घर के पास ही दुर्गापूजा का पांडाल लगा है, तो पहले ही दिन पूजा में हो आये, जाकर देखा तो इतना बड़ा पांडाल और इतनी सी मूर्ती, खैर अब मुंबई की आदतें इतनी जल्दी भी नहीं जायेंगी। गरबा और डांडिया का तो कहीं आस पास पता ही नहीं है और अगर है भी तो इतनी दूर वह भी रात १० बजे से शुरू होता है और पूरी तरह से व्यावसायिक, जहाँ गरबा के मैदान में जाने का टिकट है, वह भी ५०० रुपये से शुरु।
पहले झाबुआ में थे तो वहाँ असली गरबे का रंग चढ़ा था, और जो गरबे वहाँ देखे और खेले थे वह गरबे और डांडिया बस यादें बनकर रह गये हैं। झाबुआ में लगभग हर कॉलोनी में गरबे डांडिया रास का आयोजन होता था, और सभी लोग गरबे में शिरकत किया करते थे। और कहीं पर भी किसी भी जगह डांडिया खेलने की आजादी होती थी, जरूरी नहीं होता था कि कोई शुल्क दिया जाये या वहीं के रहवासी हों।
परंतु अब तो हर जगह गरबे और डांडिया ने व्यावसायिक रूप ले लिया है, डांडिया दुर्गामाता की आराधना करने का ही एक स्वरूप माना जाता है, परंतु आराधना भी अब सामान्य वयक्ति के बस की बात नहीं रह गई है।
आज भी अच्छॆ से याद है हमारे महाविद्यालय में कार्यालय में कार्यरत राठौड़ साहब इतना अच्छा गरबा गाते थे कि उनकी माँग दूर दूर तक होती थी, जैसे माँ का आशीर्वाद हो उनके ऊपर, उनका सबसे अच्छा गायन लगता था पारंपरिक गरबे पर “पंखिड़ा ओ पंखिड़ा “।
आजकल पारंपरिक गरबे के गाने तो सुनने को मिलते ही नहीं हैं, आजकल फ़िल्मी गानों पर गरबा होता है। खैर पता नहीं कि झाबुआ में भी अब गरबे का स्वरूप व्यावसायिक हो गया हो, परंतु हाँ पुराने दिन तो याद आते ही हैं।
अहमदाबाद में देखा था, बड़ा ही अच्छा लगा था।
मुंबई में भी हाऊसिंग सोसायटी के गरबे को छोड़ हर जगह टिकट ले कर ही जाना होता है वो भी काफी महंगे | गरबा ही क्या समय के साथ हर चीज का रंग बदलता है हर आने वाली पीढ़ी हर चीज अपने रंग में रंगती चलती है |
जी, पैसा बोलता है.
धर्मं क्षेत्र में भी …
इत्तेफाक देखिये, प्रवीण भैया ने भी अहमदाबाद में देखा था गरबा और मैंने भी सबसे पहले वहीँ देखा था 🙂
वैसे इधर पैलेस ग्राऊंड में जो दुर्गा पूजा का पंडाल लगा है उसे देख के भी मैंने यही सोचा..की इतना बड़ा पंडाल और इतनी सी मूर्ति 🙁
फिल्मों और टेलिविजन की देखादेखी यहां हमारे छोटे से कस्बे में भी 2-4 साल से ये होने लगा है… कुछेक मैरिज गार्डन वालों के लिए ऑफ-सीजन में धंधे का बढि़या इंतजाम हो जाता है…
तालाब में पानी उतरता है तो चारों ओर से समान रूप से उतरता है। समय के प्रभाव से अब झाबुआ भी शायद ही अछूता रह पाया हो।