विजन-वन-वल्लरी परसोती थी सुहागभरी-स्नेह-स्वप्न-मग्न-अमल-कोमल-तनु तरुणीजूही की कली,दृग बन्द किये, शिथिल, पत्रांक में।वासन्ती निशा थी;विरह-विधुर प्रिया-संग छोड़किसी दूर-देश में था पवनजिसे कहते हैं मलयानिल।
आई याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात,
आई याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
आई याद कान्ता की कम्पित कमनीय गात,
फ़िर क्या ? पवनउपवन-सरद-रितु गहन-गिरि-काननकुंज-लता-पुंजों को पार करपहुँचा जहाँ उसने की केलिकली-खिली-साथ !
सोती थी,जाने कहो कैसे प्रिय आगमन वह ?नायक ने चूमे कपोल,डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।इस पर भी जागी नहीं,चूक क्षमा माँगी नहीं,निंद्रालस वंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही –किम्बा मतवाली थी यौवन की मदिरा पुए,कौन कहे ?
निर्दय उस नायक नेनिपट निठुराई की,कि झोंकों की झाड़ियों सेसुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,मसल दिये गोरे कपोल गाल;चौक पड़ी युवती,चकित चितवन निज चारों ओर फ़ेर,हेर प्यारे को सेज पासनम्रमुखी हँसी, खिलीखेल रंग प्यारे संग ।
इस कविता में छायावाद की romaniticism का प्रभाव है।
कुछ शब्दों के अर्थ –
विजन – एकान्त
वल्लरी – वेल
गात – प्रेम विभोर होकर कांपते हुए उसके सुन्दर
निद्रालस – निद्रा में अलसाये हुए कटाक्ष
इस कविता का ऐतिहासिक महत्त्व है – हिन्दी का पहला मुक्त छ्न्द जिसके लिए निराला को तमाम लांछनाएँ तक सहनी पड़ीं। पहली बार आदर्श मासिक कलकत्ता के नव-दिसम्बर 1922 के अंक में छपी थी। इसे 'केंचुआ छ्न्द' तक कहा गया। उन 'विद्वानों' को यह तक नहीं मालूम पड़ा कि इस कविता की लय हिन्दी के शास्त्रीय छ्न्द घनाक्षरी से मिलती थी।
संशोधन:
उपवन-सरद-रितु – उपवन-सर-सरित
किम्बा – किम्वा
पुए – पिए
कपोल गाल – कपोल गोल (कपोल का अर्थ ही गाल होता है। निराला ऐसी ग़लती नहीं कर सकते। मैंने मूल पाठ देख लिया है।)
निंद्रालस – निद्रालस
चौक – चौंक
चारों – चारो
नम्रमुखी – नम्रमुख
गात का अर्थ शरीर होता है। निद्रालस का अर्थ निद्रा का आलस ही है। उसमें कटाक्ष की संगति नहीं है।
हाँ, निराला के नाम 'कविश्री' जैसा कोई संकलन नहीं है।
इस महान रचना से ब्लॉग जगत का परिचय कराने के लिए धन्यवाद।
बहुत सुंदर लगी आप की यह रचना, गिरिजेश राव जी ने सब कुछ कह दिया, उसे हमारा ही समझे
यह रचना ‘आपकी’ नहींं, निराला की है।
जी यही तो मैंने शीर्षक में लिखा है, यह मेरी रचना कतई नहीं है, यह तो निराला की है