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बचपन की परिपक्वता..

    परिवार गर्मी की छुट्टियों में घर गया हुआ है, यही दिन होते हैं जब हम अकेले होते हैं और बेटेलाल अपने दादा दादी और नाना नानी का भरपूर स्नेह पाते हैं। बेटेलाल सुबह से रात तक अपने हमउम्र दोस्तों के साथ खेलने में व्यस्त होते हैं, वहाँ उनकी भरपूर मंडली है, और यहाँ बैंगलोर में गिनेचुने एक या दो और वे भी किसी ना किसी गतिविधि मॆं व्यस्त होते हैं । अभी बेटेलाल का क्रिकेट प्रेम सर चढ़कर बोल रहा है, शाम पाँच बजे से जो गली क्रिकेट शुरू होता है तो अँधेरा होने तक चलता रहता है। बचपन में तो हम इतना खेलने के बाद खाना खाने के बाद स्ट्रीट लाईट की रोशनी में खेलते थे। पर भला हो नगर निगम का कि उसने हमारे घर के आसपास बड़ी स्ट्रीट लाईट नहीं लगाई है।

Harsh Rastogi

क्षिप्रा नदी में शाम के समय नाव के मजे लेते हुए बेटेलाल

    यही दिन होते हैं बच्चों के मजे के जब गर्मी की छुट्टियों में मौज होती है और दोस्तों में कोई भेदभाव नहीं होता कि तू किसका बेटा है, क्या करता है और भी पता नहीं क्या क्या… आजकल बड़े शहरों में हमने देखा है कि  दोस्त भी हैसियत देखकर बनाते हैं, बड़ा अजीब लगता है यह सामाजिक बदलाव, जो कि कहीं ना कहीं बच्चों के लिये खालीपन भरता है।

    बेटेलाल के साथ क्रिकेट खेलने वालों में उनका एक साथी जो कि उनके साथ रोज ही खेलता था, एक शाम एक दुर्घटना में नहीं रहा, मेरे बेटे ने मुझे फ़ोन पर बताया – “डैडी, वह हमारे साथ खेलता था, और रात नौ बजे वो जो बिल्डिंग बन रही है उसकी तीसरी मंजिल से उसका पैर फ़िसल गया और नीचे गिर गया, मेरे दोस्त ने बताया कि जब वह गिरा तो उसके सिर के पास बहुत सारा खून बह रहा था और उसके पापा मम्मी एकदम अस्पताल ले गये, पर डैडी वह नहीं बचा, उसकी डैथ हो गई” और फ़िर वह चुप हो गया ।

    फ़िर थोड़े अंतराल के बाद बोला “डैडी, अब मैं आपकी बातें माना करूँगा, मैं ध्यान से सड़क पार करूँगा, ध्यान से खेलूँगा, आप बिल्कुल चिंता मत करना” उस रात बेटेलाल मम्मी का हाथ पकड़कर सोये और थोड़ी थोड़ी देर में सहम रहे थे, बेटेलाल के मन पर दोस्त की मौत का बहुत असर हुआ था।

    इतनी छोटी उम्र में दोस्त की मौत ने हमारे बेटे को पता नहीं कहाँ से इतनी परिपक्वता दे दी, बेटा एकदम से बड़ा हो गया। बेटे को किसी को खोने का मतलब समझ में आ रहा है, जो कल तक उससे हाथ मिलाकर खेलता था, आज वह उसे कहीं दिखाई नहीं दे रहा और वह अब कभी नहीं आयेगा।

जो स्कूल जाते हैं वे नौकरी करते हैं और जो कतराते हैं वे उन्हें नौकरी पर रखते हैं.. बेटेलाल से कुछ बातें..

    अभी बस बेटे को बस पर स्कूल के लिए छोड़ कर आ रहा हूँ, लगभग १० मिनिट बस स्टॉप पर खड़ा था, तो बेटेलाल से बात हो रही थीं।
    कहने लगा कि मम्मी बोल रही थी कि कॉलेज में यूनिफ़ॉर्म नहीं होती, वहाँ तो कैसे भी रंग बिरंगे कपड़े पहन कर जा सकते हैं, मैंने कहा हाँ पर आजकल बहुत सारे कॉलेजों में भी यूनिफ़ॉर्म पहन कर जाना पड़ता है तो मैं तो ऐसे ही कॉलेज में एडमिशन लूँगा जिसमें अपने मनमर्जी के कपड़े पहन कर जा सकते हों।
    फ़िर कॉलेज के बाद की बात हुई कि आईबीएम में भी तो आप अपने मनमर्जी के कपड़े पहन कर जा सकते हो, मैंने कहा हाँ पर केवल फ़ोर्मल्स और शुक्रवार को जीन्स और टीशर्ट पहन सकते हैं, टीशर्ट कैसी पहन सकते हैं, कॉलर वाली या गोल गले वाली, मैंने कहा “कॉलर वाली, गोल गले वाली अलाऊ नहीं है”, ऊँह्ह फ़िर मैं आईबीएम में नहीं जाऊँगा, मुझे तो ऐसी जगह जाना है जहाँ गोल गले वाली टीशर्ट में जा सकते हों, फ़िर मैं माईसिस में जाऊँगा तो मैंने कहा कि हाँ वहाँ पर तो पूरे वीक कुछ भी पहन कर जा सकते हो, बस तुम स्मार्ट लगने चाहिये।
    तो ठीक है मैं आईबीएम को मोबाईल बनाऊँगा और यहीं पर एक इतनी ऊँची बिल्डिंग बनाऊँगा जो कि चाँद को छुएगी जिससे यहाँ पास में रहने वाले लोगों को ऑफ़िस आने में आसानी होगी, और मोबाईल ऑफ़िस को उनके घर के पास खड़ा कर दूँगा, तो प्राब्लम सॉल्व हो जायेगी।
    मैंने कहा कि तुम नौकरी क्यों करोगे, तुम खुद एक कंपनी बनाओ, तो जबाब मिला कि मेरे पास इतने पैसे थोड़े ही हैं जो इतनी बड़ी कंपनी खोल लूँगा, हमने कहा कि हरेक कंपनी की शुरूआत छोटे से ही होती है बाद में बाजार में जाने के बाद अच्छा कार्य करने पर बड़ी हो जाती है। तो नौकरी का मत सोचो और कंपनी खोलने का सोचो, उसके लिये पैसे की नहीं अक्ल की जरूरत होती है, उसके लिये स्कूल भी जाने की जरूरत नहीं होती, जो स्कूल जाते हैं वे नौकरी करते हैं और जो स्कूल जाने से कतराते हैं दिमाग कहीं और लगाते हैं वे स्कूल जाने वालों को नौकरी पर रखते हैं।
    तो बेटेलाल बोलते हैं फ़िर मैं पार्टनर बन जाऊँगा और आगे चलाऊँगा, इतने में बस आ चुकी थी, हम सोच रहे थे कि काश कुछ सालों पहले इतनी समझ हम में होती तो ऐसा ही कुछ कर रहे होते।
    जिन्होंने भी अभी तक अच्छे कॉलेज से शिक्षा ली है, साधारणतया वे अभी तक बड़ी कंपनी नहीं बना पाये हैं, परंतु औसत शिक्षा वाले लोगों ने असाधारण प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए बड़ी बड़ी कंपनियाँ बनाई हैं।

पैसे पेड़ पर उगते हैं पता बता रहे हमारे बेटे लाल…

जब हम घर पर रहते हैं तो बेटेलाल को हम ही सुबह उठाते हैं, और कुछ संवाद भी हो जाते हैं, कुछ दिनों पहले महाराज अपनी एक किताब गुमा आये और अब बोल रहे हैं कि पैसे दे दीजिये हम नई किताब खरीद लायेंगे। अपनी आदत के अनुसार हमने कह दिया “पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं” और अब तो यह हमारे प्रधानमंत्री जी ने भी पुष्ट कर दिया है।

हमने कहा बेटेलाल पहले जाकर अपनी किताब ढूँढ़ो जैसे डायरी गुमी थी और बाद में मिल गई वैसे ही वह भी मिल जायेगी, चिंता मत करो। पर ये महाराज आश्वस्त हैं नहीं मिलेगी। तभी हमने फ़िर से बोला बेटा पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं, तो हम तो इसके लिये पैसे नहीं देने वाले हैं।

पैसे का पेड़

हमें तभी बेटेलाल का जबाब मिला “हमें कुछ नहीं पता, हमें तो किताब लेनी है, और पैसे चाहिये!!!”, हमने फ़िर से कहा बेटा पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं, कहते हैं – “पैसे पेड़ पर उगते हैं”, हमने कहा फ़िर पता बताओ हम अभी वहीं से पैसे तोड़ लाते हैं और प्रधानमंत्री जी को भी बता देते हैं, बेटेलाल पूछते हैं कि ये प्रधानमंत्री जी कहाँ रहते हैं, हमने कहा दिल्ली में रहते हैं, बेटेलाल कहते हैं “उईई मैं तो इतनी दूर नहीं जा रहा उनको बताने कि पैसे का पेड़ कहाँ है”, हमने कहा अच्छा हमें तो बता दो।

बेटेलाल कहते हैं “वो पेड़ यहाँ बैंगलोर में थोड़े ही है, वह तो जयपुर में है, जयपुर में कांदिवली गाँव है, हमने कहा ओय्ये कांदिवली तो मुँबई में है, तो बेटेलाल कहते हैं अच्छा जयपुर की जगहों के नाम बताओ, हमने कहा हमें भी पता नहीं तो कहते हैं कि पुर्रपुर्रपुरम में है।

खैर यह संवाद तो इतना ही रहा, पर इतने संवाद में यह बात समझ में आ गई कि बेटेलाल को भी पता है कि पैसे का पेड़ नहीं है और कहीं उगते भी नहीं है, उनके लिये तो डैडी ही पैसे का पेड़ हैं, बस डैडी को हिलाओ और पैसे गिरने लगेंगे । मैं भी बेटे की मासूमियत भरी बातों को कहीं और से जोड़कर देखने लगा और अब सोच रहा हूँ कि काश मैं भी बच्चों जैसा पावन पवित्र मन वाला होता और इन बातों को यहीं खत्म कर कहीं किसी और काम में व्यस्त हो जाता ।

पापा प्लीज आज मत जाओ और आज यहीं रहो

    हमारे एक मित्र हैं जो कि आजकल नौकरी के कारण परिवार के साथ अलग रह रहे हैं। उनकी एक प्यारी सी बिटिया है जो कि लगभग ५ वर्ष की होगी। बिटिया अपने पापा को बहुत याद करती है। हमारे मित्र को अधिकतर व्यापारिक यात्राओं पर ही रहना होता है जिस कारण से परिवार को आजकल ज्यादा समय नहीं दे पा रहे हैं। इसके पहले करीब तीन  वर्ष अपने परिवार के साथ ही भारत के बाहर रहे और वे तीन वर्ष बिटिया के जन्म के बाद के हैं, बिटिया का लगाव मम्मी से ज्यादा पापा के प्रति ज्यादा है।

    यह भी एक नैसर्गिक विषय है कि बिटिया पापा के करीब रहती है और बेटा मम्मी के करीब रहता है। इस विषय के बारे में शायद जितनी बात की जाये उतनी कम है, क्योंकि इसके प्रति सबके अपनी अपनी विचारधाराएँ हैं, जो कि इस विषय को प्रभावित करती हैं।

    तो हमारे मित्र अकेले भारत के बाहर जा रहे थे, मजबूरी यह थी कि परिवार को साथ लेकर नहीं जा पा रहे थे, क्योंकि व्यापारिक यात्राओं के साथ यही मजबूरी है जहाँ पर १ दिन से लेकर ३० दिन की यात्राएँ होती हैं और बहुत जल्दी जल्दी होती हैं। जिससे परिवार को साथ लेकर जाना लगभग असंभव हो जाता है। बाहर जाने के पहले परिवार से मिलने अपने गृहनगर गये तो बिटिया ने पापा को पकड़ लिया और कहा पापा आज आप मुझे अपने से चिपका कर सुलाना और छोड़कर मत जाना। पापा की मजबूरी यह थी कि पापा केवल ६-७ घंटे के लिये घर पर परिवार से मिलने जा पाये थे। पापा ने सबसे पहले घर पर जाकर बता दिया था कि मैं केवल ६-७ घंटे के लिये ही आ पा रहा हूँ।

    बिटिया पापा को एकटक देखे जा रही थी, फ़िर पापा के पास बड़े प्यार से आई और बोली पापा प्लीज आज मत जाओ और आज यहीं रहो, पर पापा ने अपनी मजबूरी बताई फ़िर भी बिटिया जिद पर अड़ी रही, पापा प्लीज आज रूक जाओ। फ़िर थोड़ी देर बाद पापा की गोदी में आकर बिटिया बैठ गई और पापा को प्यार करने लगी कभी गालों पर चूमती कभी हाथों को चूमती कभी माथे को चूमती। इस आस में बिटिया पापा को प्यार करती रही कि शायद पापा रुक जायें और उसकी आस पूरी हो जाये।

    पर पापा भी मजबूरी के हाथों अपने बिटिया का यह छोटा सा अरमान पूरा नहीं कर पा रहे थे, पापा का भी हृदय द्रवित हो रहा था, हृदय को कठोर कर पापा अपने गंतव्य के लिये निकल पड़े। सबकुछ अपने परिवार के लिये करना पड़ता है जिसके लिये इन छोटी छोटी बातों को पापा पूरी नहीं कर पाते हैं।

    यह केवल हमारे मित्र का ही हाल नहीं है, ऐसे बहुत सारे पापा, बेटे और बेटियाँ हैं जो कि इस जुदाई को महसूस कर रहे हैं, पापा अपने बच्चों का प्यार उनका बचपना खो रहे हैं और बच्चे बचपन में अपने पापा का प्यार नहीं पा रहे हैं। कहीं ना कहीं पापा और बच्चों में कहीं कुछ अधूरापन आ रहा है, वहीं रिश्ते में भी गरमाहट कम हो रही है, बच्चे तो छोटे हैं, वो तो कुछ समझ ही नहीं पा रहे हैं परंतु पापा मजबूरी में अपने बच्चों से दूर अपने काम में व्यस्त हैं। परिवार के साथ रहना और नौकरी करना दोनों ही जरूरी हैं, पर अगर इनमें से एक चीज को चुनना हो तो बहुत मुश्किल होता है ।

कैरम से मिलती जीवन की सीख

अभी पिछले कुछ दिनों से अवकाश पर हूँ और पूर्णतया: अपने परिवार के साथ समय बिता रहा हूँ। आते समय कुछ किताबें भी लाया था, परंतु लगता है कि किताबें बिना पढ़े ही चली जायेंगी और हमारा पढ़ने का यह टार्गेट अधूरा ही रह जायेगा।

इसी बीच बेटे को कैरम खेलना बहुत पसंद आने लगा है, और हमने भी बचपन के बाद अब कैरम को हाथ लगाया है। थोड़े से ही दिनों में हमरे बेटेलाल तो कैरम में अपने से आगे निकल गये और अपन अभी भी हाथ जमाने में लगे हैं।

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कैरम के खेल को खेलते खेलते हमने पाया कि असल जिंदगी भी कैरम के खेल जैसी है, कुछ बातें इस बात पर निर्भर करती है कि आपका साथी कौन है, आपका प्रतिद्वंदी कौन है और आप किस मामले में उससे बेहतर हैं।

कैरम जुनून और प्रतिस्पर्धा का खेल है, जिसमें राजनीति और उससी उपजी लौलुपता भी खड़ी दिखती है। कैरम एकाग्रचित्त होकर खेलना पड़ता है, इससे जीवन की सीख मिलती है कि कोई भी कार्य एकाग्रचित्त होकर करना चाहिये, तभी सफ़लता मिलेगी।

रानी कब लेनी है, यह भी राजनीति का एक पाठ है और इस पाठ को अच्छे से सीखने के लिये कैरम में अच्छॆ अनुभव की जरूरत होती है, जैसे जिंदगी में बड़े निर्णय लेने के लिये सही समय का इंतजार करना चाहिये और जैसे ही समय आये वैसे ही सही निर्णय ले लेना चाहिये।

हमेशा अपने सारे मोहरों पर नजर रखो और नेटवर्किंग मजबूत रखो, अगर अपने सारी गोटियों को एकसाथ ले जाना है तो हरेक गोटी पर नजर रखो और मौका लगते ही पूरा बोर्ड एक साथ साफ़ कर दो।

ऐसी ही सतर्कता जिंदगी में भी रखना जरूरी है, इतनी ही राजनीति आपको आनी चाहिये और मोहरों पर एक साथ नजर रखना जरूरी है। हरेक जरूरी काम और जिंदगी के सारे काम बहुत ही एकाग्रचित्त तरीके से पूर्ण करना चाहिये।

बच्चों के शार्टब्रेक मॆं खाने के लिये क्या दिया जाये, स्कूल ने नोटिस निकाला

    बेटेलाल ने जब से स्कूल जाना शुरु किया है तब से उनके शार्ट ब्रेक और लंच के नाटक फ़िर से शुरु हो गये हैं। रोज जिद की जाती है कि मैगी, पास्ता, पिज्जा या बर्गर दो। हम बेटेलाल को रोज मना करते हैं, मगर कई बार तो जिद पर अड़ लेते हैं, सब बच्चे लाते हैं, और एक आप हैं कि मुझे इन चीजों के लिये मना करते हैं। हमने कितनी ही बार समझाया कि बेटा मैगी, पास्ता, पिज्जा ठंडे हो जाने पर बुल्कुल अच्छे नहीं लगते और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक भी होते हैं। इस तरह से लगभग रोज की कहानी हो चली थी। और इस बात से लगभग सभी अभिभावक परेशान रहते हैं।
    शार्ट ब्रेक में अलग अलग चीजें दिया करते हैं अलग तरह के बिस्किट तो कभी उनकी कोई मनपसंदीदा नमकीन या मिठाई और खाने में रोटी सब्जी या परांठा सब्जी। पर बेटेलाल हैं कि कहते हैं उन्हें रोटी सब्जी नहीं मैगी दिया करें, पास्ता दिया करें। पैरेंट्स टीचर मीटिंग के दौरान स्कूल में उनकी मैडम ने हमें पहले ही मना कर दिया था कि बच्चों को यह सब चीजें नहीं दिया करें। परंतु बच्चे हैं कि मानते ही नहीं, घर पर इतनी जिद करते हैं और आसमान सिर पर उठा लेते हैं।
    दो दिन पहले बेटेलाल की स्कूल की वेबसाईट पर नोटिस में शार्ट ब्रेक में मेनू आ गया, जिसमें हर दिन का मेन्यू निश्चित है। अब बेटेलाल को समझा रहे हैं कि बेटा अभी भी मान जाओ नहीं तो स्कूल वाले अब लंच का भी मेन्यू दे देंगे फ़िर क्या करोगे ?
    हमेशा लंच बॉक्स में सब्जी बची हुई आती है, अब देखते हैं कि इस सबका क्या असर होता है। अभिभावक कितना भी समझा लें परंतु बच्चों को समझ में नहीं आता, अगर शिक्षक स्कूल में बोले तो वह बच्चों के लिये पत्थर की लकीर होता है।
    पहले कक्षा में ही लंच करना होता था, अब थोड़ी बड़ी कक्षा में आ गये हैं तो उनकी क्लॉस टीचर बच्चों को स्कूल के छोटे बगीचे में लंच करने ले जाती हैं और लंच करने के बाद टिफ़िन वापिस अपनी क्लॉस में रखकर फ़िर से बच्चे बगीचे में खेलने आ जाते हैं। बेटेलाल के मुँह से यह सब बातें सुनने के बाद अपने स्कूल के दिन याद आ जाते हैं।

बच्चों के साथ कार्टून देखिये, कि आखिर कार्टून में परोसा क्या जा रहा है। (Must Watch Cartoon Channels with your Child…? Check what is there… ?)

    कल बेटेलाल के साथ बुद्धुबक्से को देख रहे थे और उनके कार्टून चैनल निक्स पर डोरीमोन आ रहा था, हालांकि हमने अपने बचपन में कभी कार्टून नहीं देखे, उस समय आते भी थे तो केवल विदेशी कार्टून स्पाईडरमैन या फ़िर रामायण देख लो।

    आजकल तो बुद्धुबक्से पर करीबन १०-१२ चैनल कार्टून के लिये ही हैं, जिस पर २४ घंटे कार्टून परोसे जाते हैं, जिसमें कुछ डिज्नी के हैं, कुछ जापानी और कुछ भारतीय। हालांकि इन चैनलों पर आजकल डिजनी के प्रसिद्ध कार्टून डोनाल्ड डक और मिकी माऊस कम ही देखने को मिलते हैं ।

    बच्चों के साथ कार्टून देखने का अपना अलग मजा है, वापिस से हम बचपन के युग में पहुँच जाते हैं, और बच्चों की सायकोलोजी भी समझने का मौका मिलता है, बहुत से वाक्य जो हमारे बेटेलाल बोलते हैं, पता चला कि कार्टून चैनल्स की देन है। कुछ कार्टूनों में तो वाकई हिन्दी में गजब अनुवाद किया गया है, परंतु कुछ कार्टूनों को तो बैन कर देना चाहिये। यहाँ तक कि कार्टून में आवाजें भी हिन्दी फ़िल्म अभिनेताओं से मिलती होती हैं, जो कि सुनने पर आसानी से पहचानी जा सकती हैं।

    वैसे आजकल भारतीय कार्टून भी बहुतायत में उपलब्ध हैं और अच्छे शिक्षाप्रद एपीसोड आते हैं, परंतु अच्छे विचार और अच्छे संस्कार केवल कार्टून से नहीं डाले जा सकते हैं, क्योंकि इस तरह के कार्टून केवल १०-१५% ही होते हैं, बाकी के तो बकवास ही होते हैं।

    जैसे हमारे बेटेलाल कल हमसे कह रहे थे “डैडी ये डोरीमोन कहाँ मिलता है, अपन भी एक डोरीमोन ले आते हैं, जो कि मुझे ढेर सारे गेजेड्ट्स लाकर देगा।”

    मूल केवल यह है कि बच्चे कार्टून जरूर देख रहे हैं, परंतु कार्टून में क्या परोसा जा रहा है उसे नजरअंदाज मत कीजिये और आप भी कार्टून देखिये और बच्चों को स्वच्छ और अच्छॆ कार्टून देखने को प्रेरित कीजिये।

मुंबई से उज्जैन यात्रा बाबा महाकाल के दर्शन और रक्षाबंधन पर सवा लाख लड्डुओं का भोग ४ (Travel from Mumbai to Ujjain 4, Mahakal Darshan)

    सुबह उठते ही नई उमंग थी क्योंकि आज रक्षाबंधन था, कोई बहन नहीं है परंतु खुशी इस बात की थी कि हमारे बेटेलाल की अब बहन घर में आ गई थी और उसने राखी भेजी थी, एक त्यौहार जो हमने कभी मन में तरंग नहीं जगा पाता था वह त्यौहार अब हमारे घर में सबको तरंगित करता है।

    पापा की बहनें हैं और उनकी ही राखियाँ हम भी बाँध लेते हैं, क्योंकि हमें भी भेजी जाती हैं। देखिये राखी के कुछ फ़ोटो और साथ में मिठाई –

Rakhi aur Mithai Harsh aur mere papaji

    फ़िर चल दिये महाकाल के दर्शन करने के लिये, महाकाल पहुँच कर पता चला कि बहुत लंबी लाईन है और ज्यादा समय लगेगा, हमारे पास समय कम था क्योंकि शाम को वापिस मुंबई की ट्रेन भी पकड़नी थी। हमने पहली बार विशेष दर्शन के लिये सोचा जो कि १५१ रुपये का था, और वाकई मात्र ५ मिनिट में बाबा महाकाल के सामने थे, १५१ रुपये के विशेष दर्शन के टिकट से हम तीनों ने दर्शन किये और धन्य हुए। अटाटूट भीड़ थी महाकाल में।

Mahakal bahar se darshan

    महाकाल में रक्षाबंधन पर्व पर सवा लाख लड्डुओं का भोग लगाया जाता है और हरेक दर्शनार्थी को एक लड्डू का प्रसाद दिया जाता है। यह परंपरा हम सालों से देखते आ रहे हैं, जब भी रक्षाबंधन पर उज्जैन होते हैं तो दर्शन करने जरुर जाते हैं और साथ ही लड्डुओं का प्रसाद लेने भी। ये वीडियो फ़ोटो देखिये सवा लाख लड्डुओं के भोग का –

Mahakal sava lakh ladduo ka bhog Mahakal sawa lakh ladduo ka bhog

जय महाकाल

ऊँ नम: शिवाय !

मुंबई से उज्जैन यात्रा बाबा महाकाल की चौथी सवारी और श्रावण मास की आखिरी सवारी 3 (Travel from Mumbai to Ujjain 3, Mahakal Savari)

    जब हमने उज्जैन जाने का कार्यक्रम बनाया था तभी यह सोच लिया गया था कि बाबा महाकालेश्वर की चौथी सवारी और जो कि श्रावण मास की आखिरी सवारी भी होगी, के दर्शन अवश्य किये जायेंगे।
    सायं ४ बजे महाकाल की सवारी महाकाल मंदिर से निकलती है जो कि गुदरी चौराहा, पानदरीबा होते हुए रामघाट पहुँचती है, फ़िर रामानुज पीठ, कार्तिक चौक, गोपाल मंदिर, पटनी बाजार होते हुए वापिस महाकाल मंदिर शाम ७ बजे पहुँचती है।
    बाबा महाकाल अपनी प्रजा के हाल जानने के लिये नगर में निकलते हैं, और प्रजा तो उनकी भक्ति में ओतप्रोत पलकें बिछाये इंतजार करती रहती है। पूरा उज्जैन शहर बाबा महाकाल में रमा रहता है। आसपास से गाँववाले पूरी श्रद्धा के साथ उज्जैन शहर में डेरा डाले रहते हैं। उज्जैन में महाकाल की भक्ति की बयार बहती है, हवा से भी केवल महाकाल का ही उच्चारण सुनाई देता है।
    इस बार मैंने अपने मोबाईल से कुछ फ़ोटो और वीडियो लिये हैं, आप भी बाबा महाकाल की सवारी के दर्शन कीजिये और जय महाकाल बोलिये ।
फ़ोटो –
Mahakal Savari Gopal Mandir
गोपाल मंदिर पर श्रद्धालुओं का जत्था
at Mahakal Savari Ujjain Vivek Rastogi and Harsh Rastogiगोपाल मंदिर पर हम अपने बेटेलाल के साथ
वीडियो –

 

 

गोपाल मंदिर का एक दृश्य

 

 

 

 

इन वीडियो मॆं पूरी महाकाल की सवारी का आनंद लिया जा सकता है।
जय बाबा महाकाल
ऊँ नम: शिवाय !

मुंबई से उज्जैन यात्रा सीट पर पहुँचते ही १५ वर्ष पुरानी यादें ताजा हुईं 2 (Travel from Mumbai to Ujjain 2)

पिछला विवरण निम्न पोस्ट की लिंक पर चटका लगाकर पढ़ सकते हैं।

मुंबई से उज्जैन रक्षाबंधन पर यात्रा का माहौल और मुंबई की बारिश १ (Travel from Mumbai to Ujjain 1)

    बोरिवली से हमारी ट्रेन का सही समय वैसे तो ७.४२ का है परंतु हमने कभी भी इसे समय पर आते नहीं देखा है, जयपुर वाली ट्रेन का समय ठीक १५ मिनिट पहले का है, वह अवन्तिका के समय पर आती है, और फ़िर एक लोकल विरार की और फ़िर लगभग ८.०० बजे अवन्तिका आती है।

    इतनी भीड़ रहती है कि प्लेटफ़ार्म पर समझ ही नहीं आता कि कैसे थोड़ा समय बिताया जाये। अपने समान पर ध्यान रखने में और अगर बच्चा साथ में हो तो उसके साथ तो वक्त कैसे बीतता है समझ सकते हैं।

पुरानी एक पोस्ट की भी याद आ गई – “ऐ टकल्या”, विरार भाईंदर की लोकल की खासियत और २५,००० वोल्ट

    हमारे मित्र साथ में जा रहे थे, तो उन्होंने बेटेलाल को आम के रस वाली एक बोतल दिला दी, और एक कोल्डड्रिंक ले आये, बस पहले हमारे बेटेलाल ने सबके साथ पहले कोल्डड्रिंक साफ़ किया वह भी भरपूर ड्रामेबाजी के साथ, और फ़िर अपनी आम के रस वाली बोतल, बेटेलाल ने आसपास के इंतजार कर रहे यात्रियों का जमकर मनोरंजन किया।

    जयपुर वाली ट्रेन आ गई, और राखी की छुट्टी के कारण यात्रियों की भीड़ का रेला ट्रेन पर टूट पड़ा, २-३ मिनिट बाद चली ही थी कि एकदम किसी ने चैन खींच दी, तो जैसी आवाज आ रही थी उससे हमें साफ़ पता चल रहा था कि वातानुकुलित डिब्बे में से चैन खींची गई है। दो सिपाही दौड़कर देखने गये, तभी हम देखते हैं कि एक दंपत्ति अपने दो बच्चों के साथ दौड़ा हुआ आ रहा है और कुली उनका सूटकेस लेकर दौड़ा हुआ आ रहा है, इतनी देर में वे सामने ही वातानुकुलित डिब्बे में चढ़ गये, तभी ट्रेन चल पड़ी, हमें संतोष हुआ कि चलो कम से कम ट्रेन नहीं छूटी।

    फ़िर एक विरार लोकल आयी, धीमी बारिश जारी थी पर विरार वाले हैं कि मानते ही नहीं, मोटर कैबिन के बंद दरवाजे पर भी दो लोग लटके हुए जाते हैं, दो डब्बे के बीच में ऊपर चढ़ने के लिये एंगल होते हैं, उस पर भी चढ़ कर जायेंगे, और एक दो लोग तो छत पर भी चढ़ जायेंगे अपनी श्यानपत्ती दिखाने के चक्कर में, जबकि सबको पता है कि छत पर यात्रा करना मतलब सीधे २५ हजार वोल्ट के तार की चपेट में आना है।

बेटेलाल

बेटेलाल का ट्रेन में खींचा गया फ़ोटो

    अब हमारा इंतजार खत्म हुआ, अवन्तिका एक्सप्रेस हमारे सामने आ पहुँची, ऐसा लगा कि हमारे डब्बे में सब बोरिवली से ही चढ़ रहे हैं, कुछ लोग मुंबई सेंट्रल से भी आये थे पर बोरिवली से कुछ ज्यादा ही लोग थे। जैसे तैसे चढ़ लिये और अपने कूपे में पहुँचकर समान जमाने लगे।

    हमारी चार सीट थीं, और दो लोग पहले से ही मौजूद थे, एक भाईसाहब और एक लड़की, भाईसाहब हमसे ऊपर वाली सीट लेकर सोने निकल लिये, हम लोग बैठकर बात कर रहे थे, तो हमने ऐसे ही एक नजर लड़की की तरफ़ देखा तो लगा कि इसे कहीं देखा है, पर फ़िर लगा कि शायद नजरों का धोखा हो, पर वह लड़की भी हमें पहचानने की कोशिश कर रही थी, ऐसा हमें लगा।

    फ़िर अपनी भूली बिसरी स्मृतियों के अध्याय को टटोलने लगे और साथ में बात भी कर रहे थे, फ़िर थोड़ी देर बाद याद आ गया कि अरे ये तो १५ वर्ष पुरानी बात है, पर ऐसा लग रहा था कि कल की ही बात हो, वह शायद हमारे परिवार को देखकर बात करने में संकोच कर रही थी, हमने अपनी पत्नी और मित्र को बताया कि यह लड़की १५ वर्ष पहले हमारे साथ पढ़ती थी, पर हमें नाम याद नहीं आ रहा है, और इसकी बड़ी बहन बड़ौदा में रहती है, जो कि मिलने भी आयेगी। ये दोनों हमें बोले कि जाओ फ़िर बात करो हमने सोचा छोड़ो कहाँ अपने परिवार और मित्र के सामने पुरानी बातों को उजागर किया जाये, वो भी सोचेगी कि पता नहीं क्या क्या बात होगी, तो इसलिये हमने बात ही नहीं की।

    १५ वर्ष पुराने पहचान वाले आसपास बिल्कुल अंजान बनकर बैठे रहे, बड़ौदा आया और उनकी बहन मिलने भी आयीं, शायद वे भी उज्जैन आ रही थीं परंतु पूना वाली ट्रेन से, जो कि इसके १५ मिनिट पीछे चलती है। बिना बात किये हम उज्जैन में उतर गये। परंतु एकदम १५ वर्ष पुराने दिन ऐसे हमारी नजरों के सामने घूम गये थे जैसे कि कल की ही बात हो।