घर के खाने का महत्व केवल वही जान सकता है जो घर के बाहर रहता हो, उसके लिये तो घर का खाना अमृत के समान है। और जो घर में रहता है उसके लिये तो घर का खाना “अपने घर की मुर्गी” जैसा होता है, और बाहर का खाना अमृत के समान होता है।
हम ५-६ दोस्त गेस्ट हाऊस में रहते थे, जिसमें से २ पट्ना के, ३ कोलकाता के और एक हम थे उज्जैन से। पर सभी एक दूसरे को बहुत अच्छे से जानते थे।
जो पटना वाले मित्र थे उनके लोकल मुंबई में अच्छी दोस्ती थी और कुछ शादीशुदा मित्र भी रहते थे, तो वे मित्र बहुत भाग्यवान थे, और घर के खाने का लुत्फ़ उठाते रहते थे। कभी कभी दूसरे मित्र को भी साथ ले जाते थे।
एक दिन बड़ी जबरदस्त रोचक घटना हुई कि पहले मित्र बहुत देर से आये तो दूसरे ने पूछा कि आज किधर थे, तो पहले मित्र बोले कि फ़लाने मित्र के यहाँ थाना गया था और “भाईसाब्ब. .. भाभीजी ने क्या जबरदस्त आलू के पराठें बनाये थे, मैं ५-६ पराठें खा गया और साथ में घर का अचार.. अह्हा”, दूसरे का पारा सुनते सुनते ही सातवें आसमान पर पहुँच गया था, फ़िर वो शुरु हुआ, उसके हाथ में गिलास था पहले तो गुस्से में वह फ़ेंककर पहले को मारा और जोर से बोला “अबे, एक तो बिना बताये गये थे, दूसरा हियाँ जला रहे हो कि घर का खाना खाकर आ रहे हो, और वो भी आलू के पराठें, आज हम तुमका छोड़े नाहीं, ससुरा का समझत हो के घर का खाना केवल तुहार ही पसंद हो” और बहुत घमासान हुआ।
तो इस तरह की झड़पें अक्सर दोस्तों में देखने को मिलती रहती हैं।
[हमें पटना की भाषा नहीं आती है, पर कोशिश की है, अगर कोई सुधार हो तो बताईयेगा]
बहुत खूब. हम भी भोपाल में सालों घर से बाहर रहे हैं इसलिए घर के खाने का महत्त्व समझते हैं.
हमसे पूछिए कैसे मिस करते हैं घर का खाना को 🙁
घर का खाने और खासकर मम्मी के हाथ के खाने की बात ही निराली है .. अभी भी इंतजार रहता है हमें .. मेरे बच्चों ने भी जब बाहर होस्टल में रहना शुरू किया तब समझे हैं घर के खाने के महत्व को .. पहले एक दो दिन होटल का खाना खाने को मिलता तो घर के खाने की शिकायत करते थे !!
मैने जिन्दगी मै कभी भी कई दिन बाहर का खाना नही खाया, लेकिन पिछली बार मुझे खाना पडा तो बहुत बिमार पड गया, इस बार भारत आया तो सब से पहले खाना बनाने वाली को खॊजा, यह खाना हमारी पसंद का भी होता था ओर साफ़ भी, लेकिन बीबी के हाथ का स्वाद उस मै नही होता था, इस लिये इस बार हम ठीक भी रहे, आप ने सच कह कि घर के खाने का कोई जबाब नही. धन्यवाद
घर के खाने का स्वाद बाहर का खाना खाने के बाद ही समझ आता है।
हमसे भी पूछिए कैसे मिस करते हैं घर का खाना को…:((
घर के खाने का स्वाद ही और होता है… मैं अपनी ननिहाल के दाल-भात और खिचड़ी-लाल दही हंडिया वाला कभी नहीं भूल सकता..
sach hai, ghar ke khane ka maza hi aur hai aur khaskar agar mummy ne banaya ho..! 🙂 par is par ladaai nahi karni chahiye…
बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है – पधारें – सांसद हमले की ९ वी बरसी पर संसद हमले के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि – ब्लॉग 4 वार्ता – शिवम् मिश्रा
इतने सालो बाद भी जब कभी मेरे हाथ से मम्मी जैसा खाना बन जाता है तो तुरंत कहती हु की आज लगा की घर का खाना खाया और जब घर जाती हु तो खाने का डोज बढ़ जाता है | अजी हम लोग भी मिस करते है घर के खाने को 🙁
देखिये किसी ने भी पटनिया भाषा के बारे में कुछ भी नहीं पूछा.. सभी को आपने घर के खाने के चक्कर में उलझा जो दिया था.. 🙂