- एस.एम.मासूम said…
- अध्यापक भी बहुत बार घर के झगड़ों या कभी कभी अपनी किसी ना कामयाबी का गुस्सा छात्रों पे निकलते हैं. इसके लिए अभिभावकों को जागरूक होना पड़ेगा. अच्छा विषय चुना है.
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बिल्कुल सही है, केवल अध्यापक ही क्या ये तो हर कहीं की कहानी है, अगर किसी का मूड खराब हो तो समझ जायें कि आज घर पर झगड़ा करके आये हैं। अभिभावकों को जागरुक होना ही पड़ेगा, ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाये।
- Suresh Chiplunkar said…
- “क्या बेईज्जती करवाने जाऊँ“? क्या अध्यापक के मारने या डांटने से बेइज्जती हो जाती है? हमने तो बहुत मार खाई स्कूल में, कभी ऐसा नहीं लगा… 🙂 फ़िर नई पीढ़ी “अध्यापक की मार” के प्रति इतनी संवेदनशील क्यों है? ========= मैं अध्यापक द्वारा “हल्की मार” के पक्ष में हूं…। हल्की मार का स्तर = बच्चे को कोई स्थाई शारीरिक नुकसान न हो।
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प्रवीण पाण्डेय said…
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अन्तर सोहिल said…
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सजा देना गलत नहीं है, सजा देने का तरीका गलत होता है, जो बात बच्चों को प्यार से समझायी जा सकती है, जरुरी नहीं किस उसे पारंपरिक तरीके से ही समझाई जाये।
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बच्चे के शब्दों को मैंने बहुत गंभीरता से लिया और पूरी पड़ताल कर ली है, अब इतनी चिंता की कोई बात नहीं है।
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सोमेश सक्सेना said…
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सजा अनिवार्य है, अगर सजा नहीं होगी तो बलपूर्वक हम किसी गलत बात को उनसे रोकने के लिये कह भी नहीं सकते हैं, बस सजा के पारंपरिक तरीकों से आपत्ति है।
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Rahul Khare said…
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नमस्कार विवेक जी, ये मेरा प्रथम प्रयास है, अगर कोइ गल्ती हो तो माफ़ करे । आप ने जो विषय चयनित किया है वह काफ़ी महत्वपूर्ण है,और मेरा मानना है कि हम सब को मिल जुल कर इस के खिलाफ़ एक आंदोलन की शुरुआत करनी चाहिये। बच्चे बहुत कोमल दिल वाले होते है और शारीरिक रुप से कोइ भी सज़ा उनके मन मे काफ़ी गहराई से जाती है, जो उनका ना केवल शैक्षिक बल्कि मानसिक विकास भी बाधित करती है। अगर कोइ गलती हुई भी है तो भी किसी भी शिक्षक द्वारा बच्चे को शारीरिक रुप से कोइ भी सज़ा देने की कोइ शैली होनी ही नही चहिये। यहा विदेश मे शिक्षक द्वारा बच्चे को शारीरिक दंड देना अपराध है और मेरा मानना है कि अगर हम सब मिल कर प्रयास करे तो ये हमारे अपने देश मै भी मुमकिन है। यहा शिक्षक बच्चे को शारीरिक दंड की जगह उसे अलग अलग तरीको से किसी काम को सही तरह से करना सिखाते है और सुनिश्चित करते है कि वो गल्ती फिर से न हो।
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धन्यवाद राहुल, अखिरकार आपने हिन्दी में लिखना शुरु किया और पहली टिप्पणी दी, आंदोलन की शुरुआत की जरुरत तो है पर किस दिशा में यह भी तय किया जाना चाहिये।
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anshumala said…
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विवेक जी बिल्कूल सही कहा आज के बच्चे पहले से कही ज्यादा संवेदनशील है और बातो को कही ज्यादा समझते है और दिल से लेते है | हम उसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते है मेरी बच्ची अभी मात्र साढ़े तीन साल की एक बार मैंने उसको उसके दोस्तों के सामने डाट दिया वो बच्ची जिस पर मेरी डांट का या तो असर नहीं होता था या यु ही जोर से रोने का नाटक करती थी वो उस समय चुपचाप आँखों में आँसू लेकर खड़ी रही और बार बार तिरक्षी नजरो से अपने दोस्तों को देखती रही | ये देख कर मुझे बहुत ही ख़राब लगा की मैंने गलत काम कर दिया उसे ये बात इनसल्टिंग लग रही है | उसके बाद हमेसा मै इन बातो का ख्याल रखती हु | उसके पहले मै सोच भी नहीं सकती थी की इतनी छोटी बच्ची बेईज्जती जैसी बातो को जानती भी होगी | आप के बच्चे के लिए बोलू तो कभी कभी बच्चे अपने माँ बाप को वो बाते नहीं बताते है जितना की अपने दोस्त से या कई बार तो उसके मम्मी पापा या पड़ोस की कोई दीदी या अपनी दीदी , भईया बुआ आंटी को बताते है | इसलिए पता कीजिये की वो ज्यादा समय किसके साथ गुजरता है या बाते करता है उसी के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से उससे बात जानने का प्रयास कीजिये | कई बार बाते काफी गंभीर होती है समय रहते परिवार को पता चल जाये तो हम स्थिति को संभाल सकते है | और आगे की उसकी बातो को जानने के लिए आप उसी व्यक्ति से टच में रह सकते है | पर ध्यान रखियेगा की बच्चे को कभी ना पता चले की उसकी बाते आप तक पहुच रही है |
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यह सब हमारे बुद्धु बक्से का कमाल है और आधुनिक जीवन यापन के तौर तरीको का भी, आप खुद सोचिये कि हमारे जमाने में क्या हमें बेईज्जती का मतलब पता था और अगर पता था तो बेईज्जती का क्या मतलब हमें पता था, शायद यह मतलब तो नहीं था जो आज के दौर में बच्चे समझते हैं।
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shikha varshney said…
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विवेक जी बहुत अच्छा विषय उठाया है. आजकल बच्चे संवेदनशील हो गए हैं…पर क्यों? क्या कभी किसी ने यह सोचा ? समय बदल गया है ,परिवार बदल गए हैं,रहने का तरीका बदल गया है तो जाहिर है कि बच्चों की परवरिश का तरीका भी बदला है.अब बच्चे घर में भी इतनी दांट या मार नहीं खाया करते जितनी पहले खाया करते थे तो जरुरी है कि परंपरागत शिक्षा का तरीका भी बदलना चाहिए. आप जाकर स्कूल में टीचर्स और स्टाफ से बात कीजिये अगर स्कूल अच्छा है तो मुझे उम्मीद है कि जरुर फायेदा होगा.
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Learn By Watch said…
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मैं बच्चों को पीटे जाने के सख्त खिलाफ हूँ, क्यूंकि बचपन मे स्कूल मे तथा घर मे पड़ने वाली मार की वजह से मेरा आत्मविश्वास बहुत कम हो गया था, जिसकी वजह से मुझे आज भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है. मैं तो शिक्षा के क्षेत्र मे आया ही इसलिए हूँ जिससे बच्चों के साथ होने वाले इस तरह के व्यवहार को बदल सकूं. आप तुरंत प्रिंसिपल से जाकर बात कीजिये तथा यदि कोई संतोष जनक उत्तर नहीं मिलता है तो किसी दुसरे स्कूल मे दाखिला दिलवाइये, यह मुद्दा parent meeting मे भी उठाइये. मुझे ताज्जुब है कि यहाँ पर कुछ लोगो ने लिखा है कि उन्होंने खुद ही अध्यापक से कह रखा है कि बच्चे को गलती करने पर मारिये, ऐसे लोगो को अपने दिमाग का इलाज करवाने की जरूरत है. आप हिंसा करेंगे तो बच्चे या तो विरोधी हो जायेंगे या फिर गुमशुम रहने लगेंगे दोनों ही स्थितियां गंभीर है, याद रखिये आगे का समाज इन बच्चों को ही चलाना है | सजा देने के तरीके मे गृहकार्य को पुनः करके लाना या फिर बिषय से सम्बंधित प्रोजेक्ट थमा देना जैसी विधियाँ शामिल होनी चाहिए, ना कि मुर्गा बनाना या बेंत से पीटना. मुझे पता है कुछ अभिभावक बोलेंगे कि बच्चा अगर विरोधी हो जायेगा तो हम और मारेंगे, ऐसी स्थिती मे बच्चा अपने मन मे ठान लेता है “जितना मरना चाहो मार लो, इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हो” | मे इस बिषय मे बहुत ही जल्द एक पोस्ट लिखूंगा, शायद उसमे अपने विचार पूरी तरह से लिख पाऊँ
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बिल्कुल सत्य वचन बच्चा मार खाकर ढ़ीठ हो जायेगा और फ़िर उस पर मार का भी कोई प्रभाव नहीं होगा, इसलिये स्थिती को शांति से ही निपटना होगा। और पारंपरिक शिक्षा पद्धति के साथ साथ पारंपरिक सजा के तौर तरीकों को भी बदलना होगा।
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hindizen.com said…
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आजकल स्कूलों में बच्चे को ईडियट या दफर कहने पर भी अभिभावक टीचरों के सर पर चढ़ जाते हैं. पच्चीस साल पहले हमारे शिक्षक हमें सिर्फ मारते नहीं थे, वे जो करते थे उसे हम ‘ठुकाई‘ या ‘सुताई‘ कहते थे. बड़ा कठिन समय था वह. आपने पोस्ट के शीर्षक में molestation शब्द क्यों लिखा है? इसका अध्यापकों की मार से क्या लेना? अब यह शब्द केवल कामोत्पीड़न के लिए ही प्रयुक्त होता है.
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वाणी गीत said…
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जब हमलोग विद्यार्थी थे , शिक्षकों द्वारा बुरी तरह मारपीट आम बात थी ..मगर कभी नहीं सुना कि किसी विद्यार्थी ने आत्महत्या कर ली …वे लोंग गुरुजन को माता–पिता की तरह ही सम्मान देते थे और उनकी मार पीत को भी सामान्य रूप में स्वीकार कर लेते थे … इससे आगे शिखा से सहमत हूँ कि आजकल हमलोग बच्चों को घर में भी नहीं डांटते हैं , इसलिए उन्हें ये सब सहने की आदत नहीं है …समय के साथ पालन पोषण के तरीके बदले हैं तो शिक्षा देने में भी परिवर्तन अपेक्षित है ..!
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बिल्कुल हमने भी बहुत सुताई खायी है, और हमें कभी भी बेईज्जती जैसी कोई बात नहीं लगी, और न ही उस दौर में आत्महत्या जैसी कोई बात सुनाई दी, जिसका कारण सुताई रहा हो। परंतु आजकल के कोमल मनों का क्या कहना, शिक्षा में परिवर्तन कैसे किये जायें उसके बारे में अपने विचार दें, या अगर कहीं किये गये हैं तो उसका उदाहरण दें, जिससे चर्चा को आगे बड़ाया जा सके।
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रचना said…
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रचना जी, टिप्पणी के लिये आपका बहुत धन्यवाद अगर आपकी टिप्पणी हिन्दी में होती तो मुझे और ज्यादा अच्छा लगता कि चर्चा जिस भाषा में हो रही है उसी भाषा में विषय पर चर्चा आगे बड़े, फ़िर भी विचारों के प्रगटीकरण के लिये मैं भाषाई बंधनों को नहीं मानता परंतु अगर सभी लोग जिस भाषा में बातें कर रहे हैं, उसी भाषा में बात हो तो सामंजस्य बनता है।
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बच्चे से मैंने बात कर ली है और अब सब ठीक है।