म का क्या करें उसकी जरूरतें अपनी हैं और उस जिस्म की जरूरतें वहीं पूरी कर सकता है जो उस जिस्म को समझ सकता है।
जिस्म २ में सनी लियोन को लिया गया, ज्ञात रहे कि सनी लियोन कनाडा की पोर्न स्टार हैं और भारतीय हैं, सनी लियोन को भारत में पहली बार बिग बोस में दिखाया गया था।
अदाकारी सनी में बिल्कुल नहीं है, चेहरे पर भाव नहीं है, फ़िल्म केवल देहयष्टि के भाव देखने के हिसाब से उचित है वरना कहानी कसी हुई नहीं है और जिस्म के संवाद अच्छॆ बन पड़े हैं, संवाद बहुत कुछ अच्छे लगे, कुछ गाने भी अच्छॆ हैं।
यह फ़िल्म केवल सनी लियोन के देह प्रदर्शन के बलबूते ही बॉक्स ऑफ़िस पर चलेगी, क्योंकि इस फ़िल्म में बस सनी लियोन का जिस्म ही दिखाया गया है और वह भारतीय सिनेमा में पसंद किया जायेगा या नहीं, यह पता नहीं, क्योंकि कलाकार जो कामुकता दर्शाते हैं वह सच के करीब होती है और यह कामुकता बिल्कुल पोर्न फ़िल्म के समकक्ष वाली है।
गाँवों में शायद यह फ़िल्म लोगों द्वारा पसंद की जायेगी, शहरों में नहीं, पूजा भट्ट से एक अच्छी फ़िल्म की अपेक्षा थी और आशा के विपरीत इसमें इमरान हाशमी नहीं थे, जो कि इस तरह की फ़िल्मों के लिये भट्ट कैंप से सबसे उपयुक्त हीरो इमरान हैं और उनका अभिनय फ़िल्म में जान डाल देता है।
वैसे शिवा फ़ेम ……. ने इस फ़िल्म में जान डालने की पूरी कोशिश की है, परंतु किरदार का इतना महत्वपूर्ण रोल ना होने से उन्हें अपनी अदाकारी दिखाने का पूरा मौका नहीं मिला।
कुल मिलाकर हमारी तरफ़ से तो यह फ़िल्म को हम केवल १ स्टार देते हैं, परंतु सबकी अपनी अपनी जरूरतें होती हैं, जिंदगी की भी और देखने की भी, तो हो सकता है कि जो जिस्म देखने जायेंगे उन्हें बहुत अच्छी लगे और वे उसे ४ स्टार भी दे सकते हैं।
कुछ संवाद जिस्म २ से जो कि मैंने ट्विट किये थे –
झूठ में मान नहीं सकता और सच किसी को सुनना नहीं ।
ये दुनिया सिर्फ़ प्यार की बातें करती है, चलती जुर्म पर है ।
जिंदगी में इंसान के पास सिर्फ़ दो ही रास्ते होते हैं, या तो वो झूठ को मानकर होश में रहे या सच सुनकर दीवाना हो जाये ।
तुम झूठ नहीं हो, क्योंकि तुम भी इसी जिंदगी के सर्कस का एक हिस्सा हो ।
ऐ जिंदगी तुझे तो सिर्फ़ ख्वाब में देखा हमने ।
तन्हा आदमी अक्सर अपने आप से ही बातें किया करते हैं ।
जब जान पर आती है तो उस जान को बचाने के लिये सब कुछ सीख जाते हैं।
जब कोई खुद को ही खत्म करने पर आ जाये, तो उसे कोई नहीं बचा सकता ।
अगर दुनिया में खूबसूरती है तो बदसूरती भी है । अँधेरा है तो रोशनी भी है ।
अगर किसी से प्यार करते हो तो उसे भूल जाने का जिगर भी रखो ।

 

परिवार में क्या अब तो फ़िल्मों में भी कोई सीख नहीं मिलती ।

    कल सोने ही जा रहे थे तभी ना जाने क्या सूझी और बुद्धुबक्सा चालू कर लिया और जीअफ़लाम पर फ़िल्म आ रही थी, बलराज साहनी और निरूपमा राय इसके मुख्य कलाकार थे और उनके तीन बच्चे बड़ा बेटा रवि, मंझली बेटी और छोटा बेटा राजा के इर्दगिर्द घूमती कहानी ने पूरी फ़िल्म देखने पर मजबूर कर दिया।

    बाद में अंतराल में फ़िल्म का नाम पता चला, फ़िल्म का नाम “घर घर की कहानी” था।

    फ़िल्म की कहानी माता पिता और बच्चों के ऊपर बेहद कसी हुई थी, जिसमें बताया गया था कि बच्चों को शिक्षा घर से ही मिलती है कहीं बाहर से नहीं मिलती, मूल रूप से ईमानदार पिता जो कि एक अच्छे पद पर कार्यरत है, और चाहे तो विटामिन आर बकौल बलराज साहनी के कार्यालय में कार्य करने वाले एक क्लर्क याने कि रिश्वत से अपनी सारी जरूरतें पूरी कर सकते हैं, परंतु वे बेईमानी न करते हैं और ना करने देते हैं, और परिवार के लिये भी एक मिसाल बनते हैं।

    बलराज साहनी को एक बेहद ईमानदार, संजीदा, जिम्मेदार और समझदार व्यक्ति के रूप में पेश किया गया है, पिता के रूप में उनमें गुस्सा नहीं बल्कि प्यार है और हरेक बिगड़ी हुई स्थिती को गुस्से से नहीं, समझदारी और जिम्मेदारी से सुधारते हैं।

    बड़ा बेटा रवि जो कि हाईस्कूल में पढ़ता है वह अपने पिता से ५० रूपयों की मांग करता है जिससे वह बच्चों के साथ अजंता एलोरा घूमने जा सके तो पिता मना कर देते हैं और कहते हैं कि “बेटा जितनी चादर हो उतने ही पैर पसारने चाहिये, चादर से बाहर पैर पसारने से घर की सुख शांति भंग हो जाती है।”

    पर बेटा रवि नहीं मानता और अपने पिता से कहता है कि मैं हड़ताल करूँगा और खाना नहीं खाऊँगा जब तक कि मुझे ५० रूपये नहीं मिल जाते, इधर साथ ही मंझली बेटी भी टेरलीन की फ़्रॉक लेने और छोटा बेटा राजा साईकिल की जिद लेकर हड़ताल करने लगते हैं, और तीनों माता पिता से कहते हैं कि जब तक हमारी माँगें पूरी नहीं होतीं, तब तक हम खाना नहीं खायेंगे।

    माँ निरूपा राय पिता से कहती है कि बच्चों की जिद पूरी कर दो, तो वे कहते हैं कि ये बच्चे ही कल के शहरी हैं और इन्हें पता होना चाहिये कि पैसा का मोल क्या है, पैसा कमाना कठिन है और पैसा खर्च करना बहुत आसान, अगर आज मैं इनकी माँगें पूरी कर दूँगा तो ये कल फ़िर कोई नई माँगे खड़ी कर देंगे और बात बनने की जगह बिगड़ने लगेगी। पिता कहते हैं कोई नहीं चलो खाना खाते हैं, जब सुबह तक भूखे रहेंगे तो सारी हेकड़ी निकल जायेगी और चुपचाप हड़ताल ओर सत्याग्रह हवा हो जायेगी। पिता खाने पर बैठते हैं कि पहला निवाला लेते ही बच्चों की याद आ जाती है और चुपचाप निवाला वापिस थाली में रखकर वहीं गिलास में हाथ धोकर उठ खड़े होते हैं।

    उसके बाद माँ अपने तीनों बच्चों के पास खाने की सजी थाली लेकर उनसे शांतिपूर्वक कहती है कि खाना खा लो तुम लोग तो हर बात मानते हो, तो तीनों बच्चे कहते हैं कि हम तो आज भी हर बात मानने को तैयार हैं केवल खाना खाने की बात छोड़कर। जब माँ अपने कमरे में वापिस पहुँचती है तो पिता पूछते हैं कि तुम्हारी शांति यात्रा भी लगता है नाकामयाब हो गई है, तो माँ फ़फ़क फ़फ़क कर रो पड़ती है तो पिता कहते हैं कि जब बेटा बड़ा हो जाये तो उसे सारी जिम्मेदारियाँ समझनी चाहिये और यह भी समझना चाहिये कि परिवार के लिये पैसे का क्या मोल है।

    सुबह माँ बढ़िया गरम गरम आलू के परांठे नाश्ते में सेंकती हैं और राजा के मुँह में पानी आ रहा होता है परंतु फ़िर भी वह काबू करता है और माँ कहती है कि चलो नाश्ता कर लो, पर बच्चे मना कर देते हैं, तभी पिता आते हैं और कहते हैं कि रवि तुमको लगता है कि घर चलाना बहुत आसान है।

    रवि कहता है कि मेरा दोस्त है उसके पिता जी को तो आपसे भी कम तन्ख्वाह मिलती है और उसकी सारी जिद उनके पिता जी पूरी कर देते हैं, पिता जी कहते हैं बेटा मुझे प्राविडेंट फ़ंड और आयकर कटने के बाद ६०० रूपये के आसपास मिलते हैं, तो रवि कहता है कि इसमें से तो बहुत कुछ खरीदा जा सकता है तो पिता कहते हैं कि बेटा घर का सारा खर्च करने के बाद महीने के आखिरी में कुछ भी नहीं बचता है।

    तो पिता कहते हैं कि अच्छा बेटा एक काम करते हैं कि कल से घर अगले छ: महीने के लिये तुम चलाओगे और अगर पैसे बचा सके तो अपनी सारी माँगें पूरी कर लेना। रवि तैयार हो जाता है, माँ कहती भी है कि बेटा रहने दो नहीं तो आटॆ दाल का भाव पता चल जायेगा।

    रवि घर चलाने की जिम्मेदारी अपने कंधे पर ले लेता है, पिता के एक साले हैं जो कि इनके समझदारी पर नाज करते हैं और अपनी बहन याने कि निरूपा राय को हद से ज्यादा प्यार करते हैं, फ़िल्म ऐसे ही बड़ती रहती है रवि घर का खर्च चलाने लगता है तो पहले महीने के बाद वह कहता है कि ४० रूपये की बचत है, तो पिता सारे खर्च याद दिलाते हैं तो पता चलता है कि कुछ बिल तो उसने भरे ही नहीं हैं और इस तरह से कुछ भी नहीं बचता अगले महीने दीवाली आ जाती है और बच्चे नये कपड़े लेने से मना कर देते हैं और साथ ही घर में मेहमान आ जाते हैं, एक बच्चा पटाखों से जल जाता है उसके अस्पताल का खर्चा। फ़िर तीसरे महीने में माँ बीमार हो जाती है तो सब दिन रात सेवा करते हैं और माँ ठीक हो जाती है।

    क्लर्क को पुलिस रिश्वत के जुर्म में पकड़ लेती है और उनकी बेटी का रिश्ता टूट जाता है यहाँ पिता बलराज साहनी लड़के वालों को समझाने जाते हैं कि पिता का किया बच्चों सजा क्यों भुगते और आखिरकार लड़केवाले मान जाते हैं।

    इसी बीच बच्चे पैसे बचाने के लिये घर से नौकरानी को हटा देते हैं, स्कूल बस की बजाय पैदल जाने लगते हैं और घर के सारे काम खुद ही करने लगते हैं। पूरे घर की जिम्मेदारी बच्चे बखूबी निभाते हैं। उधर पिता के साले का बेटा जो है वह जुएँ में मस्त है और घर की चीजें बेचकर जुएँ मॆं लगाता रहता है और उसकी माँ उस पर पैसे लुटाती रहती है। रवि चौथे महीने के हिसाब की शुरूआत ही कर रहा होता है और साथ ही उसके पास स्कूल में किये गये ड्रामा “श्रवण कुमार” से २०० रूपयों का ईनाम भी रहता है। उसी समय साले के बच्चा इनके घर पर आता है और रवि को रूपये रखते हुए देख लेता है तो वह इनके घर से ८०० रूपये चुरा लेता है, अब सब बहुत परेशान होते हैं और पिता कहते हैं मुझे अपनी तन्ख्वाह से ज्यादा रवि के ईनाम में मिले रूपयों की फ़िक्र है। खैर चोर पकड़े जाते हैं। और बच्चों को भी समझ आ जाता है कि जब माता पिता घर चला रहे थे तब ज्यादा सही था, सब चीजें भी घर में आती थीं और मजे रहते थे।

फ़िल्म में बहुत सारी सीखें मिलीं –

१. जितनी चादर हो उतने ही पैर फ़ैलाने चाहिये।

२. रिश्वत नहीं लेनी चाहिये।

३. सिगरेट अगर छोड़ दी जाये तो अच्छी खासी रकम महीने की बच जाती है। और सेहत भी ठीक रहती है।

४. जुआँ खेलना और बुरी संगत ठीक नहीं है।

५. बच्चों को बचपन से ही संस्कार घर में ही देने होते हैं।

    बहुत सारी चीजें अच्छी लगीं जैसे कि सुबह उठते ही माँ निरूपा राय पिता के पैर छूकर दिन की शुरूआत करती है, बच्चे माता पिता को भगवान का रूप मानते हैं, पूरा घर मिलजुल कर रहता है।

आजकल की फ़िल्मों में यह सब कहाँ मिलता है।

हेमामालिनी की अदाएँ

आज सुबह यह गाना किशोर कुमार की सदाबहार आवाज में सुना, इस गाने में देवानंद और हेमामालिनी की अदाएँ देखते ही बनती हैं, गाने की पंक्तियों में कहा खटमल के लिये गया है और हेमामालिनी शरमा रही हैं।
हमारे एक मित्र हैं जो कि उम्र में हमसे बहुत बड़े हैं, वे लगभग पुराने हर गाने का पोस्टमार्टम कुछ ऐसे अंदाज में करते हैं कि आज की पीढ़ी पुराने सारे गाने पसंद करने लगे, ऐसे लोगों की बहुत जरूरत है।

आम आदमी बेबस और उसका लक्ष्य !

कल ऑफ़िस से वही देर से आये, रात्रिभोजन और टहलन के पश्चात १० मिनिट टीवी के लिये होते हैं और फ़िर शुभरात्रि का समय हो जाता है। कल जब टीवी देखना शुरू किया तो फ़िल्म “शूल” आ रही थी, और यह मेरी मनपसंदीदा फ़िल्मों में से एक है।

मनपसंदीदा फ़िल्म इसलिये है कि आदमी की बेबसी और उसके द्वारा तय किया गया लक्ष्य कैसे प्राप्त किया गया, इसका बेहतरीन चित्रण है।

आम आदमी बेबस और कमजोर नहीं होता, केवल परिवार के कारण भयभीत होता है, अगर आम आदमी भयभीत होना छोड़ दे तो सारा तंत्र एक दिन में सही हो जाये, परंतु आम आदमी बेबस ठहरा। कहीं भी हो किसी भी तरह की संस्था में हो, गलत का साथ देना या आँख मूँदकर गलत होने देना केवल बेबसी के कारण करता है, अगर गलत का विरोध करेगा तो जितना भय और गलत लोगों से उसे खतरा होगा वह आम आदमी टालना चाहता है।

इसके उदाहरण बहुत सारे हैं, जिन्होंने अपनी जान गँवाई है फ़िर वो किसी एनजीओ के कार्यकर्ता हों या फ़िर पत्रकार या फ़िर और कोई इंजीनियर, ये सब भी बेबस थे परंतु निर्भीक थे और तंत्र से लड़ना चाहते थे, सो तंत्र ने उन्हें गहरी नींद सुला दिया।

लक्ष्य अधिकतर फ़िल्मों में ही मिलता है, क्योंकि आम जीवन में तंत्र इतना प्रभावशील होता है कि उसमें रीटेक की कोई गुंजाईश ही नहीं होती।

आठ साल बाद फ़िल्म देखने का असर

वर्षों बाद सिनेमा हॉल में जाना बिल्कुल नया अनुभव लगा, ऐसा लगा कि शायद फ़िल्म देखने सिनेमा पहली बार गये हैं। सिनेमा हॉल बदल गये हैं, सिनेमा हॉल की जगह बदल गई है यहाँ तक की फ़िल्मों में भी बहुत कुछ बदल गया है।

मुझे याद है बचपन से जैसे हर बच्चे को सिनेमा हॉल में जाना एक भिन्न प्रकार का अनुभव होता है और जो आकर्षण सिनेमा हॉल में होता है फ़िल्मों के लिये वह अद्भुत होता है, जो अनुभव मैंने शायद पहली बार किया था, वही अनुभव आज शायद मेरे बेटे ने किया होगा।

मुझे अपने शहरों के सिनेमा हॉल अभी,  तक याद हैं, जिनमें में अपने बाल, किशोरावस्था में गया था। पहले साईकिल से जाते थे और साईकिल स्टैंड पर १ रूपये स्टैंड का किराया होता था फ़िर टिकट के लिये लाईन में लगते थे और हमेशा १५ मिनिट पहले टॉकीज जाते थे जिससे वहाँ लगे उस फ़िल्म के सारे पोस्टर और आने वाली फ़िल्मों के पोस्टर इत्मिनान से देख सकें। उन पोस्टरों में पता नहीं क्या होता था पर जो आकर्षण उन पोस्टरों में शायद मेरे लिये था, वह शायद सब के लिये होता था, तभी तो टॉकीज के अंदर लॉबी में भी पोस्टर देखने की इतनी भीड़ होती थी।

टॉकीज जाकर फ़िल्म देखना मित्र समूह में विशेष बात मानी जाती थी, और अपनी कॉलर ऊपर करके उस फ़िल्म के डॉयलाग बोलना हेकड़ी ! वह जमाना ही कुछ और था अब जमाना बदल गया है।

जब छात्र थे तब कोशिश रहती थी कि सबसे आगे की सीट पर बैठें, और कम कीमत में फ़िल्म देखकर पैसे बचाकर अगली फ़िल्म भी देख लें। फ़िर जैसे जैसे बड़े हुए हमारी सीट टॉकीज में पीछे खिसकती गई, पहले फ़र्स्ट फ़िर स्टॉल, फ़िर स्पेशल स्टॉल फ़िर पहली मंजिल पर बालकनी और उसके पीछे बॉक्स कई बार दोस्तों के साथ फ़ैमिली बॉक्स का भी लुत्फ़ उठाया जिसमें सोफ़े हुआ करते थे

कुछ टॉकीज बेहद प्रसिद्ध थे और उस समय तो टॉकीजों में भी अच्छे से अच्छे होने की प्रतियोगिता चलती थी, म.प्र. का सबसे बड़ा टॉकीज होने का गौरव, पहला डॉल्बी साऊँड होने का गौरव या फ़िर म.प्र. में सुविधा के हिसाब से सबसे अच्छा टॉकीज होने का गौरव।

उस जमाने में हमारे शहर में लगभग १० टॉकीज थे, आज पता नहीं कितने हैं, कुछ टॉकीज तोड़कर तो उसमें आधुनिक बाजार बना दिये गये हैं। कुछ टॉकीज ऐसे थे जिनमें जाना हम अपनी शान के खिलाफ़ समझते थे और कुछ टॉकीज ऐसे थे जहाँ केवल अश्लील याने कि एड्ल्ट फ़िल्में ही चला करती थीं, जहाँ जाना मतलब कि अपनी इज्जत की ऐसी तैसी करना। आज भी याद है एक टॉकीज है “मोहन” जिसमें केवल “एडल्ट” फ़िल्में ही लगती थीं, उसमें लगी “जाँबाज” और हम मित्र मंडली के साथ देखने गये और फ़िल्म के बाद बाहर निकले तो दोस्तों के कुछ रिश्तेदारों ने “मोहन” से निकलते देख लिया और जो हंगामा हुआ, वो तो भला हो कि “एडल्ट” नहीं थी, कुछ टॉकीज ऐसे होते थे कि जिसमें जाना और वापिस घर आना रूतबे का का सबब हुआ करता था।

नये दौर का सिनेमा, चाय पकौड़े और समोसे से पॉपकार्न के टोकरे, शीतपेय का जमाना आ गया है। सब बदल गया है, देखने वाले भी बदल गये हैं और दिखने वाले भी।

आखिरी फ़िल्म जयपुर में प्रसिद्ध टॉकीज “राज मंदिर” में “खाकी” देखी थी और कल लगभग ८ वर्ष बाद “अग्निपथ” सिनेमेक्स में देखी।

आरक्षण फ़िल्म को सरकार बना रही है विवादास्पद.. (Reservation Film… Controversial)

    आरक्षण फ़िल्म को लेकर आजकल बहस चल रही है, आजकल न्यूज चैनल पर सबसे ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है। ब्रेकिंग न्यूज में आ रहा है कि मायावती ने फ़िल्म देखने की इच्छा जाहिर की और उत्तरप्रदेश में रिलीज पर रोक लगा दी है, तो प्रकाश झा ने मायावती को उत्तर दिया है कि ९ अगस्त से पहले प्रिंट देना उनके लिये संभव नहीं है।

    इधर प्रकाश झा, अमिताभ बच्चन, मनोज वाजपेयी और दीपिका पादुकोण हर न्यूज चैनल पर टॉक शो भी कर रहे हैं और न्यूज रूम में जाकर आरक्षण फ़िल्म के बारे में बातें भी कर रहे हैं। महाराष्ट्र में पहले ही विरोध जारी है, कतिपय लोग कानून को अपने हाथ में लेकर आरक्षण फ़िल्म के पोस्टरों को फ़ाड़ रहे हैं, कालिख पोत रहे हैं।

    आरक्षण इस तरह इस फ़िल्म को अब ज्यादा पब्लिकसिटी की जरूरत ही नहीं रह गई है और आरक्षण के विषय में लगभग हर विद्यार्थी परिचित है, यह प्रकाश झा का अपना एक दृष्टिकोण है और एक कलाकार के नाते उन्हें अपने दृष्टिकोण रखने का हक बनता है ताकि जनता भी उस दृष्टिकोण को देख सके। पर पता नहीं सरकार और राजनैतिक पार्टियाँ क्यों इतनी डरी हुई हैं, वैसे भी आरक्षण एक संवेदनशील मुद्दा है और इस पर सुलझे हुए तरीके से बहस करने की जरूरत है।

    आरक्षण केवल फ़िल्म नहीं है एक मुद्दा है, और इसे स्वस्थ्य तरीके से लिया जाना चाहिये ना कि कुछ किराये के गुंडे लेकर जनता को गुमराह करना चाहिये।

    आज के आरक्षण के नियमों से कम से कम सामान्य वर्ग के लोग तो खुश नहीं हैं, बस यह समझ लीजिये कि चिंगारी दबी हुई है, और हवा देने की देर है, पर इतना भी यकीन से कह सकते हैं कि एक फ़िल्म चिंगारी को हवा नहीं दे सकती, केवल एक नयी विचारधारा नौजवानों को दे सकती है, जिससे शायद सरकार भी प्रेरित हो।

    खैर अब इंतजार है आरक्षण फ़िल्म का … फ़िल्म अच्छी ही होगी आखिर इतनी बड़ी स्टॉर कॉस्ट जो है ।

दो वयस्क फ़िल्में “देहली बेहली” और “मर्डर २”, हमारी अपनी समीक्षा (Two Adult Movies “Delhi Belly” and “Murder 2” My Review)

    पिछले दो दिनों में दो वयस्क फ़िल्में देख लीं, जो कि बहुत दिनों से देखने की सोच रहे थे और ऐसे महीनों निकल जाते हैं फ़िल्में देखे हुए।  पहली “देहली बेहली” और दूसरी “मर्डर २”। दोनों ही फ़िल्में अलग अलग कारणों से वयस्क दी गई होंगी। जहाँ “देहली बेहली” एक व्यस्क हास्य फ़िल्म है वहीं “मर्डर २” में  गरम दृश्य, थोड़ी बहुत गालियाँ और हिंसक दृश्य हैं ।

    अगर गरम दृश्यों की बात की जाये तो “देहली बेहली” में कुछ दृश्य ऐसे हैं जो कि लोगों को आपत्तिजनक लग सकते हैं मगर आजकल की पीढी इसे आपत्तिजनक नहीं मानती और इसे हास्यदृश्य ही मानेगी, तो यहाँ पीढ़ियों के अंतर की बात आ जाती है, और वहीं “मर्डर २” में गरम दृश्यों की जरूरत न होने पर भी ठूँसा गया है जो कि बोझिल से लगते हैं, परंतु उत्तेजना पैदा करने में कामयाब हुए हैं।

 मर्डर २

    अगर गालियों की बात की जाये तो “मर्डर २” में शायद ३-४ गालियों से ज्यादा नहीं हैं, और वे भी बिल्कुल सही तरीके से उपयोग की गई हैं, कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि गालियों को जबरदस्ती ठूँसा गया है या कम गालियों में काम चला लिया गया है। अब जब वयस्क फ़िल्म का सर्टिफ़िकेट लिया ही था तो कुछ गालियों का उपयोग तो कर ही सकते थे, और वह उन्होंने किया।

देहली बेहली के लिये मैंने फ़ेसबुक पर नोट लिखा था वही यहाँ चिपका रहा हूँ।

देहली बेहली

कल “डैली बैली” ए सर्टीफ़िकेट फ़िल्म देखी, तो लगा कि कई जगह जान बूझकर गाली कम दी गई है, जहाँ ज्यादा गालियाँ होनी चाहिये वहाँ केवल एक ही गाली से काम चला लिया गया है, अगर सही तरीके से गालियों का विज्ञान समझ लिया जाता तो यह संभव था, इसके लिये विशेष रूप से स्कूल और कॉलेज में जाकर समझा जा सकता है। या फ़िर वे लड़के जो होस्टल में रहते हैं, या अपने घर से अलग रहते हैं, उनका रहन सहन और गालियों का उपयोग बकायदा व्याकरण के तौर पर किया जाता है। वैसे आजकल हमारा गालियाँ देना काफ़ी कम हो गया है, परंतु हाँ अपने पुराने मित्रों के साथ आज भी बातें करते हैं तो बिना गालियों के बातें करना अच्छा नहीं लगता है, उसमें आत्मीयता लगती है। हालांकि किसी तीसरे सुनने वाले को यह गलत लग सकती है परंतु अगर व्याकरण का उपयोग नहीं किया जाये तो बात का मजा ही नहीं आता।

अब एक बात और है, जो सभ्य (मतलब कहने के लिये नहीं वाकई सभ्य, जिन लोगों ने अपने जीवन में कभी गालियाँ नहीं दीं) हैं, तो यह फ़िल्म वाकई उन लोगों के लिये नहीं है। यह हम जैसे सभ्यों (हम ऐसे सभ्य हैं, कि समय पड़ने पर इतनी गालियाँ दे सकते हैं और ऐसी ऐसी गालियाँ दे सकते हैं, कि अच्छे अच्छों के पसीने छूट जायें, पर देते नहीं हैं) के लिये है। खासकर युवावर्ग इसे बहुत पसंद करेगा।

    हिंसक दृश्यों की बात की जाये तो “मर्डर २” में हिंसक दृश्य अपना पूर्ण प्रभाव नहीं छोड़ पाये, वयस्क सर्टिफ़िकेट था तो हिंसक दृश्य को और बेहतर बनाया जा सकता था, हालांकि प्रशांत नारायन ने अपनी और से कोई कसर नहीं छोड़ी है, हिजड़ा बनने का दृश्य बहुत प्रभावी हैं और जो दृश्य पूर्व में आशुतोष राणा ने निभाये हैं, उनकी टक्कर के हैं। वैसे भी महेश भट्ट की फ़िल्म में अगर हिजड़ा ना हो तो उनकी फ़िल्म पूरी नहीं होती।

    “देहली बेहली” में हिंसक दृश्य प्रभावी बन पड़े हैं, जैसे कि अमूमन दृश्य में संवाद बनाये हैं, उससे वे दृश्य प्रभावी बन पड़े हैं, परंतु कुछ दृश्य हास्य पैदा करते हैं।

    कुल मिलाकर “देहली बेहली” बहुत अच्छी फ़िल्म लगी और “मर्डर २” ठीक ठाक, मतलब बहुत अच्छी नहीं। अच्छी बात यह है कि दोनों ही फ़िल्मों की पटकथा अच्छी कसी हुई है और अपने से दूर नहीं होने देती है।

अब जल्दी ही “चिल्लर पार्टी” देखने की इच्छा है।