अकिंचन मन .. न चैट, न बज्ज, न ब्लॉगिंग … मेरी कविता .. विवेक रस्तोगी

अकिंचन मन

पता नहीं क्या चाहता है

कुछ कहना

कुछ सुनना

कुछ तो…

पर

कभी कभी मन की बातों को

समझ नहीं पाते हैं

न चैट, न बज्ज, न ब्लॉगिंग

किसी में मन नहीं लगता

कुछ ओर ही ….

चाहता है..

समझ नहीं आता ..

अकिंचन मन

क्या चाहता है..
(चित्र मेरे मित्र सुनिल कुबेर ने कैमरे में कैद किया)

13 thoughts on “अकिंचन मन .. न चैट, न बज्ज, न ब्लॉगिंग … मेरी कविता .. विवेक रस्तोगी

  1. मन को शान्ति नहीं है, तो किसी हिमालयी जगह पर एक चक्कर मार आइये। पक्का कह रहा हूं कि बज्ज, चैट, ब्लॉगिंग हर जगह मन लगेगा।

  2. कविताई तो रास आ रही है जनाब, ये ही जारी रखिये.. मन तो बिना बंधे हुए फुग्गे की तरह इधर उधर दिशाहीन सा जा कर अंत में खुद बा खुद जमीन पर आ जाएगा… तो बस इंतज़ार करिए और शगल में व्यस्त रखिये खुद को …

  3. यही तो मैं कह रहा था -ज्यादातर कवितायेँ फ्रस्ट्रेशन के दौर में ही लिखी जाती हैं

  4. अरे भैया हमारे साथ भी ये कितने बार ही होता है…कभी कभी तो ऐसे ही बैठे बैठे लगातार फेसबुक, जीमेल बज्ज रिफ्रेश करते रहते हैं….

    वैसे, अरविन्द जी की बात बहुत सही है…:)

  5. समझ नहीं आता
    अकिंचन मन
    क्या चाहता है।

    मन के अंतर्द्वंद्व को उकेरती हुई अभिव्यक्ति।

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