आत्मा वा अरे द्रष्टव्य:
तस्मिन विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति
आत्मा वा अरे द्रष्टव्य:
तस्मिन विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय
यहाँ पर ऋषि ने कल्याणकारी उपदेश समान रूप से सभी के लिये दिया है। मनुष्यों में जो वर्णभेद है वह कर्मों के कारण है। सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से है। इसलिए वेदों के अध्ययन में जाति-वर्णगत, लिंगगत कोई भेद नहीं है। इसका तो प्रत्यक्ष प्रमाण वागाम्भृणी, काक्षीवती घोषा, अपाला, गार्गी इत्यादि ऋषिकाएँ एवं ब्रहमवादिनियाँ हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के ऋषि रूप में इतरा दासी के पुत्र महिदास ऐतरेय प्रसिद्ध हैं। वेदों की यहा समन्वयात्मक दृष्टि सर्वथा अनुकरणीय एवं प्रेरणास्पद है।
‘अग्निमीळे पुरोहितम’
वैदिक ऋषिक में यह अग्नि केवल पाचक दाहक प्रकाशक ही नहीं, अपितु यह सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी अग्रगामी नेतृत्व करने वाला सर्वाधिक रमणीय धनों को देने वाला है। अत: जातवेदस वैश्वानर पुरोहित देव इत्यादि रूप में यह अग्नि प्रार्थनीय है।
माता भूमि: पुत्रोsहं पृथिव्या: । अथर्ववेद १२.१.१२
नमो मात्रे पृथिव्यै । यजुर्वेद ९.२२
विश्वबन्धुत्व की भावना –
यत्र विश्वं भवत्येकनीडम
१. माता २. पिता ३.आचार्य ४.अतिथि
मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव
एकाकी स न रेमे
एकोsहं बहु स्याम, प्रजायेय
तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत
अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:।जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम॥ अथर्ववेद
३.३०.२
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा
समानी प्रपा सह वोsन्नभाग: – अथर्ववेद ३.३०.६
केवलाघो भवति केवलादी – ऋगवेद १०.११७.६
पुमान पुमांसं परिपातु विश्वत:
समानीव आकूति: समाना हृदयानि व:।समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति॥ ऋग्वेद १०.१९१.४
हे मनुष्यों (व: ) आप सभी को (आकूति: ) विचार संकल्प (समानी) समान होवें। (व: ) आप सभी के (हृदयानि) हृदय (समाना) समान होवें (व: ) आप सभी के (मन: ) मनन-चिन्तन (समानम अस्तु) समान होवें। (यथा) जिससे (व: ) आप सभी का (सुसह-असति) एक साथ रहना होवे। सह अस्तित्व के लिये चिन्तन-मनन, भावना तथा संकल्प में समानता-एकरूपता आवश्यक है।
सप्त ऋषय: प्रतिहिता: शरीरे।सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम ( यजुर्वेद ३४.५५)
पं. सातवलेकर ने मानव शरीर को अपना स्वराज्य बतलाया है। यह शरीर ही रत्नादि से परिपूरित अपराजेय देवपुरी अयोध्या है और सवकीय आत्मा ही इस स्वराज्य का राजा है। शरीर रूपी यह स्वराज्य सभी को सहज ही स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। धनी हो अथवा निर्धनी, सभी व्यक्ति का अपना स्वराज्य है और आत्मा रूपी राजा का शासन इस पर चलना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य को अपने शरीर के महत्व का बोध कराया गया है।
भद्रं कर्णेभि:श्रृणुयाम देवा भद्रं
पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।स्थिरैरड्गै:स्तुष्टुवांसस्तनूभिर्येशम देवहितं यदायु:॥ ऋगवेद १.८६.८
भूयश्च शरद: शतात
(शतात शरद भूय: ) और सौ वर्ष से अधिक जीवित रहें ।
न श्व: श्वमुपासीत। को हि मनुष्यस्य श्वो वेद।
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानांपूरयोध्या
(अष्टचक्रा) आठ चक्रों (नवद्वार) नव द्वारों वाला हमारा यह शरीर ही (देवानां) देवताओं की (पू: ) पुरी (अयोध्या) अयोध्या-अपराजेय है। इसलिए यह शरीर सर्वतोभावेन रक्षणीय है, इसको स्वस्थ एवं स्वच्छ बनाए रखना है।
आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:
(भद्रा:क्रतव:) कल्याण करने वाली बुद्धियाँ (विश्वत:) सभी तरफ़ से (न:) हमारे पास (आ यन्तु) आवें अर्थात ज्ञान की उत्तम धाराएँ हमको प्राप्त होवें।
वेदों का महत्व –
वेद भारतीय अथवा विश्व साहित्य के उपलब्ध सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। इनसे पहले का कोई भी अन्य ग्रन्थ अब तक प्राप्त नहीं हुआ है। इसलिये कहाज आता है कि वे सम्पूर्ण संसार के पुस्तकालयों की पहली पोथी है और भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के तो वेद प्राचीनतम एवं सर्वाधिक मूल्यवान धरोहर हैं, हमारे स्वर्णिम अतीत को अच्छी तरह प्रकाशित करने वाले विमल दर्पण हैं।
वेद शब्द का अर्थ ही है ज्ञान और इस तरह वेद दकल ज्ञान-विज्ञान की निधि हैं। परा था अपरा दोनों विद्याओं का निरूपण करते हैं। भगवान मनु का उद्घोष है कि ‘सर्वज्ञानमयो हि स:’ (स: ) वह वेद (सर्वज्ञानमय: ) सभी प्रकार के ज्ञान से युक्त हैं। महर्षि दयानन्द ने वेदों को समस्त सत्य विद्याओं का आकार कहा है। हमारा सम्पूर्ण जीवन, सकल क्रियाकलाप वेदों से ओतप्रोत है, कुछ भी वेद से बाहर नहीं है। इनकी उपयोगिता सार्वकालिक सार्वदेशिक सार्वजनीन है। इसलिए इन वेदों के अध्ययन पर बल दिया गया है और भौतिक विज्ञान के इस अत्यन्त समुन्नत युग में भी वेदों का ज्ञान उपयोगी, अत एवं प्रासंगिक है और इन्हीं वेदों के कारण आज भी हमारी भारतीय संस्कृति संसार में पूजनीया है और भारत देश विश्वगुरू के महनीय पद पर प्रतिष्ठित है।
वेदों का स्वरूप –
वेद अपौरूषेय, अत एवं नित्य हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार इन वेदों की रचना नहीं हुई है, अपितु ऋषियों ने अपनी सतत साधना तपश्चर्या से ज्ञान राशि का साक्षात्कार किया है और प्रत्यक्ष दर्शन करने के के कारण इनकी संज्ञा ‘ऋषि’ है –
ऋषिर्दर्शनात (दर्शनात) दर्शन, करने के कारण (ऋषि: ) ऋषि कहते हैं।
ऋषयो मन्त्रद्रष्टार: (मन्त्रद्रष्टार: ) मन्त्रों को देखने वाले (ऋषय: ) ऋषिलोग (युग के प्रारम्भ में हुए) ।
साक्षात्कृतधर्माण: ऋषयो बभूवु: (साक्षात्कृतधर्माण: ) धर्म-धारक्रतत्व-सत्य का साक्षात्कार करने वाले (ऋषय: ) ऋषिलोग (बभूवु: ) युग के प्रारम्भ में हुए। प्रत्यक्ष किए जाने के कारण वेद प्रतिपादित ज्ञान सर्वथा संदेहरहित निर्दोष, अत एवं प्रामाणिक है। इनमें किसी भी प्रकार की मिथ्यात्व की सम्भावना नहीं है। इसलिये वेदों कास्वत: प्रामाण्य है, अपनी पुष्टि प्रामाणिकता के लिये वेद किसी के आश्रित नहीं हैं। वेदों का सर्वाधिक महत्व इसी बात में है कि इनके द्वारा स्थूल-सूक्ष्म निकटस्थ दूरस्थ, अन्तर्हित व्यवहित, साथ ही भूत, वर्तमान, भविष्यत, त्रैकालिक समस्त विषयों का नि:संदिग्ध निश्चयात्मक ज्ञान होता है और इसीलिए भगवान मनु ने वेदों को सनातन चक्षु कहा है। यह अनुपम ज्ञाननिधि सुदूर प्रचीन काल से आज तक अपने उसी रूप में सुरक्षित चली आ रही है। इसमें एक भी अक्षर यहाँ तक कि एक मात्रा का भी जोड़ना-घटाना सम्भव नहीं है। आठ प्रकार के पाठों से यह वेद पूर्णत: सुरक्षित है।
जो पढ़ रहा हूँ वह लिख रहा हूँ, वेदों की शिक्षा