जैसे कभी भगवान पर भरोसा कायम हुआ था, वैसे ही अब हिला हुआ है। भगवान पर भरोसा इसलिये हुआ था कि बचपन से मंदिर परिवार ले जाता था, धीरे धीरे लगने लगा कि ये कुछ अच्छी जगह है, मतलब कि मेंटल कंडीशनिंग की गई।
अब हमारे यहाँ भारत में कहीं घूमने चले जाओ, या तो खुदनसे ही या फिर कोई जानने वाला कह ही देगा कि उस फलाने मंदिर में मत्था टेक आना, बहुत प्राचीन व प्रसिद्ध है, पुण्य मिलेगा।
पर इस पुण्य का क्या कभी किसी को फायदा हुआ, क्या कभी किसी ने इसे अपने जीवन में बैरोमीटर से नापा? अब तो पिछले कुछ वर्षों से मंदिर जाओ तो वहाँ हो रहे लूटपाट को देखकर घिन आती है, कैसे भगवान के साथ रहकर लोगों को लूट लेते हैं, क्या उनके पुण्य क्षीण नहीं होते होंगे?
अब यह तो पक्का है कि भगवान है तो केवल पर्यटन के लिये, क्या कभी हम खुद उस मंदिर या उसके आसपास की सफाई करने लगते हैं? कि वहाँ गंदा है, नहीं न! जबकि घर का मंदिर कैसा साफ रखते हैं।
तो यह समझ लो कि ये सब पाखंड है, भगवान से प्यार भक्ति सब दिखावा है। कुछ पुण्य नहीं मिलता, हाँ कुछ गलत काम न करो, आपके दिल दिमाग को सुकून मिले वही पुण्य है। किसी काम को करने आए आप खुद खुश न हो, तो बस वही पाप है।
आज ऑफिस आते समय अचानक ही एक कार जिस पर एल (L) का स्टीकर कार पर लगा था याने कि कोई नया बंदा गाड़ी चला रहा थी और उसकी कार में सीट पर भी पॉलीथीन चढ़ी हुई थी, उस कार में पीछे के काँच और डेशबोर्ड दोनों पर भगवान चिपका रखे थे और उन पर ताजे फूल भी चढ़ाये हुए थे। आश्चर्य तब और हुआ जब उसके डेशबोर्ड पर दो भगवान याने कि गणेश जी और बाला तिरूपति दोनों को विराजित देखा और ऊपर काँच पर हनुमान लटकते नजर आये।
अचानक ही मुझे ध्यान आया कि जब मैंने भी कार ली थी और मेरा ड्राईवर जिससे मैंने कार सीखी थी वो कार डेकोर के पास लेकर गया था और मुझे भगवान डेशबोर्ड पर लगाने के लिये कहा था, तो मैंने कहा कि मेरे भगवान इस दुकान पर नहीं मिलेंगे वो तो केवल उज्जैन में ही मिलते हैं और मेरे पास एक छोटी सी तस्वीर है मैं उस तस्वीर को ही कार को माईलोमीटर के पास रखकर काम चला लूँगा, और जब भी उज्जैन जाऊँगा तब वहाँ से महाकाल भगवान डेशबोर्ड पर लगाने वाले ले आऊँगा।
मैंने इसके बाद ध्यान से देखना शुरू किया तो पाया कि लगभग 90 प्रतिशत गाड़ियों में डेशबोर्ड पर भगवान विराजमान हैं, अगर डेशबोर्ड पर नहीं हैं तो वे किसी न किसी प्रकार से गाड़ी मैं मौजूदगी बनाये हुए हैं, या तो वे बैकमिरर पर लटके हुए हैं या फिर तस्वीर की शक्ल में विराजमान हैं। किसी ने डेशबोर्ड पर छोटे भगवान लगा रखे हैं तो किसी ने बड़ा मंदिर भी लगा रखा है, पर सभी धर्मों के चालकों ने अपने अपने भगवान गाड़ियों में लगा रखे हैं।
मुझे कभी गाड़ी में भगवान लगाने का सिद्धान्त ही समझ नहीं आया, पता नहीं कब क्यों और कहाँ से यह अवधारणा आई। अगर ऐसा ही होता तो कार खरीदते समय ही कार कंपनी डेशबोर्ड पर भगवान आपकी पसंद के अनुसार फिट करके दे देते। पहले के राजा लोग अपने रथ पर कोई ध्वज फहराते थे और शायद भगवान उनके ध्वज पर ही रहते थे। जैसे पुराने जमाने में लोग बैलगाड़ी वगैराह में जाते थे तब उनकी गाड़ी में या तो जगह नहीं होती थी या उनको पता नहीं था, परंतु मैंने कभी बैलगाड़ी में भगवान को नहीं देखा, शायद बैल को ही भगवान रूप मान लिया जाता होगा। चार पहिया कोई भी हो, मैंने अधिकतर गाड़ियों में भगवान को देखा है, बसों में तो अगरबत्ती भी जलाई जाती है।
शायद इसके पीछे की भावना यही होती होगी कि इतनी बड़ी मशीन एक इंसान ही चला रहा है तो भगवान आप कृपा रखना और कई लोग गाड़ी चलाने के पहले भगवान का नाम लेते हैं और उतरते समय भगवान का धन्यवाद भी करते हैं। मशीने कभी भी किसी भी कारण से खराब हो जाती हैं और ये मशीनें बहुत तेज चलती हैं तो वैसे ही दुर्घटना भी खतरनाक होती है। हो सकता है कि आने वाले समय में रॉकेट में भी भगवान विराजमान हों, विमान का हमें पता नहीं। आप भी अपने आस पास देखें और समझें कि भगवान आखिर डेशबोर्ड पर विराजमान क्यों होते हैं।