उलझनें जिंदगी की
बढ़ती ही जा रही हैं
जैसे इनके बिना जीना
दुश्वार हो
उलझनें हों तभी
प्रेम की कीमत
सुलझन की कीमत
पता चलती है
क्यों
इतने बेकाबू हो जाते हैं
कुछ पल
कुछ क्षण अपनी जिंदगी के
कुछ बेहयाई भी
छा जाती है
पर फ़िर भी इम्तिहान
खत्म नहीं होता
कहीं झुरमुट में दूर
कोई शाख पर छुपकर
बैठकर
देख रहा है
पता ही नहीं है
वो उलझन है
या सुलझन है…
कीमत की तलाश में क्यों लगे रहते हैं हम सदा। जबकि इसके अंत में मत है जुड़ा।
इन्ही ही को जीवन भर सुलझाते जाना है -अच्छी कविता !
यही पता लग जाता तो क्या बात थी..उम्दा रचना!
bahut khoobsoorat rachna…
bahut sunder rachna….
एक सुलझन, दूजी उलझन,
जीवन को क्या कह दे हम ।
आभार
उलझनें जिंदगी की ,इन्ही के कारण तो जिन्दगी खुब सुरत लगती है, कभी छांव कभी ्धुप
..बेहतरीन!!!
उलझनों को सुलझाइए ….अच्छी रचना.
जीवन एक ऊन की उल्झी गुच्छी है, और हम सब इसी उलझन, सुलझन की गांठे खोलते रह जाते हैं
उलझनें हों तभी
प्रेम की कीमत
सुलझन की कीमत
पता चलती है….
अच्छी रचना.