फ़िर भी मेरी सुबह और दिन भागते हुए शुरु होते हैं…..मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

रोज सुबह भागते हुए

दिन शुरु होता है,

पर सुबह तटस्थ रहती है,

सुबह अपनी ठंडी हवा,

पंछियों की चहचहाट,

मंदिर की घंटियाँ,

मेरे खिड़्की के जंगले से आती भीनी भीनी

फ़ूलों की खुश्बु,

सब कुछ तो ताजा होता है

फ़िर भी मेरी सुबह और दिन

भागते हुए शुरु होते हैं।

20 thoughts on “फ़िर भी मेरी सुबह और दिन भागते हुए शुरु होते हैं…..मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

  1. सुबह तो हर चीज़ वैसी ही होती है सर….
    बस अपनी रूटीन भागने दौड़ने वाली रहती है,…. 🙂

  2. लगता है हम मझधार में बहे जा रहे हैं बाकी किनारे पर धीमी गति से हैं …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *