सुन्दरकाण्ड से कुछ चौपाईयाँ..
दो० – कपि के ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाई॥ २४ ॥
मैं सबको समझाकर कहता हूँ कि बंदर की ममता पूँछ पर होती है। अत: तेल में कपड़ा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फ़िर आग लगा दो॥ २४ ॥
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउँ मैं तिन्ह के प्रभुताई॥ १ ॥
जब बिना पूँछका यह बंदर वहाँ (अपने स्वामी के पास) जायेगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आयेगा। जिनकी इसने बहुत बड़ाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखूँ ॥ १ ॥
बचन सुनत कपि मन मुसकाना। भै सहाय सारद मैं जाना ॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥ २ ॥
यह वचन सुनते ही हनुमानजी मनमें मुसकराये [और मन ही मन बोले कि ] मैं जान गया, सरस्वतीजी [इसे ऐसी बुद्धि देने में] सहायक हुई हैं। रावण के वचन सुनकर मूर्ख राक्षस वहीं (पूँछ में आग लगाने की) तैयारी करने लगे।
रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥ ३ ॥
[पूँछ के लपेटने में इतना कपड़ा और घी-तेल लगा कि] नगर में कपड़ा, घी और तेल नहीं रह गया। हनुमानजी ने ऐसा खेल किया कि पूँछ बढ़ गयी (लम्बी हो गयी) । नगरवासी लोग तमाशा देखने आये। वे हनुमानजी को पैर से ठोकर मारते हैं और उनकी बहुत हँसी करते हैं ॥ ३ ॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फ़ेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता। भयौ परम लघुरुप तुरंता॥ ४ ॥
ढोल बजते हैं, सब लोग तालियाँ पीटते हैं। हनुमानजी को नगर में फ़िराकर, फ़िर पूँछ में आग लगा दी। अग्नि को जलते हुए देखकर हनुमानजी को तुरंत ही बहुत छोटे रुप में हो गये ॥ ४ ॥
निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं ॥ ५ ॥
बन्धन से निकलर वे सोने की अटारियों पर चढ़े। उनको देखकर राक्षसों की स्त्रियाँ भयभीत हो गयीं।। ५ ॥