श्रीमद्भागवदगीता के अध्याय ५ श्लोक १८ में भगवान कह रहे हैं, विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।
जो भगवान में अपनी भावना व आस्था रखते हैं वे योनि या जाति में भेद नहीं करते हैं। सामाजिक दृष्टि से ब्राह्मण तथा चाण्डाल भिन्न-भिन्न हो सकते हैं या योनि के अनुसार कुत्ता, गाय तथा हाथी भिन्न हो सकते हैं, किंतु विद्वान योगी या पुरूष की दृष्टि में ये शारीरिक भेद अर्थहीन होते हैं। इसका मुख्य कारण परमेश्वर से उनका सीधा संबंध है और परमेश्वर परमात्मा रूप में हर एक के ह्रदय में स्थित हैं। परमसत्य का यही ज्ञान यथार्थ है।
भगवान सभी पर समान रूप से दयालु है भले वह किसी भी योनि का हो या किसी जाति का हो। शरीर के भीतर आत्मा और परमात्मा समान आध्यात्मिक गुण वाले हैं।
आत्मा तथा परमात्मा के लक्षण समान हैं क्योंकि दोनों चेतन, शाश्वत तथा आनन्दमय हैं। किंतु अंतर इतना ही है कि आत्मा शरीर की सीमा के भीतर सचेतन रहता है जबकि परमात्मा सभी शरीरों में सचेतन है। परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान है।