1. Income Details – इस शीट में फ़ॉर्म १६ के अनुसार आय की जानकारियाँ, नाम और पता भरिये। Valideate करिये और Next बटन पर क्लिक कीजिये।2. TDS – इस शीट में नियोक्ता द्वारा काटे गये टैक्स की जानकारी, सैलेरी के अलावा अगर कहीं TDS कटा है और अग्रिम कर की जानकारी Transaction wise दें।3. Taxes paid and verification – इस शीट पर अपने बैंक का खाता नंबर और माइकर कोड टंकित करें साथ ही यहाँ पर आपका टैक्स के बारे में पता चलता है कि टैक्स सही है या और जमा करना है या रिफ़ंड है। अगर यह नहीं आ रहा है तो पहली शीट Income Details पर जाकर Calculate Tax बटन पर क्ल्कि करें।
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क्या सरकार को हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ?
यह एक बहुत बड़ा सवाल है, क्या सरकार को हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ? जब सरकार आम आदमी की रक्षा नहीं कर सकती, आम आदमी को मूलभूत सुविधाएँ नहीं प्रदान कर सकती तो सरकार हमसे कर कैसे ले सकती है ?
जब हमें सड़क अच्छी नहीं मिल सकती, बस अच्छी नहीं मिल सकती और तो और सरकार चलाने वाले जनता के मुलाजिम हैं क्योंकि उनको तन्ख्वाह जनता के जमा किये गये कर से मिलती है, वे मुलाजिम ही जनता से आँखें लड़ाते हुए अपना रूतबा दिखाते हैं और जिस काम की तन्ख्वाह लेते हैं, उसका शुल्क भी जनता से भ्रष्टाचार के रूप में बटोरते हैं और बेचारी निरीह जनता इनके दमन चक्र में पिसी जा रही है, अगर कोई आवाज उठाता है तो सचान को जैसे मारा वैसे मारकर मुँह बंद करवा दिया जाता है या फ़िर बाबा रामदेव के ऊपर जैसा दमनकारी चक्र सरकार ने चलाया, चला दिया जाता है।
सरकार अपनी ताकत केवल जनता पर दिखा सकती है, सरकार आतंकवाद, माओवाद और नक्सलियों से निपटने में असक्षम है और वहाँ केवल अपनी राजनीति की रोटियाँ सेकने में लगी है, क्या अगर सरकार सेना की टुकड़ी को नक्सली इलाके में भेज दे तो ये नक्सलवाद एक दिन में खत्म नहीं हो सकता ? या माओवाद खत्म नहीं हो सकता ? हमारे खूफ़िया विभाग समय पर सभी सुरक्षा विभागों को जानकारियाँ दे देते हैं, परंतु उन जानकारियों को फ़ाईलों में दबा दिया जाता है और ढुलमुल रवैया अपनाया जाता है। सुरक्षा विभाग आपस में ही एक दूसरे से बराबर संपर्क में नहीं रहते और समय पर इस प्रकार की जानकारियों का उपयोग नहीं कर पाते, ये लोग असक्षम नहीं है, बल्कि इसके पीछे राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी है।
इतने सब के बाद भी सरकार को क्या हमसे किसी भी प्रकार का कर लेने का हक है ? सरकार हमसे हरेक चीज में तो कर ले रही है, फ़िर वह खाना, पहनना हो या ऐश करना, उस कर से भी पेट नहीं भरता तो तरह तरह के घोटाले भी सामने आते हैं ? और जनता के साथ धोखा किया जाता है ?
हम किसी भी प्रकार का कर देने में कोई आपत्ति नहीं है, परंतु हमारे कर के रुपयों से क्या किया जा रहा है, वह तो हमें बताया जाये।
मानते हैं कि सेना का शासन अच्छा नहीं होता, परंतु अब स्थिती इतनी खराब हो चुकी है कि अगर सेना का शासन लगा दिया जाये तो भी हमें अपने भारत को सुधारने में बहुत समय लगेगा, या फ़िर जनता को ही कानून अपने हाथ में लेकर अपने हिसाब से कानून का पालन करवाना पड़ेगा ?
क्या आप २० रुपये में एक दिन का खाना खा सकते हैं ?
क्या आप २० रुपये में एक दिन का खाना खा सकते हैं ?
यह प्रश्न बहुत ही व्यवहारिक है, क्योंकि सरकार ने गरीबी रेखा के लिये जो सीमा निर्धारित की है वह है २० रूपये प्रतिदिन, अगर कोई २० रूपये प्रतिदिन से ज्यादा कमाता है तो वह गरीबी रेखा में नहीं आता है।
भारतीय प्रबंधन संस्थान, बैंगलोर के ७५ छात्रों ने समूहों में बँटकर गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों का जमीनी संघर्ष जाना। भारतीय प्रबंधन संस्थान के छात्रों के लिये २० रूपये कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है, जब वे चले तो उन्होंने अपने पास केवल २० रूपये ही रखे और खाने की कोई भी सामग्री नहीं रखी।
जब उन्होंने २० रूपयों में पूरा दिन गुजारा तो उन्हें पैसे की कीमत पता चली और उन्होंने देखा कि गरीबी रेखा के नीचे वाले कैसे जीवन यापन करते होंगे। २० रूपये से ज्यादा की तो एक दिन में नाश्ता या सिगरेट पीने वाले प्रबंधन संस्थान के छात्र सकते में थे, और इन लोगों के लिये मूलभूत सुविधाओं को कैसे जुटाया जाये ये सोचने पर मजबूर थे। मूलभुत सुविधाओं का न होने के लिये सरकार को ही दोषी नहीं माना जा सकत है।
इस महँगाई के जमाने में उन्हें अगर सब्जी खाना हो तो पत्तेदार सब्जी थोड़ी बहुत आ सकती है, या फ़िर शाम को बची हुई गली सी सब्जी में से उन्हें सब्जी खरीदनी पड़ती है। चावल भी अगर १० रूपये किलो मिले तब जाकर उनके लिये खाना २० रूपये में एक दिन का पड़ेगा। परंतु चावल अगर देखें तो कम से कम २०-२२ रूपये है, वह भी लोकल सोना मसूरी मोटा चावल। अगर गेहूँ ही देखें तो कम से कम १६ रूपये किलो है और पिसवाने का ४ रुपये तो २० रूपये किलो तो आटा भी पड़ता है।
अपने को तो सोचकर ही पसीने आते हैं, कि कैसे २० रूपये में दिन भर में खाना खाया जा सकता है जबकि १० रूपये की चाय या कॉफ़ी ही बाजार में मिलती है। नाश्ते में भी २० रूपये कम पड़ते हैं।
वाकई २० रूपये में एक दिन निकालना बहुत मुश्किल है, और गरीबी रेखा के नीचे वालों को तो तब तक दिन निकालने हैं, जब तक कि वे इस गरीबी रेखा को पार नहीं कर लेते।
भारतीय प्रबंधन संस्थान के छात्रों ने गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का जीवन स्तर सुधारने और मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के लिये संकल्प लिया।
दो वयस्क फ़िल्में “देहली बेहली” और “मर्डर २”, हमारी अपनी समीक्षा (Two Adult Movies “Delhi Belly” and “Murder 2” My Review)
पिछले दो दिनों में दो वयस्क फ़िल्में देख लीं, जो कि बहुत दिनों से देखने की सोच रहे थे और ऐसे महीनों निकल जाते हैं फ़िल्में देखे हुए। पहली “देहली बेहली” और दूसरी “मर्डर २”। दोनों ही फ़िल्में अलग अलग कारणों से वयस्क दी गई होंगी। जहाँ “देहली बेहली” एक व्यस्क हास्य फ़िल्म है वहीं “मर्डर २” में गरम दृश्य, थोड़ी बहुत गालियाँ और हिंसक दृश्य हैं ।
अगर गरम दृश्यों की बात की जाये तो “देहली बेहली” में कुछ दृश्य ऐसे हैं जो कि लोगों को आपत्तिजनक लग सकते हैं मगर आजकल की पीढी इसे आपत्तिजनक नहीं मानती और इसे हास्यदृश्य ही मानेगी, तो यहाँ पीढ़ियों के अंतर की बात आ जाती है, और वहीं “मर्डर २” में गरम दृश्यों की जरूरत न होने पर भी ठूँसा गया है जो कि बोझिल से लगते हैं, परंतु उत्तेजना पैदा करने में कामयाब हुए हैं।
अगर गालियों की बात की जाये तो “मर्डर २” में शायद ३-४ गालियों से ज्यादा नहीं हैं, और वे भी बिल्कुल सही तरीके से उपयोग की गई हैं, कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि गालियों को जबरदस्ती ठूँसा गया है या कम गालियों में काम चला लिया गया है। अब जब वयस्क फ़िल्म का सर्टिफ़िकेट लिया ही था तो कुछ गालियों का उपयोग तो कर ही सकते थे, और वह उन्होंने किया।
देहली बेहली के लिये मैंने फ़ेसबुक पर नोट लिखा था वही यहाँ चिपका रहा हूँ।
कल “डैली बैली” ए सर्टीफ़िकेट फ़िल्म देखी, तो लगा कि कई जगह जान बूझकर गाली कम दी गई है, जहाँ ज्यादा गालियाँ होनी चाहिये वहाँ केवल एक ही गाली से काम चला लिया गया है, अगर सही तरीके से गालियों का विज्ञान समझ लिया जाता तो यह संभव था, इसके लिये विशेष रूप से स्कूल और कॉलेज में जाकर समझा जा सकता है। या फ़िर वे लड़के जो होस्टल में रहते हैं, या अपने घर से अलग रहते हैं, उनका रहन सहन और गालियों का उपयोग बकायदा व्याकरण के तौर पर किया जाता है। वैसे आजकल हमारा गालियाँ देना काफ़ी कम हो गया है, परंतु हाँ अपने पुराने मित्रों के साथ आज भी बातें करते हैं तो बिना गालियों के बातें करना अच्छा नहीं लगता है, उसमें आत्मीयता लगती है। हालांकि किसी तीसरे सुनने वाले को यह गलत लग सकती है परंतु अगर व्याकरण का उपयोग नहीं किया जाये तो बात का मजा ही नहीं आता।
अब एक बात और है, जो सभ्य (मतलब कहने के लिये नहीं वाकई सभ्य, जिन लोगों ने अपने जीवन में कभी गालियाँ नहीं दीं) हैं, तो यह फ़िल्म वाकई उन लोगों के लिये नहीं है। यह हम जैसे सभ्यों (हम ऐसे सभ्य हैं, कि समय पड़ने पर इतनी गालियाँ दे सकते हैं और ऐसी ऐसी गालियाँ दे सकते हैं, कि अच्छे अच्छों के पसीने छूट जायें, पर देते नहीं हैं) के लिये है। खासकर युवावर्ग इसे बहुत पसंद करेगा।
हिंसक दृश्यों की बात की जाये तो “मर्डर २” में हिंसक दृश्य अपना पूर्ण प्रभाव नहीं छोड़ पाये, वयस्क सर्टिफ़िकेट था तो हिंसक दृश्य को और बेहतर बनाया जा सकता था, हालांकि प्रशांत नारायन ने अपनी और से कोई कसर नहीं छोड़ी है, हिजड़ा बनने का दृश्य बहुत प्रभावी हैं और जो दृश्य पूर्व में आशुतोष राणा ने निभाये हैं, उनकी टक्कर के हैं। वैसे भी महेश भट्ट की फ़िल्म में अगर हिजड़ा ना हो तो उनकी फ़िल्म पूरी नहीं होती।
“देहली बेहली” में हिंसक दृश्य प्रभावी बन पड़े हैं, जैसे कि अमूमन दृश्य में संवाद बनाये हैं, उससे वे दृश्य प्रभावी बन पड़े हैं, परंतु कुछ दृश्य हास्य पैदा करते हैं।
कुल मिलाकर “देहली बेहली” बहुत अच्छी फ़िल्म लगी और “मर्डर २” ठीक ठाक, मतलब बहुत अच्छी नहीं। अच्छी बात यह है कि दोनों ही फ़िल्मों की पटकथा अच्छी कसी हुई है और अपने से दूर नहीं होने देती है।
अब जल्दी ही “चिल्लर पार्टी” देखने की इच्छा है।
स्पीड पोस्ट के भाव देखकर होश उड़ गये ?
अभी बहुत दिनों बाद कूरियर और स्पीडपोस्ट करने की जरूरत पड़ी, तो बदले हुए भाव देखकर होश उड़ गये, भाव इतने बड़े हुए हैं कि अच्छे अच्छों के होश उड़ जायें।
कूरियर सेवा शुरू हुए भारत में लगभग २ दशक हो चले हैं, परंतु कूरियर ने पिछले एक दशक से जो जोर पकड़ा है वह ऐतिहासिक है और कूरियर सेवाओं ने डाक विभाग को हाशिये पर ला खड़ा किया है। आज भारत में कुकुरमुत्तों की तरह जाने कितनी ही कूरियर सेवाएँ हैं, कूरियर सेवाएँ निजी हैं तो यह विश्वास करना लाजिमी है कि सेवाएँ अच्छी होंगी, परंतु यह सत्य नहीं है। कूरियर सेवा किसी हद तक जनता का विश्वास जीतने में कायम तो रहीं, परंतु जो लोग डाक विभाग की सेवाओं का उपयोग करते रहे उनको डिगा नहीं पायी।
कूरियर सेवा की अपनी एक पहुँच होती है, वह ज्यादा से ज्यादा जिला स्तर तक या तहसील स्तर तक ही अपनी सेवाएँ प्रदान करते हैं, और भारतीय डाक विभाग की सेवाएँ पूरे विश्व में सबसे बड़ी हैं, भारतीय डाक विभाग की सेवाएँ छोटे से छोटे गाँव तक में मौजूद हैं।
एक जगह स्पीड पोस्ट करना था तो मजबूरी में हमें पोस्ट ऑफ़िस जाना पड़ा तो पता चला कि शनिवार को १२.३० बजे ही पोस्ट ऑफ़िस बंद् हो जाता है, फ़िर सोमवार को घरवाली को भेजना पड़ा, तो पता चला कि लाईन लगी हुई थी, और लगभग सभी लोग टेलीफ़ोन का बिल जमा करने के लिये लाईन में लगे हुए थे, अब बताईये डाक जो कि डाकविभाग का मुख्य कार्य है उसे हाशिये पर डाक विभाग ने धकेल दिया है और टेलीफ़ोन बिल जमा कर रहा है। हाँ यह है कि टेलीफ़ोन विभाग से डाक विभाग को कमीशन मिलता है, तो क्या डाक विभाग अपने मुख्य कार्य को प्राथमिकता से करना छोड़ देगा। अब पोस्ट ऑफ़िस के लाल डिब्बे भी हर चौराहों पर नहीं दिखते हैं।
परंतु एक बात अच्छी लगी जो शायद सबको अच्छी लगे कि उतने ही वजन के कूरियर के और उतनी ही दूरी पर भेजने के कूरियर सेवा ने ५० रुपये लिये और जबकि स्पीडपोस्ट सेवा ने २५ रुपये लिये। दोनों ही सेवाओं में लगभग ४८ घंटों से ज्यादा का समय लगता है, परंतु अगर आप अपने कूरियर या स्पीडपोस्ट को ट्रेक करना चाहते हैं, तो यहाँ पर भी स्पीडपोस्ट की बेहतर ट्रेकिंग विश्वस्तर की है और कूरियर सेवाओं को इसमें भी मात करती है। यहाँ तक कि कई विश्वस्तर कूरियर कंपनियाँ भी इस तरह की जबरदस्त ट्रेकिंग का इस्तेमाल नहीं करती हैं।
उसके बाद हमने सोचा कि आखिर क्यों डाक विभाग की सेवाओं से लोग भागने लगे हैं, तो पाया कि कूरियर सर्विसेस लगभग हर गली चौराहों के नुक्कड़ पर किसी न किसी दुकान में मिल जाती है, और लगभग पूरे समय आप कभी भी कूरियर कर सकते हैं, जबकि डाक विभाग का सरकारी समय निर्धारित है, और उस पर भी आपको लाईन में लगना पड़ता है तो आजकल समय किस के पास है, जो लाईन में लगे और डाक विभाग की सेवाओं का उपयोग करे।
६-७ वर्ष पहले उज्जैन में डाक विभाग ने कार्यालयों के लिये एक सेवा शुरू की थी, जिसके तहत शाम के समय डाकविभाग से कर्मचारी आता था और सारी डाक ले जाता था, अब पता नहीं कि वह सेवा उपलब्ध है या नहीं, परंतु उस समय लगभग हर बैंक और सरकारी कार्यालयों ने इसे तत्काल प्रभाव से उपयोग करना शुरू कर दिया था। अब शायद यह सेवा नहीं है, क्यूँकि अभी जब उज्जैन गये थे तो बैंकों में वापिस से कूरियर सेवाओं ने अपनी जड़ें जमा ली थीं, परंतु अन्य सरकारी कार्यालयों का पता नहीं है।
कूरियर में एक अच्छी बात यह है कि आप फ़ोन कर दो वह आपके स्थान से ही आपकी डाक पिक अप कर लेगा और आप निश्चिंत हो जायेंगे, परंतु डाकविभाग के साथ ऐसा नहीं है, डाकविभाग को अपने तंत्र को प्रभावी रूप से इस्तेमाल करना होगा और उन्हें व्यावसायिक बुद्धि का परिचय देते हुए ठोस कदम उठाने होंगे। कुछ अच्छी सेवाएँ ग्राहकों के लिये देना होंगी, जिससे डाकविभाग के मजबूत तंत्र का फ़ायदा आम जनता को हो।
ऑटो में १८० रूपयों का खून और साईकिल की बातें….
आज सुबह से जो रूपयों का खून होना शुरू हुआ कि बस क्या बतायें ?
खैर बैंगलोर नई जगह है और यह मुंबई जैसा सरल भी नहीं है, बैंगलोर गोल गोल है। मोबाईल पर भी गूगल मैप्स से मदद लेने की बहुत कोशिश करते हैं, परंतु असलियत में तो कुछ और ही निकलता है और कई बार गूगल मैप कोई और ही रास्ता बताता है।
आज हमें सुबह पुलिस स्टेशन जाना था, पासपोर्ट के वेरिफ़िकेशन के चक्कर में तो, गूगल पुलिस स्टेशन कहीं और बता रहा था और पुलिस स्टेशन निकला ६ किमी. आगे इस चक्कर में ऑटो में हमारे १८० रूपये ठुक गये। जब सही पुलिस स्टेशन मिला तो पता चला कि यहाँ के लिये तो घर के पास से सीधी वोल्वो बस मिलती है।
खैर हमारी जेब से निकलकर रूपये ऑटो वाले की जेब में जाना लिखा था तो लिखा था, हम क्या कर सकते थे। सोच रहे थे कि ऑटो वाला भी खुश हो रहा होगा कि रोज ऐसे ही १ – २ ढ़क्कन मिल जायें तो मजा ही आ जाये, और हो सकता है कि रोज फ़ँसते भी होंगे।
जिस काम के लिये गये थे वह काम तो नहीं हुआ परंतु इतने रूपयों का खून हो गया वह जरूर अखर गया। ऐसा लग रहा था कि कोई बिना चाकू दिखाये हमें लूट रहा है और हम भी मजे में लुट रहे हैं।
इसलिये अब सोच रहे हैं कि जल्दी से कम से कम दो पहिया वाहन तो ले ही लिया जाये, जिससे कम से कम ऐसे लुटने से तो बचेंगे और समय भी बचेगा।
साईकिल भी दो पहिया है और बैंगलोर शहर में ५-६ किमी. में साईकिल के लिये विशेष ट्रेक बनाये गये हैं, परंतु अभी बैंगलोर के हर हिस्से में इस तरह के ट्रेक बनाना शायद मुश्किल ही है और अगर रोज २० किमी जाना और २० किमी आना हो तो साईकिल से आना जाना सोचने में ही बहुत मुश्किल लगता है। अगर २० किमी साईकिल चलाकर कार्यालय पहुँच भी गये तो कम से कम काम करने लायक तो नहीं रह जायेंगे।
वैसे हमने हमारे पिताजी को रोज ३५-४० किमी साईकिल चलाते देखा है, और कई बार अगर कहीं आसपास गाँव में जाना है और जाने के लिये कोई साधन न होता था तो साईकिल से बस स्टैंड और फ़िर साईकिल बस के ऊपर और फ़िर उतर कर वापिस से साईकिल की सवारी, इसी तरह से लौटकर आते थे। सोचकर ही रोमांचित होते हैं, कि वे भी क्या दिन होंगे।
साईकिल चलाने से स्वास्थ्य तो अच्छा रहता ही है और व्यायाम भी हो जाता है। हमारे पुराने कार्यालय में दो पहिया और चार पहिया वाहन की पार्किंग सशुल्क थी, परंतु साईकिल के लिये निशुल्क। हाँ कई जगह साईकिल परेशानी का सबब भी है, जैसे बड़े मॉल साईकिल की पार्किंग नहीं देते, ५ स्टार होटल साईकिल वालों को मुख्य दरवाजे से अंदर ही नहीं जाने देते हैं, और विनम्रता से मना कर देते हैं, साईकिल का अंदर ले जाना मना है।
हमने भी साईकिल कॉलेज तक बहुत चलाई, और साईकिल से एक दिन में ५० किमी तक भी चले हैं, थक जाते तो ट्रेक्टर ट्राली को पकड़कर सफ़र तय कर लेते थे। बहुत सारी यादें हैं साईकिल की, बाकी कभी और ….
खैर साईकिल चलाने से भले ही कितने फ़ायदे होते हों परंतु हम साईकिल लेने की तो कतई नहीं सोच रहे, दो पहिया वाहन सुजुकी एक्सेस १२५ बुक करवा रखी है, अब सोच रहे हैं कि खरीद ही लें।
बहिन जी विज्ञापनों से खबरी चैनलों की बोलती बंद की ? या अपराध खत्म हो गये ?
कुछ दिनों पहले IBN7 के दो पत्रकारों को बहिनजी के दो कानूनी रक्षकों ने अंदर कर दिया था और देख लेने की धमकी दी थी, जैसे ही मीडिया में मामला उछला वैसे ही आला अफ़सर सफ़ाई देने पहुँच गये कि यह उनका निजी मामला था, इसमें सरकार का कोई हाथ नहीं है।
इसके पहले भी मीडिया के साथ इस तरह के मामले हो चुके हैं, परंतु उस समय मीडिया इतना संगठित नहीं था और यह भी कह सकते हैं कि व्यावसायिक मामलों के मद्देनजर कभी खुलकर नहीं बोल पाते थे। परंतु इस बार मीडिया ने हिम्मत करी और खुलकर सभी चैनलों ने इसका विरोध किया तो खुद बहिनजी और प्रधानमंत्रीजी को मीडिया से मुखतिब होने के लिये आना पड़ा। यह भी कह सकते हैं कि अब मीडिया परिपक्व हो चुका है और अब उसके पास व्यावसायिक विज्ञापनों की कमी नहीं है।
जब से यह मामला हो गया है, उसके बाद उन दोनों कानूनी रक्षकों को सस्पेंड कर दिया गया परंतु अब उनका क्या हुआ उसकी कोई खबर नहीं है। शायद मामले को रफ़ा दफ़ा कर दिया गया होगा।
अब लगभग हर खबरी चैनल पर बहिनजी के विज्ञापन की भरमार है, या तो बहिनजी की सरकार मजबूर है विज्ञापन देने के लिये, या फ़िर बहिनजी अपनी जनता की खून पसीने की कमाई को सम्मान नहीं देती हैं और इस तरह विज्ञापन में पैसा बहा रही हैं।
अब उत्तरप्रदेश में हो रहे अपराधों का इन खबरी चैनलों ने प्रसारण कम कर दिया है, आखिर खबरी चैनलों को अच्छे खासे पैसों से बहिन जी ने खरीद जो लिया है, नहीं तो पहले यह हालत थी कि १-२ चैनलों पर ही विज्ञापन दिखते थे, और बहिन जी के प्रदेश के अपराधों का समाचार चल रहा है जिसमें उनके खुद के मंत्री तक लिप्त थे और ब्रेक में बहिन जी के प्रदेश के विका का विज्ञापन आता था।
खैर अब यह तो खबरी चैनल ही बता सकते हैं कि अपराध खत्म हो गये या मिलने वाले बोनस से उनके कैमरों ने उधर देखना बंद कर दिया है।
नौकरी है टैलेन्ट नहीं
आज सीएनबीसी पर यह कार्यक्रम “नौकरी है टैलेन्ट नहीं” देख रहे थे। वाकई सोचने को मजबूर थे कि आज बाजार में नौकरी है परंतु सही स्किल के लोग उपलब्ध नहीं हैं, सबसे पहले मुझे लगता है इसके लिये विद्यालय और महाविद्यालय जिम्मेदार हैं, जहाँ से पढ़ लिखकर ये अनस्किल्ड लोग निकलते हैं।
आज जग प्रतियोगी हो चला है। अगर इस प्रतियोगिता में आना भी है तो भी उसके लिये प्रतियोगी को कम से कम थोड़ा बहुत स्किल्ड होना चाहिये। जो कि पढ़ाई के वातावरण पर निर्भर करता है।
आज इंडस्ट्री में ० से २ वर्ष तक के अनुभव वाले लोगों में स्किल की खासी कमी है, कंपनियों को भी अपने यहाँ काम करने वाले अनस्किल्ड वर्कर्स को प्रशिक्षण पर जोर देना होगा, और इसके लिये कंपनियों को बजट भी रखना होगा।
अगर काम करने वाले स्किल्ड होंगे तो वे ज्यादा अच्छे से और ज्यादा बेहतर तरीके से अपना काम कर पायेंगे, जिससे कंपनी और कंपनी के उपभोक्ताओं को तो सीधे तौर पर फ़ायदा होगा ही और समाज को अप्रत्यक्ष रूप से फ़ायदा होगा।
अच्छे स्किल्ड वर्कर होने से बेहतर कार्य कम लागत में पूर्ण हो पायेगा। इसके लिये आजकल कंपनियाँ आजकल अपने वर्कर्स को स्किल्ड बनाने के लिये विशेष कार्यक्रमों का आयोजन भी कर रही हैं और जिन कंपनियों के लिये आंतरिक रूप से यह संभव नहीं है, वे इस प्रोसेस को आऊटसोर्स कर रही हैं।
खैर कंपनियाँ इस बात पर ध्यान दे रही हैं, यह सभी के लिये अच्छी है।
लड़कियों का सिगरेट पीना और शराब पीना समाज को स्वीकार करना चाहिये, समाज को बदलना होगा
रेलयात्रा में अनजाने लोगों से यादगार मुलाकातें और उनकी ही सुनाई गई एक कहानी… (My Railway Journey..)
रेलयात्रा करते हुए अधिकतर अनजाने लोगों से अलग ही तरह की बातें होती हैं, जिसमें सब बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं, और लगभग हर बार नयी तरह की जानकारी मिलती है।
इस बार कर्नाटक एक्सप्रेस से जाते समय एक स्टेशन मास्टर से मुलाकात हुई जो कि अपने परिवार के साथ ७ दिन की छुट्टी के लिये अपने गाँव जा रहे थे। घर में सबसे बड़े हैं और अपने चचेरे भाईयों को उनके भविष्य के बारे में महत्वपूर्ण राय देते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उनके भाई उनके मार्गदर्शन को मानते भी हैं और उनके मार्गदर्शन पर चलते हुए दो भाई सरकारी नौकरी में भी लग गये हैं, अब उन्हें तीसरे की चिंता है।
ऐसे ही बातें चल रहीं थीं तो उन्होंने एक बहुत ही अच्छी छोटी सी कहानी सुनाई, कि अच्छे लोगों के साथ ही हमेशा बुरा क्यों होता है और हम यह भी सोचते हैं कि फ़लाना कितने बुरे काम करता है परंतु भगवान उसको कभी सजा नहीं देते।
एक गाँव में दो दोस्त रहते थे और शाम के समय पगडंडी पर घूम रहे थे, पहला वाला दोस्त बहुत ईमानदार और नेक था और दूसरा दोस्त बेहद बदमाश और बुरी संगत वाला व्यक्ति था। तभी एक मोटर साईकिल से एक आदमी निकला तो उसकी जेब से एक १००० रूपये का नोट गिर गया। तो पहला दोस्त दूसरे से बोला कि चलो जिसका नोट गिरा है उसे मैं जानता हूँ, उसे दे आते हैं। दूसरा दोस्त बोला कि अरे नहीं बिल्कुल भी नहीं ये हमारी किस्मत का है इसलिये यहाँ उस आदमी की जेब से गिरा है, यह नोट उस आदमी की किस्मत में नहीं था, हमारी किस्मत में था, चल दोनों आधा आधा कर लेते हैं, ५०० रूपये तुम रखो और ५०० रूपये मैं रखता हूँ।
पहले दोस्त ने मना कर दिया कि मैं तो ऐसे पैसे नहीं रखता तो दूसरा दोस्त बोला कि चल छोड़ मेरी ही किस्मत में पूरे १००० रूपये लिखे हैं, पर फ़िर भी पहला दोस्त उसे समझाता रहा कि देखो ये रूपये हमारे नहीं हैं, हम उसे वापिस लौटा देते हैं। परंतु दूसरा दोस्त मानने को तैयार ही नहीं होता है।
चलते चलते अचानक पहले वाले दोस्त को पैर में कांटा लग जाता है और वह दर्द से बिलबिला उठता है। और दूसरा दुष्ट दोस्त १००० रूपये का नोट हाथ में लेकर नाचता रहता है।
पार्वती जी शिव जी के साथ यह सब देखती रहती हैं। और शिव जी से शिकायत करती हैं कि यह कैसा न्याय है प्रभु, जो सीधा साधा ईमानदार है उसको मिला कांटा और जो दुष्ट और पापी है उसे मिला १००० रूपया। शिव जी पार्वती जी को बोलते हैं, ये सब मेरे हाथ में नहीं है, इसका हिसाब किताब तो चित्रगुप्त के पास रहता है। पार्वती जी कहती है कि प्रभु मुझे इनके बारे में जानना है आप चित्रगुप्त को बुलवाईये। चित्रगुप्त को बुलाया जाता है, और प्रभु उनसे कहते हैं, बताओ चित्रगुप्त इन दोनों दोस्तों के बारे में पार्वती जी को बताओ।
चित्रगुप्त कहते हैं पहला दोस्त जो कि इस जन्म में पुण्यात्मा ईमानदार है, पिछले जन्म में महापापी दुष्ट था, इसकी तो बचपन में ही अकालमृत्यु लिखी थी, परंतु अपने कर्मों के कारण इसके बुरे कर्मों के फ़लों का नाश हो गया और आज जो इसे कांटा चुभा है वह इसके पिछले जन्मों में किये गये बुरे कर्मों का अंत था, अब इसके पुण्य इसके साथ ही रहेंगे।
पार्वती जी बोलीं – चित्रगुप्त जी दूसरे दोस्त के बारे में बताईये। चित्रगुप्त कहते हैं दूसरा दोस्त पिछले जन्म में बहुत पुण्यात्मा और ईमानदार था परंतु इस जन्म में महापापी दुष्टात्मा है, अगर यह इस जन्म में भी पुण्यात्मा होता तो इसे तो राजगद्दी पर बैठना था, परंतु दुष्ट है इसलिये आज इसका पिछले जन्मों का पुण्य खत्म हो गया और इसे राजगद्दी की जगह १००० रूपयों से ही संतोष करना पड़ रहा है। और अब इसके पाप इसके खाते में लिखे जायेंगे।