कई बार
कुछ कहने की
इच्छा नहीं
होती
पर फ़िर भी
कहना पड़ता है,
कोई चेहरा
कभी बिगड़ जाता है
आईना
टूट जाता है,
बिगड़े हुए चेहरे
मैं कब तक देखूँ,
मजबूरी इस मानव मन की
चेहरे देखने की
कहने की
पता नहीं
कब खत्म होंगी
ये मजबूरियाँ
ये मानसिक तुष्टियाँ।
बिगड़े हुए चेहरे
मैं कब तक देखूँ,
जब तक बिगाड़ने वालों की शिनाख्त नहीं हो जाती
सुन्दर रचना
अच्छा प्रयास,आभार.
यदि सहना सम्भव न हो तो कहना श्रेयस्कर है ।
वाकई काफी बार मज़बूरी में न चाहते हुए भी काम करने पड़ते है