सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २९ [गुरु द्रोण की परीक्षा और पक्षी की आँख..]

    बीच में एक बार मैं माता से मिलने के लिए चम्पानगरी गया था। आठ दिन बाद जब लौटा तब अश्वत्थामा से पता चला कि गुरु द्रोण ने अपने सभी शिष्यों की परीक्षा ली थी। उन्होंने एक अशोक वृक्ष की ऊँची डाल पर एक मरा हुआ पक्षी, जिसमें भूसा भरा हुआ था, टँगवा दिया था। उस पक्षी की बायीं आँख को ही अचूक भेदनेवाले को उनका प्रशंसात्मक साधुवाद मिलना था। उन्होंने सभी शिष्यों को एकत्र किया और एक-एक करके प्रत्येक को उस पत्थर के चबूतरे पर बुलाकर, उसके हाथ में धनुष देकर उससे निशाना लगाने को कहा। प्रत्येक व्यक्ति आता, धनुष उठाता, प्रत्यंचा चढ़ाता, इतने में ही गुरुवर्य उससे पूछते, “बाण छोड़ने से पहले तुझको क्या-क्या दिखाई दे रहा है ?”

     अनेक जनों ने अनेक प्रकार के उत्तर दिये। उस मूर्ख भीम ने तो यह कहा कि, “मुझे परली ओर के हरे पहाड़ दिखाई पड़ रहे हैं।“ कोई कहता कि बादल दिखाई पड़ रहे हैं, कोई कहता कि पेड़ के हरे पत्ते दिखाई दे रहे हैं, कोई कहता कि वह पक्षी दिखाई दे रहा है।

    इससे गुरुदेव को सन्तोष नहीं होता । वे उस व्यक्ति को धनुष नीचे रखकर वापस जाने को कहते। सबके अन्त में अर्जुन आया। गुरुवर्य ने उससे पूछा, “अर्जुन, तुझे क्या-क्या दिखाई दे रहा है ?”

अर्जुन बोला, “मुझे केवल उस पक्षी की आँख ही दिखाई दे रही है।“

     गुरुवर्य प्रसन्न हो गये। उन्होंने पीठ पर थाप मारी और कहा, “बहुत अच्छे ! तो कर उस आँख का भेदन !” उसने तत्क्षण बाण छोड़कर उस आँख को भेद दिया। गुरुवर्य ने फ़िर उसकी पीठ पर थाप मारी।

    यह समस्त घटना मुझको अश्वत्थामा ने, अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को बीच-बीच में और बड़ी करते हुए, बतायी। अन्त में उसने मुझसे सहसा ही पूछा, “ कर्ण, यदि तू उस समय उपस्थित होता, तो तू पिताजी को क्या उत्तर देता ?”

    मैं थोड़ी देर चुप रहा। मन ही मन मैंने स्वयं को उस पत्थर के चबूतरे पर समझकर वीरासन लगाया और आँखों के सामने उस पक्षी की आँख पर दृष्टि स्थिर कर दी तथा उससे कहा, “अश्वत्थामा ! यदि मैं होता तो मैंने कहा होता, “मुझको कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। क्योंकि लक्ष्य सामने होने पर कर्ण फ़िर कर्ण रहता ही नहीं है। उसका सम्पूर्ण शरीर बाण बन जाता है। केवल बाण ही नहीं, बल्कि बाण की नोक और लक्ष्य-भेद का बिन्दु । मैंने कहा होता, मेरे नुकीले शरीर को एक तिल की जितनी जगह सामने दिखाई दे रही है।“

    मेरे इस उत्तर से आनन्दित होकर अश्वत्थामा ने मुझको अंक में भर लिया । वह बोला, “कर्ण, तू सबमें श्रेष्ठ धनुर्धर होगा।“ उसके बन्धन से अपने को छुड़ाता हुआ मैं मन ही मन निश्चय कर रहा था कि जिस युवराज अर्जुन की, उस पक्षी की आँख का भेद करने के कारण, गुरुवर्य ने इतनी प्रशंसा की थी; वही लक्ष्यभेद आज मैं करुँगा। यह करने पर गुरु द्रोण फ़िर कभी न कभी मुझको भी अपने निकट कर लेंगे। मेरी भी पीठ थपथपायेंगे।

4 thoughts on “सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २९ [गुरु द्रोण की परीक्षा और पक्षी की आँख..]

  1. केवल बाण ही नहीं, बल्कि बाण की नोक और लक्ष्य-भेद का बिन्दु । मैंने कहा होता, मेरे नुकीले शरीर को एक तिल की जितनी जगह सामने दिखाई दे रही है।“
    बहुत सुंदर तभी तो कर्ण अर्जुन से भी बहादुर था.
    धन्यवाद

Leave a Reply to वन्दना Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *