मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा ?
स्तब्ध दग्ध मेरे मरु का तरु
क्या करुणाकर, खिल न सकेगा ?
जग दूषित बीज नष्ट कर,
पुलक-स्पन्द भर खिला स्पष्टतर,
कृपा समीरण बहने पर क्या,
कठिन हृदय यह हिल न सकेगा ?
मेरे दुख का भार, झुक रहा,
इसलिए प्रति चरण रुक रहा,
स्पर्श तुम्हारा मिलने पर क्या,
महाभार यह झिल न सकेगा ?
“प्यार के अभाव में मेरी जिंदगी
एक वीराना बन कर रह गयी है
अगर तुम देख लो, यह सँवर जाये ।” अज्ञात
आभार पढ़वाने का.
अच्छी प्रस्तुति,आभार
बहुत सुंदर जी
निराला को जैसे जैसे पढ़ता गया, हिन्दी जानने का अभिमान ध्वस्त होता गया । साथ ही साथ और पढ़ने की ललक उठ खड़ी हुयी ।
आपका बहुत बहुत आभार