मेरी वो किताबें … मेरी कविता.. विवेक रस्तोगी

पुरानी किताब

मेरी वो किताबें

जिनकी धूल कभी मैंने झाड़ी थी

उनपर आज फ़िर

धूल की परतें जमीं है

उन परतों में अपनी अकर्मण्यता ढूँढ़ता हूँ

उन परतों में दबा हुआ समय देखता हूँ

जमे हुए रिश्ते पढ़ने की कोशिश करता हूँ

और मेरे छूने पर

उस परत के टूटे हुए कणों को देखते हुए

फ़िर नया करने में जुट जाता हूँ ।

13 thoughts on “मेरी वो किताबें … मेरी कविता.. विवेक रस्तोगी

  1. आपकी कविता ने तो वो भाव जगा दिया…जैसे वो कागज़ की कश्ती ,वो बारिश का पानी…..!पुराणी किताबें तो गीले कागज़ की भांति है कोई पढता भी नही ,कोई जलाता भी नही….बस संभाल कर रखते है…..

  2. मेरी वो किताबें… मेरी कविता…शब्‍द और भाव, जिनके बिना बदरंग और बेस्‍वाद हो जाते लम्‍हे.

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