किरण अंधकार सुबह रात …. मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

एक किरण
रोशनी की
कहीं चुपके से
बहुत दूर से
आती हुई,

अंधकार
जो कि अँधेरे से
निकल पाने में
असमर्थ है
घुप्प,

सुबह
रोशन रोशनी
लहराती हुई
नई ताजी हवा
के झोंके
नथूनों में
दर्द जगाती है

रात
घुप्प अंधकार
सन्नाटे में
चीत्कार से
निर्जन झन्न
कहीं
सुकून देती है।

10 thoughts on “किरण अंधकार सुबह रात …. मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

  1. सादर वन्दे !
    भावनाओं की गहराई कविता को सार्थक बनाती है
    सुन्दर
    रत्नेश त्रिपाठी

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