“मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा” कविता सूर्यकान्त त्रिपाठी ’निराला’ रचित “कविश्री” से

मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा ?

स्तब्ध दग्ध मेरे मरु का तरु

क्या करुणाकर, खिल न सकेगा ?

                 जग दूषित बीज नष्ट कर,

                 पुलक-स्पन्द भर खिला स्पष्टतर,

                 कृपा समीरण बहने पर क्या,

                 कठिन हृदय यह हिल न सकेगा ?

मेरे दुख का भार, झुक रहा,

इसलिए प्रति चरण रुक रहा,

स्पर्श तुम्हारा मिलने पर क्या,

महाभार यह झिल न सकेगा ?

“प्यार के अभाव में मेरी जिंदगी

एक वीराना बन कर रह गयी है

अगर तुम देख लो, यह सँवर जाये ।” अज्ञात

5 thoughts on ““मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा” कविता सूर्यकान्त त्रिपाठी ’निराला’ रचित “कविश्री” से

  1. निराला को जैसे जैसे पढ़ता गया, हिन्दी जानने का अभिमान ध्वस्त होता गया । साथ ही साथ और पढ़ने की ललक उठ खड़ी हुयी ।

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