संयुक्त परिवार में रहने का एक अलग ही आनंद है। एकाकी जीवन भी भला कोई जीवन है ? जब तक परिवार संयुक्त रहता है, परिवार का हर सदस्य एक अनुशासन में रहता है। उसको कोई भी गलत कार्य करने के पहले बहुत सोचना समझना पड़ता है, क्योंकि उस पर परिवार की मर्यादा का अंकुश रहता है। यह अंकुश हटने के बाद वह बगैर लगाम के घोड़े की तरह हो जाता है। लेकिन संयुक्त परिवार में अगर सुखी रहना है तो ’लेने’ की प्रवृत्ति का परित्याग कर ’देने’ की प्रवृत्ति रखना पड़ेगी। परिवार के हर सदस्य का नैतिक कर्त्तव्य है कि वे एक दूसरे की भावानओं का आदर कर आपस में तालमेल रख कर चलें। ऐसा कोई कार्य न करें जिससे कि दूसरे की भावनाओं को ठेस पहुँचे। किसी भी विषय को कृपया अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनायें।
गम खाकर और त्याग करके ही संयुक्त परिवार चलाया जा सकता है। इसमें भी सबसे अहम भूमिका परिवार प्रधान की होती है। हमें शंकर भगवान के परिवार से शिक्षा लेनी चाहिये। उनके परिवार के सदस्य हैं – पत्नि उमा (पार्वती), पुत्र गणेश और कार्तिकेय। सदस्य के वाहन हैं – नन्दी (बैल), सिंह, चूहा और मयूर (मोर)। शंकर भगवान के गले में सर्पों की माला रहती है। इनके जितने वाहन हैं – सब एक दूसरे के जन्मजात शत्रु हैं, फ़िर भी शंकर भगवान परिवार के मुखिया की हैसियत से उनको एकता के सूत्र में बाँधे रहते हैं। विभिन्न प्रवृत्तियों वाले भी एक साथ प्रेम से रहते हैं। इसी तरह संयुक्त परिवार में भी विभिन्न स्वाभाव के सदस्यों का होना स्वाभाविक है, लेकिन उनमें सामंजस्य एवं एकता बनाये रखने में परिवार प्रमुख को मुख्य भूमिका निभानी पड़ती है। उसको भगवान की तरह समदर्शी होना पड़ता है।
विभिन्नता में एकता रखना ही तो हमारा भारतीय आदर्श रहा है। इसीलिये कहा गया है – “India offers unity in diversity.” शंकर भगवान के परिवार के वाहन ऐसे जीव हैं, जिनमें सोचने समझने की क्षमता नहीं है। इसके उपरांत भी वे एक साथ प्रेमपूर्वक रहते हैं। फ़िर भला हम मनुष्य योनि में पैदा होकर भी एक साथ प्रेमपूर्वक क्यों नहीं रह सकते ? आज छोटा भाई बड़े भाई से राम बनने की अपेक्षा करता है, किन्तु स्वयं भरत बनने को तैयार नहीं। इसी तरह बड़ा भाई छोटे भाई से अपेक्षा करता है कि वह भरत बने लेकिन स्वयं राम बनने को तैयार नहीं। सास बहू से अपेक्षा करती है कि वह उसको माँ समझे, लेकिन स्वयं बहू को बेटी मानने को तैयार नहीं। बहू चाहती है कि सास मुझको बेटी की तरह माने, लेकिन स्वयं सास को माँ जैसा आदर नहीं देती। पति पत्नि से अपेक्षा करता है कि वह सीता या सावित्री बने पर स्वयं राम बनने को तैयार नहीं। यह परस्पर विरोधाभास ही समस्त परिवार – कलह का मूल कारण होता है। थोड़ी सी स्वार्थ भावना का त्याग कर एक दूसरे की भावनाओं का आदर करने मात्र से ही बहुत से संयुक्त परिवार टूटने से बच सकते हैं।
पर सब लोग एक जैसे होते कहां है .. मैने अधिकांश संयुक्त परिवार में किसी एक पति पत्नी का शोषण होते ही देखा है .. यहां माता पिता या बडे भाई की अहम् भूमिका होनी चाहिए .. यदि वे सबके हित में कुछ सख्त निर्णय लेने की सामर्थ्य रखते हैं .. तो संयुक्त परिवार चलना बहुत कठिन नहीं .. अन्यथा टूटने की नौबत आ ही जाती है।
थोड़ी सी स्वार्थ भावना का त्याग कर एक दूसरे की भावनाओं का आदर करने मात्र से ही बहुत से संयुक्त परिवार टूटने से बच सकते हैं।
-सही कहा!! मगर ऐसा होता कहाँ है भाई..सब दिवा स्वपन सा लगता है जब ऐसी बात होती हैं. 🙂
परिवार के प्रधान को शंकर की जी की तरह जीवन में कई बार जहर भी पीना पड़ता है पारिवारिक एक सूत्रता के लिए। अच्छा आलेख।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
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[email protected]
आपके विचारो से सहमत हूँ .
यह हमारी परंपरा का एक बहुत बड़ा अंग रहा है लेकिन पाश्चात्य विचारधारा और असहिष्णुता ने इसे बिखरा दिया. जिसने इसका आनंद नहीं लिया वो इसे नहीं समझ सकता
आज छोटा भाई बड़े भाई से राम बनने की अपेक्षा करता है, किन्तु स्वयं भरत बनने को तैयार नहीं।
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सही कहा है. पर सन्युक्त परिवार टूटने के आर्थिक कारण को नज़रअन्दाज नही कर सकते
अच्छा आलेख लिखा।आप से सहमत हूँ लेकिन आज अर्थ को प्रधानता मिल चुकी है इसी लिए निजि स्वार्थों के लिए परिवार टूट रहे हैं….अब तो बहुत कम परिवार ही संयुक्त्त परिवार हैं…..
Poori tarah sahmat.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }</a
बहुत सही कहा आपने. परंतु अब तो यह बहुत दूर की कौडी होता जारहा है.
रामराम.
सही लिखा है लेकिन संयुक्त परिवार की कुछ अपनी समस्याएं भी होती है.
I am agree with your thoughts and nice views. Mamta Gupta Mahwa
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बहुत सही कहा आपने. परंतु अब तो यह बहुत दूर की कौडी होता जारहा है.
bahut sundar!
संयुक्त परिवार के फ़ायदे ओर नुकसान दोनो है.यदि परिवार के सदस्यो मे आपसी प्यार,एक- दूसरे के प्रति सम्मान की भावना है तो इसके फ़ायदे ही फ़ायदे है .सुंदर प्रस्तुति .