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दिव्य-नदी शिप्रा (Divine River Kshipra Ujjain)

    अपनी प्राचीनतम, पवित्रता एवं पापनाशकता आदि के कारण प्रसिद्ध उज्जयिनी की प्रमुख नदी शिप्रा सदा स्मरणीय है। यजुर्वेद में शिप्रे अवेः पयः पद के द्वारा इस नदी के स्मरण हुआ है। निरूक्त में शिप्रा कस्मात ? इस प्रश्न को उपस्थित करके उत्तर दिया गया है कि शिवेन पातितं यद रक्तं तत्प्रभवति, तस्मात। अर्थात शिप्रा क्यों कही जाती है इसका उत्तर था शिवजी के द्वारा जो रक्त गिराया वही यहाँ अपना प्रभाव दिखला रहा है नदी के रूप में बह रहा है, अतः यह शिप्रा है।
    शिप्रा और सिप्रा ये दोनों नाम अग्रिम ग्रन्थों में प्रयुक्त हुए हैं। इनकी व्युत्पत्तियाँ भी क्रमशः इस प्रकार प्रस्तुत हुई है – ‘शिवं प्रापयतीति शिप्रा और सिद्धिं प्राति पूरयतीत सिप्रा और कोशकारों ने सिप्रा को अर्थ करधनी भी किया। तदनुसार यह नदी उज्जयिनी के तीन ओर से बहने के कारण करधनीरूप मानकर भी सिप्रा नाम से मण्डित हुई। उन दोनों नामों को साथ इसे क्षिप्रा भी कहा जाता है। यह उसके जल प्रवाह की द्रुतगति से सम्बद्ध प्रतीत होता है। स्कन्दपुराण में शिप्रा नदी का बड़ा माहात्म्य बतलाया है। यथा
नास्ति वत्स ! महीपृष्ठे शिप्रायाः सदृशी नदी।
यस्यास्तीरे क्षणान्मुक्तिः कच्चिदासेवितेन वै।।
    हे वत्स ! इस भू-मण्डल पर शिप्रा के समान अन्य नदी नहीं है। क्योंकि जिसके तीर पर कुछ समय रहने से, तथा स्मरण, स्नानदानादि करने से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है।
    वहीं शिप्रा का उत्पत्ति के सम्बन्ध में कथा भी वर्णित है, जिसमें कहा गया है कि विष्णु की अँगुली को शिव के द्वारा
काटने पर उसका रक्त गिरकर बहने से यह नदी के रूप में प्रवाहित हुई। इसीलिये विष्णु-देहात समुत्पन्ने शिप्रे
! त्वं पापनाशिनी इत्यादि पदों से शिप्रा की स्तुती की गई है। वहीं अन्य प्रसड़्ग से शिप्रा को गड़्गा भी कहा गया है। पञचगङ्गाओं में एक गङ्गा शिप्रा भी मान्य हुई है। अवन्तिका को विष्णु का पद कमल भी कहना नितान्त उचित है। कालिकापुराण में शिप्रा की उत्पत्ति – मेधातिथि द्वारा अपनी कन्या अरून्धती के विवाह-संस्कार के समय महर्षि वसिष्ठ को कन्यादान का सङ्कल्पार्पण करने के लिये शिप्रासर का जो जल लिया गया था, उसी के गिरने से शिप्रा नदी बह निकली बतलाई है। शिप्रा का अतिपुण्यमय क्षेत्र भी पुराणों में दिखाया है
    वर्तमान स्थिति के अनुसार शिप्रा का उद्गम म.प्र. के महू नगर से 11 मील दूर स्थित एक पहाड़ी से हुआ है और यह मालवा में 120 मील की यात्रा करती हुई चम्बल (चर्मण्वती) में मिल जाती है। इसका सङ्गम-स्थल आज सिपावरा  के नाम से जाना जाता है, जो कि सीतामऊ (जिला मन्दसौर) और आलोट के ठीक 10-10 मील के मध्य में है। वहाँ शिप्रा अपने प्रवाह की
विपुलता से चम्बल में मिलने की आतुरता और उल्लास को सहज ही प्रकट करती है।
    उज्जयिनी शिप्रा के उत्तरवाहिनी होने पर पूर्वीतट पर बसी है। यहीं ओखलेश्वर से मंगलनाथ तक पूर्ववाहिनी है। अतः सिद्धवट और त्रिवेणी में भी स्नान-दानादि करने का माहात्म्य है।

भाग–९ अपनी पहचान के लिये वेदाध्ययन (Study Veda for your own identity)

    भारतीय परम्परा में ज्ञान का मुख्यत: अभिप्राय है स्वयं को ही जानना-पहचानना और आत्मज्ञान ही है सर्वोच्च ज्ञान। ऋषि याज्ञवल्क्य अपने उपदेश पर आत्मज्ञान पर बल देते हैं।
आत्मा वा अरे द्रष्टव्य:
    अपनी आत्मा ही देखने योग्य है जो परमात्मा से भिन्न नहीं है और इस एक तत्व को जान लेने से सब कुछ स्वत: जाना गया हो जाता है।
तस्मिन विज्ञाते सर्वं विज्ञातं भवति
    (तस्मिन) उस एक परमतत्व के (विज्ञाते) जान लेने पर (सर्वं) सब कुछ (विज्ञातं) जाना गया (भवति) हो जाता है। कुछ भी जानने के लिये शेष नहीं रह जाता । इस तरह वेद अमरत्व का बोध कराते हैं। यही एकत्व का ज्ञान सभी को विद्वेषभावरहित बना कर स्नेहसूत्र में जोड़ने वाला है। सभी में सम्प्रीति सहयोग का भाव होगा और अपने-अपने कार्यों को करते हुए सभी सुखी रहेंगे।
    वैदिक ऋषियों का यह अध्यात्म-ज्ञान विश्व मानवता के कल्याण हेतु अनुपम महनीय योगदान है। इसीलिए समष्टिगत कल्याण हेतु सम्पूर्ण मानव समाज की रक्षा हेतु सभी के लिए वेदों का अध्ययन परमावश्यक है। इस दृष्टि से वेद आज और भी अधिक उपयोगी एवं प्रासंगिक हैं।

भाग-८ वेदाध्ययन में सभी का अधिकार (Learning Veda right for all)

    ऋषियों द्वारा साक्षात्कृत अनुपम ज्ञानराशि वेदों की उपयोगिता सार्वकालिक सार्वदेशिक सार्वजनीन है। ऋषियों ने बिना किसी भेद-भाव के समान रूप से वेदों का उपदेश सभी के लिए किया है। मानव मात्र का कल्याण करना समाष्टिहित ही उनका प्रयोजन था। एक ही परमात्मा की सन्तानें होने के कारण सभी मनुष्य मूलत: समान हैं। ऋषि का सुस्पष्ट कथन है –
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय
    (यथा) जिस प्रकार (मैं) (इमां कल्याणीं) इस कल्याण करने वाली (वाचं) वाणी को (जनेभ्य: ) मनुष्यों के लिये (आवदानि) बोलता हूँ उस वाणी को उसी प्रकार मैं (ब्रह्मराजन्याभ्यां) ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिये (च शूद्राय) और शुद्र के लिये ( च अर्याय) और श्रेष्ठ स्वामी वैश्य के लिये (च स्वाय) अपने स्थान पर रहने वाले गृहस्थ के लिये (च अरणाय) और भ्रमण करने वाले परिव्राजक संन्यासी के लिये भी कहता हूँ।

यहाँ पर ऋषि ने कल्याणकारी उपदेश समान रूप से सभी के लिये दिया है। मनुष्यों में जो वर्णभेद है वह कर्मों के कारण है। सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से है। इसलिए वेदों के अध्ययन में जाति-वर्णगत, लिंगगत कोई भेद नहीं है। इसका तो प्रत्यक्ष प्रमाण वागाम्भृणी, काक्षीवती घोषा, अपाला, गार्गी इत्यादि ऋषिकाएँ एवं ब्रहमवादिनियाँ हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के ऋषि रूप में इतरा दासी के पुत्र महिदास ऐतरेय प्रसिद्ध हैं। वेदों की यहा समन्वयात्मक दृष्टि सर्वथा अनुकरणीय एवं प्रेरणास्पद है।

भाग–७ वेदों में पर्यावरण चेतना (Environmental consciousness in Vedas)

    हमारे वैदिक ऋषि मनीषी पर्यावरण रक्षण के प्रति बहुत ही जागरूक सावधान रहे हैं। पर्यावरण रक्षण का अभिप्राय ही है स्वयं की रक्षा। अत: स्वकीय रक्षाहेतु यह पर्यावरण रक्षणीय है, इसी दृष्टि से उन्होंने प्रकृति की दैवतभाव से उपासना की। सहज रूप से कल्याणकारिणी वरदायिनी यह प्रकृति पूजा के योग्य है, इसको नियन्त्रित, वश में नहीं करना है, इसके सन्तुलन को बाधित नहीं करना है। उपासना से यह इच्छित फ़ल प्रदान करने वाली है।
 
एक ही परम तत्व सर्वत्र ओतप्रोत है – सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुष्श्च
    (जगत: ) जंगम-गमनशिल चेतन (च) और (तस्थुष: ) स्थावर अचेतन की (आत्मा सूर्य: ) आत्मा सूर्य है अर्थात सूर्यरूपी परमात्मा सभी चेतन और अचेतन पदार्थों में परिव्याप्त है, उससे बाहर कुछ भी नहीं है। सब कुछ परमात्मस्वरूप होने से केवल मनुष्यों की नहीं, अपितु पशु-पक्षियों, लता-वनस्पतियों सभी की रक्षा हो जाती है और एक सुखमय आह्लादमय रहने योग्य संसार बन जात्ता है। ऋषियों ने इसी दृष्टि से नदी, अश्मा, वनस्पतियों की भी दैवतभाव से प्रार्थना की है।
    भौतिक प्राकृतिक पर्यावरण रक्षण के साथ ही ऋषियों ने आन्तरिक पर्यावरण स्वच्छता पर, उदात्त जीवन मूल्यों के रक्षण पर बल दिया है और इस तरह वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण की विश्व व्यापी गम्भीर विषम समस्या का समाधान वेदों से प्राप्त हो जाता है –
‘अग्निमीळे पुरोहितम’
    (पुरोहितम अग्निम) पुरोहित अग्नि की (ईळे) में प्रार्थना करता हूँ।

वैदिक ऋषिक में यह अग्नि केवल पाचक दाहक प्रकाशक ही नहीं, अपितु यह सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी अग्रगामी नेतृत्व करने वाला सर्वाधिक रमणीय धनों को देने वाला है। अत:  जातवेदस वैश्वानर पुरोहित देव इत्यादि रूप में यह अग्नि प्रार्थनीय है।

भाग–६ वेदों में देश-प्रेम राष्ट्रीय चेतना (Patriotism and Cosmopolitanism in Vedas)

    देशप्रेम राष्ट्रीयता की उदात्त शिक्षा वेद प्रदान करते हैं। मनुष्यों में राष्ट्रीय चेतना जागरित करने वाले अनेक मन्त्र हैं –
माता भूमि: पुत्रोsहं पृथिव्या: । अथर्ववेद १२.१.१२
    (भूमि: ) भुमि हमारी माता है। (अहं ) मैं (पृथिव्या: ) पृथिवी का पुत्र हूँ।
नमो मात्रे पृथिव्यै । यजुर्वेद ९.२२
    (मात्रे पृथिव्यै) माता पृथिवी को (नम: ) नमस्कार है। वेदों के इन वचनों से मातृभूमि के प्रति आत्मीय भावना होती है और इस पर रहने वाले हम सभी बहन-भाई हैं। अत: हम सभी को परस्पर मेल-मिलाप से रहना चाहिये। परस्पर एक दूसरे के हित का ध्यान रखना चाहिये।

विश्वबन्धुत्व की भावना –

विश्वमानुष, बन्धुत्व, भाईचारा का उदात्त पाठ हमें वेद पढ़ाता है।
यत्र विश्वं भवत्येकनीडम
(यत्र) जहाँ पर (विश्वं) सम्पूर्ण संसार (एकनीडम) एक घोसला (भवति) हो जाता है।
    ईशावास्यमिदं सर्वम (इदं सर्वम) यह सबकुछ (ईशावास्यम) ईश्वर परमात्मा से परिव्याप्त है। पुरुष एवेदं सर्वम (इदं सर्वम) यह सब कुछ (पुरुष:एव) परमपुरुष परमात्मा ही है।
    सर्वं खल्विदं ब्रह्मा (इदं सर्वम) यह सम्पूर्ण जगत (खलु) निश्चित रूप से ब्रह्मा ही है इत्यादि रूप से सम्पूर्ण विश्व एक परिवार है।
    वसुधैव कुटुम्बकम जैसी उदात्त भावना जागरित करने में वेदों का ही योगदान है और इसी का फ़ल है सर्वकल्याण समष्टि का हित – सर्वे भवन्तु सुखिन: – सभी सुखी होवें।
    संकुचित क्षुद्र स्वार्थ भावना से ऊपर उठकर सर्वहित प्रेरणा वेदों से मिलती है। वेद सर्वहित सम्पादक महौषधि हैं।
    इस तरह वेद समस्त मानवता को एक सूत्र में संग्रठित करते हैं और सकल विश्व के लिये वेदों का यह अनुपम योगदान है।

भाग–५ वेदों की पारिवारिक / सामाजिक जीवन दृष्टि (Social and Family vision in Vedas)

    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह एकाकी, अकेले नहीं, अपितु परिवार में, समाज में रहता है और सुखमय जीवनयापन करना मनुषय की सहज स्वाभाविक अभिलाषा होती है। एतदर्थ वेदों में पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्था का बहुत ही सुन्दर चित्रण किया गया है । सुख समृद्धि की प्राप्ति हेतु ही ऋषियों ने ४ प्रत्यक्ष देवों को प्रस्तुत किया है। देव का अभिप्राय ही है जिनसे हमें वांछित फ़ल की प्राप्ति होती है । देवों दानात दान, इच्छित फ़ल प्रदान करने के कारण ही देव कहलाते हैं। प्रत्यक्ष देवता ४ हैं –
१. माता २. पिता ३.आचार्य ४.अतिथि
मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव अतिथिदेवो भव
    तैत्तिरीयोपनिषद शिक्षावल्ली में विद्याध्ययन की सम्पूर्ति पर गुरुकुल से घर जाने वाले छात्रों को दिया गया यह उपदेश सभी मनुष्यों को इन प्रत्यक्ष देवों की सेवा सुश्रूषा के लिए प्रेरित कर रहा है। पारिवारिक-सामाजिक बन्धन को सुदृढ़ एवं प्रगाढ़ कर रहा है। इनकी सेवा करने से निश्चित रूप से अभीष्ट की सिद्धि होती है।
    सच्चा सुख तो वास्तव में परिवार में है। अकेले रहने में कोई सुख नहीं है। इसलिये भगवती वेद श्रुति कहती है कि प्रारम्भ में वह परमात्मा अकेला था, उसे कुछ अच्छा नहीं लगा –
एकाकी स न रेमे
    और पुन: उसने संकल्प किया कि मैं अकेला हूँ, बहुत हो जाऊँ, प्रजाओं की सृष्टि करूँ –
एकोsहं बहु स्याम, प्रजायेय
    इस तरह उस एक परमात्मा ने आत्मरमणार्थ, क्रीड़ा के लिए नामरूपात्मिका इस सृष्टि की रचना की। सृष्टि की रचना करके वह परमात्मा इसमें प्रवेश कर गया, इसलिए सच्चिदानंद परमात्मा से उद्भूत यह सृष्टि आनन्दबहुला है –
तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत
    (वह परमात्मा) (तत सृष्टवा) उस जगत की रचना करके (तद एवं अनुप्र-अविशत) उसी में प्रवेश कर गया। सर्वं खल्विदं, ब्रह्म (इदं सर्वं) यह सब कुछ (खलु) निश्चित रूप से (ब्रह्म) ब्रह्म है। इसका यही अभिप्राय है कि सच्चा सुख जो प्रत्येक मनुष्य को अभीष्ट है, परिवार में है और वेद पारिवारिक व्यवस्था का बहुत ही सुन्दर वर्णन प्रस्तुत करते हैं। परिवार के सभी सदस्यों में परस्पर सौहार्द सौमनस्य सहयोग का भाव होवे, प्रेमपूर्वक मधुर वाणी बोलते हुए मिलजुल कर एक साथ रहने की, एक साथ चलने की, मिल कर कार्य करने की बात वेदों में कही गयी है। सभी का खाना-पीना एक साथ होवे, आपस में द्वेष-अलगाव की भावना न होवे और इस प्रकार अभीष्ट लक्ष्य को सिद्ध करने के लिये प्रेरित किया गया है।
    माता-पिता, पत्नी, भाई-बहनों को परस्पर व्यवहार की विधि-रीति को वेद बतलाता है।
अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:।
जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम॥ अथर्ववेद
३.३०.२
    (पुत्र: ) पुत्र (पितु: ) पिता के (अनुव्रत: ) अनुकूल आचरण वाला (भवतु) होवे। (मात्रा) माता (संमना: ) सभी सन्तानों के प्रति समान मन-स्नेह वाली (भवति) होवे (जाया) पत्नी (पत्ये) पति के प्रति (मधुमतीं) मधुर-मीठी (शान्तिवाम) शान्ति सुख प्रदान करने वाली (वाचं) वाणी (वदतु) बोले।
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा
    (भ्राता) एक भाई (भ्रातारं) दूसरे भाई से (मा द्विक्षत) द्वेष ना करे। (उत) और (स्वसा) एक बहन (स्वसारम) दूसरी बहन से द्वेष ना करे।     यहाँ पर वेद पारिवारिक सुख-शान्ति और समृद्धि के लिए एक सद्व्यवहार की प्रेरणा दे रहा है। यह सर्वथा सार्थक है। पुत्र के लिये आवश्यक है कि वह अपने पिता के विचारों को जानकर तदानुसार कार्य करे, वह आज्ञाकारी होवे। माता ममता स्नेह की मूर्ति होती है, उसकी गोद को पहली पाठशाला कहा गया है। सभी सन्तानों के प्रति उसका स्नेह वात्सल्य होना चाहिए। वेद ने पत्नी को ही घर कहा है।
    जायेदस्तम (जाया) पत्नी (इत) ही (अस्तम) घर है।  इसलिए घर की समृद्धि में पत्नी का विशेष उत्तरदायित्व है। गृहस्वामी पति की वह अपनी प्रिय मधुर वाणी से थकावट दूर करे। इसी प्रकार भाई-बहन सभी आपस में मिल-जुल कर रहें और अपने निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करते हुए परिवार को सुखी बनावें।
    इसी प्रकार सामाजिक एकता समरसता सह-अस्तित्व पर वेद बल देता है।
समानी प्रपा सह वोsन्नभाग: – अथर्ववेद ३.३०.६
    हे मनुष्यों (व: ) आप सभी की (प्रपा) पानीयशाला (समानी) समान-एक होवे। (अन्नभाग: ) अन्न का भाग वितरण समान होवे।
केवलाघो भवति केवलादी – ऋगवेद १०.११७.६
    (केवल-आदी) देवल अकेला खाने वाला (केवल अघ: भवति) केवल पाप को भोगने वाला होता है।
पुमान पुमांसं परिपातु विश्वत:
    (पुमान) एक मनुष्य (मुपांसं) दूसरे मनुष्य की (विश्वत: ) सभी तरफ़ से (परिपातु) रक्षा करे। इस प्रकार वेद सभी मनुष्यों के सह अस्तित्व, सहचरित्र पर बल देता है। सभी सुखी-समृद्ध रहें। ऋग्वेद के अन्तिम मन्त्र में यही कामना की गई है।
समानीव आकूति: समाना हृदयानि व:।
समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति॥ ऋग्वेद १०.१९१.४

हे मनुष्यों (व: ) आप सभी को (आकूति: ) विचार संकल्प (समानी) समान होवें। (व: ) आप सभी के (हृदयानि) हृदय (समाना) समान होवें (व: ) आप सभी के (मन: ) मनन-चिन्तन (समानम अस्तु) समान होवें। (यथा) जिससे (व: ) आप सभी का (सुसह-असति) एक साथ रहना होवे। सह अस्तित्व के लिये चिन्तन-मनन, भावना तथा संकल्प में समानता-एकरूपता आवश्यक है।

भाग–४ मानव शरीर ही ब्रह्माण्ड

मानवशरीर की ब्रह्माण्ड, यज्ञशाला, ऋषि आश्रम, तीर्थ एवं स्वराज्य रूप में अवधारणा –
    वेदों के सुप्रख्यात व्याख्याकार पं.श्रीपाद सातवलेकर ने अपनी व्याख्या में मानवशरीर को विशेष महत्व प्रदान किया है। सकल ब्रह्माण्ड अंश रूप में इस शरीर में विद्यमान है। इसलिए जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वह इस शरीर में भी है। हमारा शरीर ही यज्ञशाला है। शरीर के भितर होने वाली समस्त क्रियाएँ यज्ञीय क्रिया कलापों के समान हैं। मनाव शरीर ही ऋषियों का आश्रम तथा तीर्थ स्थल है। इस कथन से उन्होंने शरीर की पावनता पर बल दिया है। भावों, विचारों तथा ज्ञान से अपने इस शरीर की पवित्रता को बनाए रखना है।
सप्त ऋषय: प्रतिहिता: शरीरे।
सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम ( यजुर्वेद ३४.५५)
    (शरीरे) मानव शरीर में (सप्त ऋषय: ) सप्त ऋषि (प्रतिहिता: ) स्थापित विद्यमान हैं। (सप्त) सातों ऋषि (सदम) शरीर रूपी घर की (अप्रमादम) बिना प्रमाद के सावधानीपूर्वक (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं।

पं. सातवलेकर ने मानव शरीर को अपना स्वराज्य बतलाया है। यह शरीर ही रत्नादि से परिपूरित अपराजेय देवपुरी अयोध्या है और सवकीय आत्मा ही इस स्वराज्य का राजा है। शरीर रूपी यह स्वराज्य सभी को सहज ही स्वाभाविक रूप से प्राप्त है। धनी हो अथवा निर्धनी, सभी व्यक्ति का अपना स्वराज्य है और आत्मा रूपी राजा का शासन इस पर चलना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य को अपने शरीर के महत्व का बोध कराया गया है।

भाग ३ – वेदाध्ययन की उपयोगिता (Value of Veda Study)

वेदाध्ययन की उपयोगिता –
    भौतिक विज्ञान के इस प्रकर्ष युग में वेद सर्वथा प्रासंगिक हैं। इसका अध्ययन सर्वतोभावेन – सभी प्रकार से उपयोगी है, क्योंकि मानव का सम्पूर्ण जीवन वेदों से अनुप्राणित, ओतप्रोत है। मनुषय का मुख्य प्रयोजन है सुख की प्राप्ति और इसकी सिद्धि में वेद सर्वथा उपकारक हैं। वेदों के सुप्रसिद्ध व्याख्याकार आचार्य सायण का कथन है कि इष्ट की प्राप्ति तथा अनिष्ट के परिहार के उपाय को वेद ही बतलाते हैं। इस तरह लौकिक अभुदय तथा नि:श्रेयस दोनों प्रयोजनों की सिद्धि वेदों से होती है। वास्तव में वेद एक सुव्यवस्थित समन्वित जीवन प्रणाली प्रस्तुत करते हैं। एक – एक दिन का खण्ड-खण्ड करके नहीं, अपितु मानव जीवन की समग्रता सम्पूर्णता पर यहाँ विचार किया गया है। केवल वर्तमान जीवन को सुखी बनाना ही उद्देश्य नहीं है, अपितु भावी ज्कीवन को और अधिक सुखमय बनाना है, अमृतत्व की प्राप्ति करना है और वेद तो अमृतत्वसिद्धि के संविधान हैं। मृत्यु के भय से छुटकारा दिलाकर वेद ही हमें अमरता का बोध कराते हैं।
         अमृतपुत्रा वयम = हम सभी अमृतपुत्र हैं।
    इस तरह वेद परमसुखमयी आह्लादमयी जीवन दृष्टि प्रस्तुत करते हैं”:
 
        इहैव स्तं मा वियौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम।
        क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मौदमानौ स्वे गृहे॥ ऋगवेद १०.८५.४२
    विवाह के पवित्र माड्गलिक अवसर पर नव दम्पती को प्रदान किया गया याह शुभाआशीर्वचन है। यह संसार सुखमय है। सुख प्राप्ति के लिए इसे छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं है। सभी प्रकार का वास्तविक सच्चा सुख यहीं पर है। हे यजमानदम्पति ! तुम दोनों (इह – यव) यहीं पर ( स्तम) रहो। (मा) मत (वियौष्टं) वियुक्त अलग होवो। (विश्वम आयु: ) सम्पूर्ण आयु १०० वर्ष ( वि अश्नुतम) प्राप्त करो। (पुत्रै: ) पुत्रों के साथ (नप्तृभि: ) पौत्रों के साथ (क्रीड़न्तौ) खेलते हुए (मोदमानौ) प्रमुदित होते हुए (स्वे गृहे) अपने घर में (स्तम) रहो। रुग्ण दु:खी-दीन होकर नहीं, अपितु बलवान बलिष्ठ अड्गों से बराबर कार्य करते हुए १०० वर्ष तक जीवित रहने की कामना की गई है।
         जीवेम शरद: शतम ( सौ वर्ष हम जीवित रहें)
भद्रं कर्णेभि:श्रृणुयाम देवा भद्रं
पश्येमाक्षभिर्यजत्रा:।
स्थिरैरड्गै:स्तुष्टुवांसस्तनूभिर्येशम देवहितं यदायु:॥ ऋगवेद १.८६.८
    (देवा: ) हे देवगण (कर्णेभि: ) कानों से (भद्रं) मड्गल-शुभ (श्रृणुयाम) हम सुने । (यजत्रा: ) हे यजनीय-पूजनीय देवगण ( अक्षिभि: ) आँखों से (भद्रं)  मड्गलशुभ (पश्येम) हम देखें। (स्थिरै: अड्गै: तनूभि: ) बलिष्ठ अंगों से युक्त शरीरों से (तुष्टुवांस: ) प्रार्थना करते हुए (देहहितं) देव-निर्धारित (यद आयु: ) जो (१०० वर्ष की) आयु है (वि-अशेम) हम अच्छी तरह प्राप्त करें अर्थात इस अवधि में रोगी ना होवें, बराबर निरोगी रहें और ऋषि कामना करता है कि कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा: (इह) इस लोक संसार में (कर्माणि) (निर्धारित) कार्यों
को (कुर्वन एव) करते हुए सम्पन्न करते हुए (शतं समा: ) सौ वर्ष तक (जिजीविषेत) जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए और केवल १०० वर्ष तक ही नहीं, अपितु इससे भी अधिक जीवित रहने की बात कही गई है –
भूयश्च शरद: शतात
(शतात शरद भूय: ) और सौ वर्ष से अधिक जीवित रहें ।
    हमारे वैदिक ऋषि ने तो विश्वायु विश्वधात्री विश्वकर्मा, जबतक चाहें तब तक जीवित रहने की, सब कुछ धारण करने की और सबकुछ करने की बात कही है। वास्तव में मानव-शरीर कर्मभूमि है और कर्म ही जीवन है तथा सिद्धि: कर्मजा-विजयश्री की प्राप्ति कर्म से होती है, इसलिए कर्म करने पर बल दिया गया है तथा कार्य को कभी भविष्य के लिए नहीं टालना चाहिए क्योंकि मनुष्य के कल की बात को कौन जानता है।
न श्व: श्वमुपासीत। को हि मनुष्यस्य श्वो वेद।
    ऋषि अथर्वन का बहुत ही प्रेरणास्पद कथन है कि हमारा यह शरीर ही देवपुरी अयोध्या है, इसमें सभी देवता निवास करते हैं, यह अपराजेय ज्योतिर्मय है। इस पुरी में स्थित आत्मा ही परमदेव, परमात्मा है। इस पुरी का राजा है –
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानांपूरयोध्या

(अष्टचक्रा) आठ चक्रों (नवद्वार) नव द्वारों वाला हमारा यह शरीर ही (देवानां) देवताओं की (पू: ) पुरी (अयोध्या) अयोध्या-अपराजेय है। इसलिए यह शरीर सर्वतोभावेन रक्षणीय है,  इसको स्वस्थ एवं स्वच्छ बनाए रखना है।