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दलालों का शहर मुंबई (City of Brokers, Mumbai)

मुंबई छोड़े अब १ साल से अधिक हो गया है कुछ बातों में मुंबई की बहुत याद आती है और कुछ बातों से मुंबई से कोफ़्त भी होती है, जैसे कि दलालों का शहर मुंबई है। मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है और रियल इस्टेट में हर जगह ब्रोकर याने कि दलालों का बोलबाला है। आजकल क्या मैं तो बरसों से मुंबई में देख रहा हूँ मुंबई में दल्लों का धंधा चोखा है।
renthousemumbai 
आपको फ़्लेट किराये पर लेना हो या खरीदना हो हरेक जगह ब्रोकरों का राज है। मुझे अच्छे से याद है जब मैंने मुंबई आखिरी बार फ़्लेट किराये पर लिया था तब तक ब्रोकर लोग किरायेदार से एक महीने का किराया ब्रोकर के रूप में लेते थे और ११ महीने का कान्ट्रेक्ट होता है। ११ महीने बाद अगर उसी फ़्लेट को रिनिवल करवाना है तो उसके लिये भी एक महीने का किराया ब्रोकरेज के रूप में देना पड़ता था।
आज ही छोटे भाई से बात हो रही थी तो पता चला कि अब ब्रोकरेज याने कि दलाली फ़्लेट लेने के लिये दो महीने की लेने लगे हैं और रिनिवल पर एक महीने का किराया ब्रोकरेज के रूप में लिया जा रहा है। वहाँ मुंबई में आम आदमी तो कमाने के लिये गया है और ये ब्रोकर बैठे हैं लूटने के लिये। प्रशासन भी आँख मूँदे पड़ा है। बेचारा बाहर का आदमी आयेगा तो उसे तो परिवार के रहने के लिये घर चाहिये ही, और सब अपने परिवार को अच्छी जगह पर रखना चाहते हैं, तो मजबूरी में ब्रोकरेज भी देते हैं।
अगर बात अब आंकड़ों में की जाये, १ बीएचके याने कि लगभग ४६५ स्क्वेयर फ़ीट का फ़्लेट का किराया कांदिवली पूर्व में लगभग १८,००० से २१,००० रूपये है, अब किरायेदार को ब्रोकरेज के तौर पर कम से कम ३६,००० रूपया तो ब्रोकर को ही देना है और यह एग्रीमेंट मकान मालिक के साथ ११ महीने का होता है, और एग्रीमेंट रजिस्टर्ड होता है, उस रजिस्ट्रेशन का खर्च आधा आधा मकान मालिक और किरायेदार को वहन करना होता है जो कि ब्रोकर लगभग ७,००० रूपया लेते हैं। तो आधा हो गया ३,५००। ११ महीने के बाद फ़िर से बड़े किराये के साथ ब्रोकर का ब्रोकरेज भी बढ़ जाता है।
और ब्रोकर तो मुंबई में कुकुरमुत्ते की तरह हैं, हर गली हर चौराहों पर ब्रोकर मिलेंगे, ये ब्रोकर हरेक तरह का सहारा लेते हैं और गुंडई करने से भी बाज नहीं आते।
हमने अनुमान लगाया था कि अगर ब्रोकर के पास कम से कम ऐसे १०० ग्राहक भी हैं तो उसकी वर्ष भर की कमाई कम से कम १८ लाख रूपये है, और अधिक तो अब क्या बतायें ये तो आप खुद अनुमान लगा लें।
पता नहीं कब सरकार चेतेगी और आम आदमी को मुंबई से ब्रोकर से मुक्ति मिलेगी। वैसे अब बैंगलोर में भी ब्रोकरों का धंधा काफ़ी अच्छा हो चला है, धीरे धीरे मुंबई की बयार यहाँ पर भी बह रही है। इसलिये हम तो ब्रोकरों का शहर कहते हैं मुंबई को।
ऐसे बहुत ही कम मकान मालिक हैं जो कि अपने फ़्लेट बिना किसी ब्रोकर की सहायता के देते हैं, ऐसे फ़्लेट सुलेखा.कॉम, मैजिकब्रिक्स.कॉम, ९९एकर्स.कॉम और ओएलएक़्स.इन पर ढूँढे जा सकते हैं, अगर किस्मत अच्छी हुई तो जिस समय आप फ़्लेट ढूँढ़ रहे हैं उस समय आपको कोई फ़्लेट इन वेबसाईट पर मिल जाये और आप अपनी गाढ़ी कमाई का कुछ हिस्सा बचा सकें।

मुंबई गाथा मिसल पावभाजी और गोविंदा.. भाग ८ ( Missal, PaoBhaji and Govinda.. Mumbai Part 8)

    वहीं स्टेशन पर लोकल विक्रेता मिसल और बड़ा पाव बेच रहे थे, हमने सोचा कि अभी तो ट्रेन आने में समय है क्यों न मुंबई की इन प्रसिद्ध चीजों को खा लिया जाये, फ़िर पता नहीं कब मौका आये। हम चल पड़े लोकल विक्रेता के पास और एक मिसल लिया और एक बड़ा पाव लिया। स्वाद ठीक था परंतु हमें तो मुंबई की चीजों का आनंद उठाने का जुनून जो था, फ़िर उसी के पास भेल भी थी तो वह भी ले ली, मुंबई के इन स्वादिष्ट व्यंजनों का क्या कहना, मजा आ गया। वैसे यहाँ जितनी भी चीजें आप भूख लगने पर खा सकते हैं वह सब ऐसी होती हैं, जिन्हें आप कहीं भी जाते हुए खा सकते हैं, मतलब कि चलते हुए खा सकते हैं, वह इसलिये भी हो सकता है कि मुंबई में लोगों के पास समय नहीं होता है या यह भी बोल सकते हैं कि मुंबई में लोग एक एक मिनिट की कीमत समझते हैं।

    हम कौतुहल से अब भी ट्रेन को देख रहे थे, हमारी ट्रेन दो – तीन बार आकर निकल चुकी थी परंतु हम खाने में व्यस्त हो गये थे इसलिये अगली ट्रेन आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। ट्रेन आई और हम उसमें आराम से सवार हो लिये, ट्रेन के दूसरे दर्जे में बैठे थे, पहले तो सुनने में ही अजीब लग रहा था कि सैकण्ड क्लॉस में जाना है फ़र्स्ट में नहीं। ट्रेन के दरवाजे अच्छे चौड़े थे और बीच में एक खंबा लगा हुआ था, सीट लकड़ी के पटियों की थी जो कि अमूमन हर ट्रेन के सैकेण्ड क्लॉस के डिब्बे में होती थी। पर यहाँ सीट थोड़ी कम चौड़ी थी जबकि पैसेन्जर में सीट ज्यादा चौड़ी होती है।

    मुंबई सेंट्रल पहुँचकर अपनी पैसेन्जर का टिकट लिया और पैसेन्जर में चढ़ लिये, पैसेन्जर ट्रेन में तो बहुत घूमे थे परंतु मुंबई की पैसेन्जर में पहली बार बैठे थे, हमारे वरिष्ठ हमें बता तो रहे थे परंतु कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सफ़र करते हुए एक स्टेशन आया विरार, तब हमें याद आया गोविंदा जिसे कहते हैं “विरार का छोकरा”। गोविंदा ने विरार से मुंबई रोज इन्हीं पैसेन्जर से जाकर संघर्ष किया था और आज बहुत संघर्ष करने के बाद वह अभिनेता बना है।

    हमारी गाड़ी धीरे धीरे निकल रही थी, और आखिरकार हमारा स्टेशन बोईसर आ ही गया, यह एक छोटा सा कस्बा है, जहाँ बहुत सारी उत्पादक इकाईयाँ हैं और थोड़ी दूर ही भाभा परमाणु केंद्र भी है। हम स्टेशन से बाहर निकले तो देखा बिल्कुल गाँव, हमने माथा पीट लिया कि बताओ कहाँ मुंबई सोचकर आये थे और सारे स्वप्न धाराशायी हो गये, नौकरी में तो ऐसा ही होता है बेटा करो गाँव में ऐश वो भी मुंबई के गाँव में।

मुंबई गाथा लोकल के प्लेटफ़ॉर्म पर .. भाग ७ (On local platform .. Mumbai Part 7)

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    दादर में टिकिट लेने के बाद अब लोकल में बैठने का इंतजार था, और लोकल को टीवी में देखकर और अपने दोस्तों के मुख से बखाने गये शब्द याद आने लगे, भरी हुई लोकल और मुंबई की तेज रफ़्तार जिंदगी। इसीलिये ही हमारे प्रबंधन ने दोपहर के २ बजे ही हमें भेज दिया था कि जल्दी निकल जाओगे तो भीड़ नहीं मिलेगी। यह सब देखकर तो और भी रोमांचित हो उठे थे। कि जरुर लोकल कोई बहुत ही गजब चीज है तभी तो यह मुंबई की जीवन रेखा कहलाती है।

    फ़िर हमारे वरिष्ठ ने हमसे कहा कि फ़लाने प्लेटफ़ॉर्म पर चलते हैं, वहाँ फ़ास्ट लोकल आयेगी हमने उनसे पूछा कि ये फ़ास्ट क्या होता है तब वे बोले कि स्लो भी होती है, अब तो बस हमारे लिये अति ही हो गई थी, भई फ़ास्ट और स्लो होता क्या है, ये तो बताओ। तब वरिष्ठ बोले कि फ़ास्ट मतलब कि बड़े स्टेशन पर ही रुकती है जैसे कि वेस्टर्न लाईन पर बोरिवली, अंधेरी, बांद्रा, दादर, मुंबई सेंट्रल और चर्चगेट जबकि स्लो हरेक स्टेशन पर रुकती है। और हरेक प्लेटफ़ॉर्म पर अलग ही तरह की एक प्लेट लगी होती है जिसमें पहले गंतव्य लिखा होता है कि कहाँ जा रही है, जैसे BO मतलब बोरिवली फ़िर समय लिखा होता है फ़िर F या S लिखा होता है और फ़िर कितने मिनिट में ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म पर आने वाली है, हम भी हैरान थे कि इतनी जानकारी कैसे लोगों को एक साथ हो जाती है

    जैसे ही लोकल के प्लेटफ़ॉर्म पर आये वहाँ इतनी भीड़ थी कि अपने पैसेन्जर के लिये भी इतनी भीड़ नहीं होती है, हमने कहा कि क्या बहुत देर से कोई ट्रेन नहीं आई है तो हमारे वरिष्ठ बोले, ट्रेन तो हर २-३ मिनिट में आती है परंतु जनता इतनी ज्यादा  है कि बस ! इसलिये ऐसा लगता है। वाकई हम दूसरे प्लेटफ़ॉर्म पर देख रहे थे एक ट्रेन आई और प्लेटफ़ॉर्म खाली पर फ़िर २ मिनिट में  वापिस उतना ही भरा हुआ नजर आता।

    अपने आप में बहुत ही रोमांचित क्षण थे वे मुंबई के प्लेटफ़ॉर्म पर, दोस्तों की बतायी हुई बातें बार बार याद आ रही थीं, और अब खुद को अच्छा लग रहा था कि देखो आ गये हम भी मायानगरी मुंबई, सपनों का शहर मुंबई, जहाँ का दिन ही रात से शुरु होता है, जहाँ २४ घंटे जीवन व्यस्त रहता है।

    वहीं खड़े खड़े हम आने जाने वालों को देख रहे थे, और मुंबई की लड़्कियों को देख रहे थे, सुना था कि मुंबई में दो चीज कब मेहरबान हो जाये कह नहीं सकते एक बारिश और दूसरी लड़की, एक और बात सुनी थी कि जिंदगी में कभी दो चीजों के पीछे नहीं भागना चाहिये पहली बस दूसरी लड़की एक जाती है तो दूसरी आती है। शायद यह भी मुंबई के लिये ही कहावत बनायी गई होगी। वहाँ की लड़्कियों के कपड़े जो पहने होतीं हम आँखें फ़ाड़फ़ाड़ कर देख रहे थे कि इनको बिल्कुल शर्म ही नहीं है, क्या कुछ भी पहनकर निकल लेती हैं। अब आखिर हम पहली बार बड़े शहर आये थे और वह भी मायानगरी मुंबई में तो अब यह सब हमको मुंबई के हिसाब से वाजिब भी लगने लगा।

जारी..

मुंबई गाथा दादर रेल्वे स्टेशन.. भाग ६ (Dadar Railway Station.. Mumbai Part 6)

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    हमें दिया गया था बोईसर, जो कि मुंबई से बाहर की ओर है, हमें थोड़ा मायूसी तो हुई कि काश मुंबई मिलता तो यहाँ घूमफ़िर लेते और मुंबई के आनंद ले लेते। पर काम तो काम है, और काम जब सीखना हो तो और भी बड़ा काम है।

    हम तीन लोग होटल की और जाने लगे उसमें वही वरिष्ठ जो हमें ट्रेन से लाये थे वही थे जो कि उस समय हमारे समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, फ़िर पूछा कि टैक्सी से चलेंगे या पैदल, तो हमने कह दिया नहीं इस बात तो पैदल ही जायेंगे। मुश्किल से ७-८ मिनिट में हम होटल पहुँच लिये, और फ़िर उनसे बोला फ़ालतू में ही सुबह टैक्सी में गये और पैसे टैक्सी में डाले, इस पर वे बोले “अरे ठीक है, वह तो कंपनी दे देगी”, हम चुप रहे क्योंकि हमें अभी बहुत कुछ पता नहीं था, और जब पता न हो तो चुपचाप रहना ही बेहतर होता है। तो सामने वाला जो भी जानकारी देता है हम उसे ग्रहण कर लेते हैं, और जब हमें थोड़ा जानकारी हो जाती है तो फ़िर हम उसके साथ बहस करने की स्थिती में होते हैं, और यह समझने लगते हैं कि हम ज्यादा समझदार हैं और सामने वाला बेबकूफ़,  यह एक मानवीय प्रवृत्ति है।

    होटल से समान लेकर फ़िर टैक्सी में चल दिये दादर रेल्वे स्टेशन, जहाँ से हमें लोकल ट्रेन से हमें मुंबई सेंट्रल जाना था और फ़िर वहाँ से बोईसर के लिये कोई पैसेन्जर ट्रेन मिलने वाली थी। दादर लोकल रेल्वे स्टेशन पहुँचे और वहाँ इतनी भीड़ देखकर दिमाग चकराने लगा, और लोकल में यात्रा करने का रोमांच भी था। सड़क के दोनों तरफ़ पटरियाँ लगी थीं और लोग अपना समान बेच रहे थे, भाव ताव कर रहे थे, शायद यहाँ बहुत कम दाम पर अच्छी चीजें मिल रही थीं।

    दादर स्टेशन के ओवर ब्रिज पर चढ़े तो हमने पूछा कि टिकिट तो लिया ही नहीं, तो वरिष्ठ दादर रेल्वे स्टेशन बोले कि टिकिट काऊँटर ब्रिज पर ही है, हमें घोर आश्चर्य हुआ, कि बताओ टिकिट काऊँटर ऊपर ब्रिज पर बनाने की क्या जरुरत थी, मुंबई में बहुत सी चीजॆं ऐसी मिलती हैं जो कि आपको आश्चर्य देती हैं। खैर अपना समान लेकर ऊपर ब्रिज पर पहुँचे तो देखा कि लंबी लाईन लगी हुई है, लोकल ट्रेन के टिकिट के लिये, और कम से कम २५ लोग तो होंगे, हमने वरिष्ठ को बोला कि अब क्या करें वो बोले कि कुछ नहीं लग जाओ लाईन में और टिकिट ले लो ३ मुंबई सेंट्रल के, हमने अपना संशय उनसे कहा कि इस लाईन में तो बहुत समय लग जायेगा कम से कम १ घंटे की लाईन तो है, (अब अपने को तो अपने उज्जैन रेल्वे स्टॆशन की टिकिट की लाईन का ही अनुभव था ना !!) तो वो बोले कि अरे नहीं अभी दस मिनिट में नंबर आ जायेगा। हम भी चुपचाप लाईन में लगे और घड़ी से समय देखने लगे तो देखा कि द्स मिनिट भी नहीं लगे मात्र ८ मिनिट में ही हमारा नंबर आ गया।

     टिकिट काऊँटर वाले की तेजी देखकर मन आनंद से भर गया और सोचने लगे कि काश ऐसे ही कर्मचारी हमारे उज्जैन में होते तो लाईन में घंटों न खड़ा होना पड़ता।

जारी..

मुंबई गाथा स्ट्राँग रूम और १० करोड़ नगद.. भाग ५ (Strong Room and Cash 10 Caror.. Mumbai Part 5)

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   थोड़ी ही देर में क्लाईंट के ऑफ़िस के सामने थे, जिसके यहाँ हमारी कंपनी का सॉफ़्टवेयर चलता था और भारत के हरेक हिस्से में वे लोग अपनी संपूर्ण प्रक्रिया को कंप्यूटरीकृत कर रहे थे, जिसमें हमारा काम था, उनका डाटा ठीक करना, माइग्रेशन करना और फ़िर अगर बैलेंस नहीं मिल रहे हैं तो बैलेंस मिलाना और सॉफ़्टवेयर उपयोग करने वाले कर्मचारियों को सिखाना।

    जब वहाँ अपने एक कक्ष में पहुँचे तो देखा कि पहले से ही वहाँ हमारी कंपनी के बहुत सारे लोग मौजूद हैं, जिसमें से कुछेक को पहचानते थे और कुछ का नाम सुना था, पर बहुत सारे चेहरे अनजाने थे, सबसे हमारा परिचय करवाया गया, लगा कि अभी तो जिंदगी में ऐसे ही पता नहीं कितने नये चेहरों से मिलना होगा, और उन चेहरों के साथ काम भी करना होगा। जिनमें बहुत सारे चेहरे दोस्त बनेंगे और कुछ से अपने संबंध ठीक से रहेंगे और कुछ से नहीं भी बनेगी।

    मेरी जिंदगी में यह एक नया अध्याय शुरु हो चुका था, जिसका अहसास संपूर्ण रुप से मुझे हो रहा था, जिंदगी कितनी करवटें बदलती है यह मैंने देखा है, परंतु यह मेरी जिंदगी की पहली करवट है यह मुझे पता चल रहा था।

    हमारे वरिष्ठ ने फ़िर पूरे स्टॉफ़ से परिचय करवाया और पूरी इमारत घुमाने लगे, हम सोचने लगे कि बताओ हम कहाँ गाँव में रहते थे, इसे कहते हैं शहर। ऐसे ही घूमते घूमते हम पहुँचे स्ट्राँग रूम, हमसे पूछा गया कि स्ट्राँग रूम का मतलब समझते हो, और इसका क्या उपयोग होता है, हमने स्ट्राँग रूम शब्द ही पहली बार सुना था और उसके बारे में पता भी नहीं था कि ये क्या चीज होती है। तब हमारे वरिष्ठ ने हमें बताया कि स्ट्राँग रूम उसे कहते हैं जहाँ कोई भी वित्तीय संस्थान अपनी नकदी और लॉकर्स रखता है, और इस स्ट्राँग रूम में सुरक्षाओं के कई स्तर होते हैं, जिससे यह सब चीजें सुरक्षित रहें। स्ट्राँग रूम की दीवारें पूरी तरह से सीमेंट कांक्रीट से बनी होती हैं, जिस सामग्री से सामान्यत: बीम और पिलर बनते हैं, जिससे स्ट्राँग रूम इतना मजबूत हो जाता है, और उस पर भी सुरक्षा के विभिन्न स्तर रहते हैं।

    हम स्ट्राँग रूम पहुँचे तो वहाँ का स्ट्राँग रूम बहुत ही बड़ा था, और वहाँ ढेर सारे रुपये थे, हमने अपनी जिंदगी में पहली बार इतनी नकदी एक साथ देखी थी, हमारे वरिष्ठ ने पूछा कि बताओ कितने रुपये होंगे, हम बोले कि अंदाजा नहीं लग रहा है, वे बोले ये कम से कम दस करोड़ रुपये हैं और यहाँ रोज दस से बारह करोड़ रुपयों का नकद में व्यवहार होता है। हम सबके चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित चमक थी कि आज हमने इतने सारे रुपये एक साथ देखे और हमारी जिंदगी का एक यादगार लमहा भी था।

    थोड़ी ही देर में हमारी कंपनी के डायरेक्टर आये तो वे बोले कि आप सब को अलग अलग जगह जाना है और हमारा सहयोग करना है, सबको क्लाईंट की शाखाएँ दे दी गईं। पूरा बॉम्बे जैसे मेरी नजरों के सामने ही था, नाम पुकारे जा रहे थे और सभी लोग अपने नाम आने का इंतजार करने के बाद अपने समूह में चले जाते और कब निकलना है और कैसे काम करना है, उस पर चर्चा करने लगते, यह सब चीजें हमारे लिये बिल्कुल नई थीं, पर हम हरेक चीज का मजा ले रहे थे और समझने की कोशिश कर रहे थे। फ़िर एक एक समूह डायरेक्टर के पास जाता और उनसे मंत्रणा करने के बाद, सबको मिलकर निकल जाता।

    इतनी दूर परदेस से आये इतने सारे लोग अपनी जिंदगी की शुरुआत दूर देस बॉम्बे में कर रहे थे, हम भी उनमें से एक थे, ऐसे ही पता नहीं कितने लोग अपने रंगीन सपने लिये बॉम्बे आ चुके होंगे और आज भी आ रहे हैं, मुंबई नगरी में है ही इतना आकर्षण, कि सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेती है और अपनी संस्कृति में समाहित कर लेती है।

जारी…

मुंबई गाथा.. भाग ४ होटल में (In Hotel.. Mumbai Part 4)

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    शिवाजी पार्क दादर से गुजरते हुए बहुत ठंडी और ताजगी भरी हवा का अहसास हुआ, तो लगा कि पास ही कहीं समुंदर है, जो कि बहुत ही पास था दादर चौपाटी। शिवाजी पार्क से थोड़ा आगे जाते ही हमारा होटल था, जहाँ हमें ठहरना था। जब टैक्सी रुकी तो एकदम होटल से लड़के आये और हमारा समान हमारे कमरे में ले जाने लगे।

    उस होटल में कमरे बहुत ही कम खाली थे और पहले ही वहाँ बहुत सारे नये नियुक्ति वाले लोग आ चुके थे, तो हमारे वरिष्ठ ने कहा कि अभी और कोई कमरा खाली नहीं है, चलो मेरे कमरे में, पर हाल देखकर डरना मत, क्योंकि कम से कम १०-१२ लोग सो रहे होंगे और सुबह आठ बजते ही सब अपने अपने काम पर निकल लेंगे, उस समय प्रात: ६.३० बज रहे थे। हम कमरे में गये तो सुनकर पहले ही मन बना चुके थे पर देखकर कसमसाहट हो रही थी कि कहाँ फ़ँस गये, क्या और कोई होटल नहीं हो सकता था, और भी बहुत कुछ, तभी वरिष्ठ बोले कि अपना समान जहाँ जगह दिखती है वहाँ रखो और बिस्तर पर जगह बनाकर पसर लो, मैं तुम लोगों को लेने के लिये १० बजे आऊँगा तब तक तुम लोग नाश्ता करके तैयार रहना। और नाश्ता होटल की तरफ़ से है, तो अच्छे से दबाकर नाश्ता कर लेना।

    हमारा ध्यान सबसे पहले खिड़्की की ओर गया, खिड़की के बाहर दादर की मेन रोड थी और गाड़ीयाँ अपनी पूरी रफ़्तार से भागी जा रही थीं, सुबह का मौसम और समय बहुत सुकून देता है, शरीर में ताजगी और स्फ़ूर्ती भर देता है।

    हम लोगों ने भी बिस्तर पर थोड़ी थोड़ी जगह की और लेट गये क्योंकि फ़िर दिनभर आराम नहीं मिलने वाला था। पता नहीं कब झपकी लगी और जो साथी लोग सो रहे थे, तैयार होकर नाश्ता कर मुंबई की जिंदगी में विलीन होने लगे। थोड़े समय बाद हमें भी इस मुंबई में विलीन हो जाना था। थोड़ी ही देर में फ़िर हम केवल उतने दोस्त ही बचे जो उज्जैन से आये थे और हम लोग भी तैयार होने लगे, तैयार होकर फ़िर फ़ोन किया कि नाश्ता भेजिये। कॉन्टीनेन्टल नाश्ता था, अच्छे से दबाकर खाया। मुंबई का पहला दिन था और घर के बाहर भी, और नौकरी का भी पहला दिन था, मन में अजब सा उत्साह था, और गजब की स्फ़ूर्ती थी।

    हम लोग इसी उत्साह और स्फ़ूर्ती में जल्दी तैयार हो गये, और वरिष्ठ का इंतजार करने लगे, वे बिल्कुल १० बजे आये और हम लोगों को टैक्सी में साथ लेकर ऑफ़िस की ओर ले जाने लगे। वे बोले कि वैसे तो १० मिनिट चलकर भी जा सकते थे परंतु तुम सब लोग नये हो और मुंबई के अभ्यस्त नहीं हो इसलिये टैक्सी से ही चल रहे हैं।

जारी..

मुंबई गाथा.. भाग ३ ये है बॉम्बे मेरी जान (Bombay meri jaan.. Mumbai Part 3)

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टैक्सी मुंबई  जैसे ही बांद्रा में टैक्सी में बैठे तो टैक्सी ड्राईवर ने हमारा समान जितना डिक्की में आ सकता था उतना डिक्की में रखा और बाकी का ऊपर छत पर स्टैंड पर रखकर रस्सी से बांध दिया। हम लोग २ टैक्सी में थे और टैक्सी में अपनी जगहों पर विराजमान हो चुके थे। फ़िर ड्राईवर ने चलने से पहले टैक्सी का मीटर डाऊन किया, तो टन्न करके आवाज आई, ये आवाज भी जानी पहचानी लगी सब फ़िल्मों का कमाल था, कि अनजाने शहर में बहुत सी चीजें अपनी और जानी पहचानी सी लग रही थीं।

बांद्रा स्टेशन से बाहर निकले तो हमारे वरिष्ठ हमारे बिना बोले हमारी सारी जिज्ञासाओं को शांत कर रहे थे, मानो उन्होंने हमारे मन की बात पढ़ ली हो, कि हम मुंबई के बारे में जानने को उत्सुक हैं। हमारे वरिष्ठ भी इंदौर से ही थे पर वे मुंबई में लगभग २ वर्ष पहले से थे, और मुंबई के बारे में बहुत अच्छा जान चुके थे।

बांद्रा स्टेशन से बाहर निकलते ही झुग्गी झोपड़ियाँ दिख रही थीं, वे बोले कि यह स्लम एरिया है और अभी के दंगों से यह बहुत प्रभावित हुआ था, अब तो फ़िर भी ठीक लग रहा है। यहाँ स्लम में भी जिंदगी बहुत जद्दोजहद की होती है, इन लोगों को जीने के लिये बहुत संघर्ष करने पड़ते हैं। फ़िर मुंबई की सड़कें शुरु हो गईं, हमारे वरिष्ठ बता रहे थे परंतु पहली बार किसी भी शहर में जाओ, सब एकदम नया सा लगता है और एक बार में रास्ते याद भी नहीं होते। मुंबई की कोलतार से लिपटी सड़कों को देखते जा रहे थे, इतनी ऊँची ऊँची इमारतें पहली बार देख रहे थे, ऐसा लग रहा था मानो कि सच में नहीं हम मुंबई का आभासी चलचित्र देख रहे हों और अनुभव कर रहे हों, क्योंकि दिल अभी भी मानने को तैयार ही नहीं था कि अब हम मुंबई में हैं।

शिवाजी पार्क दादर     टैक्सी दादर शिवाजी पार्क की ओर दौड़ी जा रही थी, वहीं हमारा होटल था, हमारे वरिष्ठ बोले कि ये वही शिवाजी पार्क है जहाँ सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली खेला करते थे और अब भी कभी कभी खेलने आते हैं। हम तो बिल्कुल सपने में ही पहुँच गये कि वाह एक तो इतने सारे फ़िल्मी सितारे यहाँ रहते हैं और इतने बड़े बड़े खिलाड़ी भी यहाँ रहते हैं, मुंबई का ह्रदय कितना बड़ा है। मन में इच्छा हो रही थी कि अभी दौड़कर जाऊँ और शिवाजी पार्क में किसी नेट में ढूँढ़कर आऊँ कि शायद कहीं हमारे ये महान खिलाड़ी अभ्यास कर रहे हों।

दादर चौपाटी     शिवाजी पार्क के दूसरी तरफ़ दादर चौपाटी है, हमें पता नहीं था कि दादर चौपाटी क्या है बस हमें इतना बताया गया कि समुंदर का एक किनारा है, क्योंकि हमें तो यह पता था कि चौपाटी दो ही हैं, एक जूहु चौपाटी और गिरगाँव चौपाटी। हमें बताया गया कि शाम के समय दादर चौपाटी थोड़ा संभलकर जाना क्योंकि लहरें तेज होती हैं, पता नहीं कितना सच था, क्योंकि हम दादर चौपाटी जा ही नहीं पाये।

मन में गाना चल रहा था “ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ, जरा बचके जरा हटके ये है बॉम्बे मेरी जान”, इस गाने को ध्यान से सुनियेगा इसमें बॉम्बे की एक एक खूबी को अच्छे से सम्मिलित किया गया है, जो लोग बम्बई में रहते हैं और जो रह चुके हैं या आ चुके हैं, वे इसे अच्छी तरह से समझेंगे।

जारी..

मुंबई गाथा.. भाग २ मायानगरी मुंबई में .. (Mayanagari Mumbai.. Mumbai Part 2)

    हमारे वरिष्ठ जो हमें लेने आने वाले थे, न हमने उनको देखा था और न ही उन्होंने हमें देखा था, और फ़िर ट्रेन का समय भी बहुत सुबह का था, तड़के ५.३० बजे तो हम भी समझ सकते हैं कि शायद उठने में देरी हो सकती है, मुंबई में वैसे भी एक जगह से दूसरी जगह जाने में बहुत समय लग जाता है।
    ट्रेन बांद्रा पहुँच चुकी थी और लगभग सारे यात्री प्लेटफ़ॉर्म से चले गये थे, हम सभी अपने डिब्बे के पास ही अपना समान प्लेटफ़ॉर्म पर रखकर इंतजार करने लगे, समय बीतता जा रहा था और हम लोगों की चिंता बड़ती ही जा रही थी। जाते जाते हमारे सहयात्री यह भी बोल गये थे कि कम से कम कहाँ जाना है वह पता तो लिया होता। हमें भी अपनी गलती का अहसास हुआ, पर अब क्या कर सकते थे, हम लोगों ने सोच लिया था कि अगर थोड़ी देर और नहीं आते हैं तो एस.टी.डी. से सीधे कंपनी के उसी व्यक्ति से बात करेंगे जिन्होंने हमें नियुक्ती दी थी।
फ़्लॉपी     थोड़ी ही देर में एक लंबा सा व्यक्ति, किसी को ढूँढ़ता हुआ सा लगा जो कि उसी समय प्लेटफ़ॉर्म पर प्रविष्ट हुआ था, और उनके हाथ में १.२ एम.बी. की फ़्लॉपी का डिब्बा था तो हमें लगा कि यह क्म्पयूटर/ सॉफ़्टवेयर से संबंधित ही कोई लगता है, हमने उनको कंपनी का नाम बोलकर पूछा तो वे मुस्करा दिये और बोले कि हाँ मैं आप लोगों को ही लेने आया हूँ। फ़िर वे बोले मैं इसीलिये १.२” फ़्लॉपी बॉक्स लाया क्योंकि इससे तुम लोग आसानी से पहचान पाते। और उन्होंने कहा कि “मुंबई में आपका स्वागत है”। हम खुश थे कि चलो आखिरकार सारे अंदेशे गलत निकले।
    हमने उनको कहा कि हमें लगा कि शायद हमसे गलती हो गई कि हम मुंबई का पता लेकर नहीं आये तो वे बोले अरे चिंता मत करो अब तुम आ गये हो, और हम तुम्हारे साथ हैं, अब यहाँ से सीधा होटल चलना है। फ़िर तैयार होकर १० बजे तक ऑफ़िस चलना है, हम बहुत सारे लोग होटल पर हैं और जल्दी चले जायेंगे, मैं तुम लोगों को लेने वापिस होटल पर आऊँगा तब तक हमारे सर भी आ जायेंगे, और कहाँ कैसे काम करना है वह भी बता देंगे।
    बांद्रा स्टेशन के बाहर निकले तो टैक्सी से हमें जाना था, वही टैक्सी जिसे आजतक रुपहले पर्दे पर देखते आ रहे थे, और आज वह हमारे सामने थी और हम उसमें बैठने का आनंद लेने वाले थे, कितनी ही फ़िल्मों में टैक्सी देखी थी, फ़िल्मों की बदौलत सब जाना पहचाना लग रहा था,  जो जीवन हम अभी तक रुपहले पर्दे पर देखते थे, हम उस जीवन का हिस्सा बनने जा रहे थे।
    टैक्सी, ऑटो, बेस्ट की बसें, डबल डॆकर बसें देखकर तो बस मन प्रफ़ुल्लित हो रहा था, सब सपने जैसा लग रहा था कि जैसे हम रुपहले पर्दे में घुस गये हों और सारी दुनिया हमें देख रही है।
जारी…

मुंबई गाथा.. भाग १ पहली बार मुंबई में .. (First time in Mumbai.. Mumbai Part 1)

    मुंबई मायानगरी है, बचपन से मुंबई के किस्से सुनते आ रहे थे, मुंबई ये है मुंबई वो है, वहाँ फ़िल्में बनती हैं, कुल मिलाकर बचपन की बातों ने जो छाप मन पर छोड़ी थी, उससे मुंबई को जानने की और जाने की उत्कंठा बहुत ही बड़ गयी थी।

उज्जैन रेल्वे स्टेशन     पहली बार मुंबई नौकरी के लिये ही सन १९९६ में आया था, फ़िल्मों में केवल नाम सुने थे, बांद्रा, अंधेरी, दादर, महालक्ष्मी, लोअरपरेल, मुंबई सेंट्रल, प्रभादेवी इत्यादि और मायानगरी में पहुँचकर तो बस जैसे हमारे पैर जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे, जब १९९६ में आये थे तब उज्जैन से अवन्तिका एक्सप्रैस से बांद्रा उतरे थे, हम बहुत सारे दोस्त एक साथ मुंबई आ रहे थे सबके मम्मी पापा ट्रेन पर छोड़ने आये थे और सब समझाईश दे रहे थे, समझदारी से काम लेना बहुत बड़ी जगह है, और भी बहुत सारे निर्देश जो कि अमूमन अभिभावकों द्वारा दिये जाते हैं। उस समय जिस कंपनी ने हमें नियुक्ती दी थी उसके बारे में ज्यादा पता नहीं था परंतु हाँ हमारे कुछ और दोस्त पहले से ही उस कंपनी में कार्य कर रहे थे।

    हमारे मन में भी गजब हलचल थी पहली बार मायानगरी मुंबई जो जा रहे थे, पहली बार जीवन में दरिया याने कि समुंदर के किनारे वाली नगरी में जो  जा रहे थे। हमारी मुंबई जाने की खुशी छिपाये नहीं छिप रही थी, हम बहुत खुश थे, और अपने पालकों द्वारा निर्देशित किये जा चुके थे, ट्रेन उज्जैन से रवाना हुई, उस समय ट्रेन बांद्रा तक आती थी, अब मुंबई सेंट्रल जाती है।
    ट्रेन में कुछ और सहयात्रियों से बातें हुईं, तो हमें थोड़ा सावधानी बरतने की सलाह दी गई कि मुंबई में तो लोग ऐसे ही बुलाते हैं फ़िर हाथ में घोड़ा देकर कहते हैं कि जाओ उसका गेम बजा दो और बस मुंबई में ऐसे ही चलता है। ये सब सुनकर हमारे सबके मन में थोड़ा भय भी घर कर गया था, परंतु हम इतने सारे दोस्त थे इसलिये हिम्मत बंधी हुई थी, और हम सबने आपस में तय भी कर लिया था कि अगर कुछ भी गड़बड़ लगी तो वापिस से आरक्षण करवाकर तुरंत वापसी उज्जैन कर लेंगे।

बांद्रा रेल्वे स्टेशन      हमारे एक वरिष्ठ जो कि पहले से ही मुंबई में थे, वे लेने आयेंगे यह पहले से ही तय था, सबसे बड़ी समस्या थी कि पहचानेंगे कैसे, हमने तय किया कि चाक से ट्रेन के डिब्बे पर नाम लिख देंगे अगर कोई हमें लेने आया और पहचान नहीं पाया,  मोबाईल फ़ोन तो थे नहीं कि झट से पूछ लिया कि हम यहाँ खड़े हैं…

(वैसे हमारे वरिष्ठ जब हमें लेने आये तो हम एक बार में ही पहचान गये बताईये कैसे पहचाना होगा… वे ऐसी क्या चीज साथ में लाये होंगे… कंपनी के नाम की नामपट्टिका नहीं थी..)
 
 

१ रुपये की ओवर बिलिंग याने कि बेस्ट को कितना फ़ायदा ? (The profit of BEST by 1 Rupee over billing)

    आज किसी काम से बाहर गया था, तो बस नंबर २०४ से देना बैंक, कांदिवली से डीमार्ट कांदिवली तक का हमने टिकिट लिया, मास्टर को भी टिकिट कितने का है पता नहीं था, उसने अपना चार्ट देखा और ७ रुपये का टिकिट पकड़ा दिया। हमने भी छुट्टे ७ रुपये दे दिये।
    जगह खाली हुई तो हम सीट पर ठस लिये, फ़िर मास्टर पीछे से चिल्लाते हुए आया किसने टिकिट नहीं लिया है, हमारे आगे की सीट वाला १० का नोट दिखाते हुए बोला, हमें एक टिकिट दीजिये कांदिवली स्टेशन से राजन पाड़ा, मास्टर ने ३ रुपये वापिस दिये तो वह व्यक्ति बोला कि ६ रुपये लगते हैं, मास्टर ने फ़िर से अपने चार्ट में देखा और चुपचाप १ रुपया वापिस कर दिया और ६ रुपये का टिकिट दे दिया। जबकि उस व्यक्ति की यात्रा हमसे ज्यादा बस स्टॉपों की थी, पर हम फ़िर भी चुपचाप रहे कि छोड़ो १ रुपये में क्या होता है, फ़ालतू चिकचिक होगी और दिमाग का भाजीपाला होएंगा।
    हम तो उस व्यक्ति को जागरुक उपभोक्ता ही कहेंगे कि उसने अपना १ रुपया बचाया और चूँकि हमें इस रुट का पता ही नहीं था, इसलिये उसने हमसे १ रुपया ज्यादा ले लिया, पर बेस्ट की बसों में ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं कि आप अपना किराया जान सकें, जैसे कि रेल्वे स्टेशन पर पूरा चार्ट लगा होता है, यात्री किराये की राशि देख सकता है।
    भले ही वह १ रुपया उस मास्टर की जेब में नहीं जा रहा हो, परंतु बेस्ट की जेब में तो जा ही रहा था। ऐसा कई बार होता है जब नया मास्टर नये रुट की बस में चलता है, परंतु इस सबमें यात्री की क्या गलती है। अगर मास्टर नया है तो पहले उसे प्रशिक्षण देना चाहिये तभी बस के नये रुट में भेजना चाहिये, नहीं तो ऐसे ही नये मास्टर लोगों की जेब से १ रुपया ज्यादा निकालते रहेंगे और बेस्ट को फ़ायदा होता रहेगा।