विद्रोह मेरे मन का, भड़क रहा है….. मेरी कविता….विवेक रस्तोगी

विद्रोह मेरे मन का,

भड़क रहा है,

चिंगारियों से,

आग निकल रही है,

मेरे मन के,

मेरे दिल के,

कुछ जज्बात हैं,

जो दबे हुए हैं,

कहीं किसी चिंगारी में,

और जो,

हवा के रुख का,

इंतजार कर रहे हैं,

और वहीं कहीं,

रुख हवा का,

हमसे बेरुखी कर चुका है,

पर…

विद्रोह मेरे मन का,

भड़क रहा है.. !!

16 thoughts on “विद्रोह मेरे मन का, भड़क रहा है….. मेरी कविता….विवेक रस्तोगी

  1. जब भी परिवार से दूर होने की परिस्थितियां आती हैं मैं सीमा पर तैनात सिपाही की सोचता हूं व पाता हूं कि कितना भाग्यशाली हूं मैं…जब चाहूं घर हो आता हूं, न ही अनुशासन की बंदिश…

  2. दो चार नारे भी लगाये ऊंची आवाज मै, ताकि पडोसियो को भी पता चले आप के विद्रोह का…. वेसे विद्रोह कर कहां रहे है दफ़तर मै या घर पर???
    सुंदर रचना

  3. हवा के रूख का
    मत कर इंतजार
    अपना दावानल और भड़का
    क्योंकि विद्रोह जब मरेगा तो
    बहुत कुछ अनर्गल करेगा

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