शिवपुराण के द्वितीय / सतीखंड के अध्याय 30 में माँ सती के द्वारा अपने शरीर को भस्म करने की कथा है।
सतीदेवी भगवान शिव का सादर स्मरण करके शांत चित्त होकर उत्तर दिशा में भूमि पर बैठ गईं। विधिपूर्वक जल का आचमन करके वस्त्र ओढ़ लिया और पवित्र भाव से आंखें मूंदकर शिवजी का चिंतन करती हुई वह योग मार्ग में स्थित हो गईं। उन्होंने आसान को स्थिर कर प्राणायाम द्वारा प्राण और अपान को एक रूप करके नाभिचक्र में स्थित किया। फिर उदान वायु को बलपूर्वक नाभि चक्र से ऊपर उठकर बुद्धि के साथ हृदय में स्थापित किया तत्पश्चात उसे हृदय स्थित वायु को कंठमार्ग से भृकुटियों के बीच ले गईं। अपने शरीर को त्यागने की इच्छा से सती ने अपने सम्पूर्ण अंगों में योगमार्ग के अनुसार वायु और अग्नि धारण की, और शिवजी का चिंतन करते हुए अन्य सब वस्तुओं को भुला दिया। उनका चित्त योगमार्ग में स्थित हो गया था। सती का निष्पाप शरीर तत्काल गिरा और उनकी इच्छा के अनुसार योगाग्नि से जलकर उसी क्षण भस्म हो गया।
कई जगह यज्ञ वेदी में भस्म होना बताते हैं, पर यह इतना विस्तारपूर्वक दृष्टांत योग विज्ञान की ओर दर्शाता है कि हमारा योग विज्ञान उस समय अपने चरम पर था और उसके अध्ययन के लिये उचित आचार्य भी मौजूद थे। पर आज का विज्ञान इन सब बातों को कपोल कल्पना मात्र ही मानता है।