तभी हमारे पास की एक ओर लाईन खोल दी गई लोग धड़ाधड़ उसमें से हमसे भी आगे जाने लगे तो हमें बहुत कोफ़्त हुई कि ये क्या हो रहा है पर वो वापिस घूमकर हमारे पीछे लगे तो हमें पता चला कि अब इस लाईन में लगने की जगह नहीं है इसलिये इस लाईन को बंद कर एक रेलिंग छोड़ दूसरी रेलिंग खोल दी गई है। हमारे पास में फ़िर एक दक्षिण भारतीय फ़ैमिली खड़ी हुई, पास वाली रेलिंग में, जिनकी बहुत ही प्यारी सी बिटिया साथ में थी, और सबसे ज्यादा हमें उसके वस्त्रों ने आकर्षित किया उसने बहुत ही सुन्दर सफ़ेद कलर का सिल्क का फ़्राक पहना था, जिसमें स्वर्ण के धागे की बोर्डर थी। वहाँ हमने जितनी भी महिलाएँ देखीं सब सिल्क ही धारण किये हुए थीं। कई महिलाओं ने भी केश दान किये थे, उनको देखना कुछ अजीब सा लग रहा था।
थोड़ा आगे बड़े तो वहीं पर फ़िर एक मोबाईल काऊँटर था, कि अगर किसी के पास अगर मोबाईल हो तो उसे वह वहाँ जमाकर सकता था। सुरक्षा व्यवस्था ठीक थी, और धार्मिक स्थलों जैसी सुरक्षा चाक चौबंद नहीं थी। फ़िर हमने ३०० रुपये का टिकट लिया जिस पर लिखा था कि प्रति व्यक्ति दो लड्डू मिलेंगे। जो कि टीटीडी के काऊँटर से १२ घंटे के अंदर आप ले सकते हैं। तिरुपति बालाजी के ये लड्डू विश्वभर में प्रसिद्ध हैं।
जैसे ही पहला बैरिकेड पार किया टिकट का एक हिस्सा फ़ाड़ लिया गया और वहीं पर देवस्थानम के गुंबद का छोटा सा मॉडल बना हुआ रखा था। फ़िर बेरिकेड्स के रास्ते धीरे धीरे आगे बड़ने लगे। नीचे पहुँचे तो वहाँ रास्ते में ही कमरे जैसे बनाये हुए हैं, जिसमें बैठने के लिये बैंच लगा रखी हैं, जिस पर बैठकर सुस्ता सकते हैं जब तक कि वहाँ का दरवाजा नहीं खुल जाता।
इस तरह कम से कम दस दरवाजों से गुजरना पड़ा। फ़िर एक लंबा सा गलियारा आया और फ़िर बिल्कुल खुला हिस्सा जहाँ पर एक पुल से देवस्थानम की ओर जाना था, यहाँ सुन्दरसन दर्शन और मुफ़्त दर्शन वालों की लाईन साथ में ही लगी हुई थी, अब अंतर यह था कि वे लोग खड़े थे और हम लोग फ़टाफ़ट आगे बड़ते जा रहे थे। जल्दी ही बालाजी के मुख्य मंदिर का द्वार आ रहा था। मुख्य द्वार के पहले एक अजीब सी बात देखने को मिली कि मंदिर की दीवार बहुत ही प्राचीन थी और उसमें पत्थरों के बीच लोग पैसे घुसा देते हैं, और पैसे भी पूरे घुसे हुए थे, और कुछ सिक्के तो बहुत सालों से अंदर हैं ऐसा प्रतीत हो रहा था। शायद पत्थर भी अपनी थोड़ा ऊपर नीचे होते होंगे इसलिये फ़ंसे हुए सिक्के भी तिरछे हो चुके थे, जिनके निकलने की कोई उम्मीद भी नहीं है।
मंदिर का मुख्य द्वार आ चुका था, वहीं पर पानी का छोटा सा स्रोता जैसा था, जिससे अपने पांव शुद्ध हो जायें। और फ़िर बिल्कुल सामने मुख्य मंदिर था, जहाँ तिरुपति बालाजी विद्यमान हैं। बिल्कुल ऐसा लगा कि स्वर्ग में आ गये हों, पूरा मंदिर स्वर्ण जड़ित है, स्वर्ण की आभा से सब दमक रहा है, हम अपने को भूल चुके थे, और गोविंदा गोविंदा कह रहे थे।
फ़ोटो गूगल सर्च से ढ़ूंढ कर लगाये हैं।
बहुत भीड़ थी, जैसे जैसे मंदिर में अंदर की ओर जा रहे थे, भीड़ का दबाब बड़ता जा रहा था। रेलिंग के बीच फ़ँसे हुए हम लोग आगे जा रहे थे, बालाजी बिल्कुल हमारे सामने थे, हम एकटक देखे जा रहे थे, मात्र १ या २ मिनिट होते हैं चलते हुए ही दर्शन करने होते हैं, हम भी अपने हाथ ऊपर करके गोविंदा गोविंदा करते हुए दर्शन लाभ ले रहे थे, हम भूल गये थे कि हम भीड़ में हैं, पूरे मनोयोग से बालाजी में ध्यानमग्न थे, बालाजी हमारे सामने थे, सबसे आनंददायक क्षण थे ये जीवनकाल के। रोम रोम भक्ति में डूबा हुआ था, सामने हल्की सी टिमटिमाती रोशनी में बालाजी के दर्शन से हम धन्य हो गये।
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हम जैसे ही बाहर निकले हमारे ठीक दायीं ओर एक द्वार था, जिस पर ताला लगा हुआ था और लाख की सील लगी हुई थी, जिस पर लिखा था, वैकुण्ठ द्वार, जो कि केवल वैकुण्ठ चतुर्दशी और उसके अगले दिन ही खुलता है। फ़िर वहीं पास में बैठकर हम मंदिर के गुंबद को बाहर से निहारने लगे। भला स्वर्ग में से भी किसी के जाने की इच्छा होती है। वहाँ और भी मंदिर थे, उनमें भी दर्शन किये।
वहीं पर लक्ष्मीजी की एक मूर्ती थी लोग उस पर अपना पर्स, नोट छूकर अपने को धन्य मान रहे थे, बेचारे सुरक्षाकर्मी उन्हें भगाभगाकर परेशान थे। वहीं फ़िर बालाजी की हुंडी थी, जिसमें लोग अपना हिस्सा बालाजी को देते हैं। हमने कई लोगों को देखा जो बड़ी रकम भी डाल रहे थे, और अपने को धन्य मान रहे थे। सब अपनी श्रद्धा अनुसार हुंडी कर रहे थे।
हुंडी एक बड़ा सा पात्र जैसा होता है, जिसमें बालाजी के लिये चढ़ावा डाला जाता है, जो कि एक बड़े सफ़ेद कपड़े से घड़े जैसी आकृति का पात्र होता है।
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चलिए दिव्य दर्शन हो गया -ब्लैक में भी लड्डू खरीदे क्या ?
बहुत अच्छा लगा पढकर .. बालाजी के दर्शन से हम भी धन्य हो गये !!
लो जी यह तो बढि़या हुआ हमने भी दर्शन कर लिए। पर हमारे लड्डू गोपाल कहां हैं , और क्या गोविंदा गोविंदा कहने से वहां पर सचमुच में गोविंदा आया था।
@अरविन्द जी –
ब्लैक में लड्डू, नहीं मिले
हमें तो व्हाईट में भी एक्स्ट्रा नहीं मिले, दो से ही संतोष करना पड़ा।
@ अविनाश जी
लड्डू गोपाल को जहाँ होना चाहिये था, वहाँ पहुँच चुके थे, और जीभ के रास्ते स्वाद लेते हुए, यम्मी यम्मी थे। आखिरकार भक्ति के रस का स्वाद जो मिला हुआ था।
गोविंदा इसलिये कहना पड़ता है, जो कि आज तक के मेरे ज्ञान पर आधारित है, कि अगर कोई आपके घर आया और आपको "अविनाश" कहकर आवाज देगा तो आपको पता चलेगा कि कोई आपके पास आया है, अगर वही व्यक्ति बिना आवाज दिये चले जायेगा, तो आप जान ही नहीं पायेंगे कि कोई आया था। 🙂
आभार आपका भगवान बालाजी के दर्शन कराने के लिये।गोविंदा गोविंदा।
chitra man-mohak hai..
बहुत सुंदर लगा आप का यह यात्रा विवरण, धन्यवाद
धन्य हो गए जी घर बैठे।
लेकिन दो दो लड्डू !
सुना है एक ही लड्डू बहुत बड़ा होता है।
तो ये है सेहत का राज़।
@दराल साहब –
वाकई एक लड्डू अपने यहाँ के ३-४ लड्डुओं को मिला दें उतना बड़ा होता है। विशुद्ध घी से बनाया जाता है जिसमें मेवे भी रहते हैं।
आपके माध्यम से दर्शन का अहसास कर लिया और कुछ वर्षों पूर्व की संपूर्ण यात्रा का दृष्य दिमाग में कौंध गया. दिव्य दर्शन से निकलकर दिव्य लड्डू का स्वाद भी उभरा जुबान पर.
बहुत आभार मित्र. आनन्द आ गया.
आपने बहुत सुंदर वर्णन किया है मैं नया ब्लॉगर हूँ एक बार आपकी यात्रा वर्णन पढ़ने लगा तो पूरा पढ़ कर ही छोड़ा. दो बार तिरुपति हो आया हूँ बालाजी के दर्शन भी किये परन्तु जो आनन्द यात्रा करने में आया था वही बल्कि उससे ज्यादा आपके वर्णन में आया.
नरेन्द्र निगम
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जय तिरुपति बालाजी। बहुत ही लाभदायक एवं ज्ञानप्रद जानकारी। निश्चित रूप से यात्रिओं लिए मार्गदर्शक जानकारी है।