Monthly Archives: November 2011

एफ़डीआई का हल्ले के बहाने महँगाई और रूपये के अवमूल्यन पर भी चिंतन, हलकान है जनता.. [FDI, Inflation and Depreciation of Rupee… my views]

जहाँ देखो वहीं विदेशी खुदरा दुकानों का हल्ला मचा हुआ है और जनता महँगाई के मारे हलकान हुई जा रही है। महँगाई सर चढ़कर बोल रही है।

किसान को सब्जी का क्या भाव मिलता है और दुकानें किस भाव में बेचती हैं यह एक शोध का विषय है। और अगर शोध किया जाये तो शायद दुनिया चकित रह जायेगी कि किसान को टमाटर का ३ रू. किलो मिलता है और जनता दुकानदार को ४० रू. किलो दे रही है, तो बाकी का बीच का ३७ रू. ये बड़े खुदरा दुकानों के मालिक खा रहे हैं।

जब मुंबई में थे तो वहाँ कोई भी सब्जी कम से कम ४० रू. किलो मिलती थी और अधिकतर तो १६० रू. किलो तक भाव होते थे। पता नहीं कहाँ से महँगाई आई, और यही सब्जी चैन्नई या बैंगलोर में देखें तो अधिकतम ४० रू. किलो सब्जी मिल रही है। टमाटर मुंबई में आज भी ४० रू. किलो हैं और यहाँ बैंगलोर में १६ रू. किलो मिल रहे हैं।

खैर नेता लोग चिल्ला रहे हैं कि विदेशी खुदरा दुकानें आ गईं तो हम आग लगा देंगे, खुलने नहीं देंगे, परंतु क्यों नहीं खुलने देंगे ये नहीं बता रहे हैं, जब रिलायंस रिटेल खुल रहा था तब भी लोगों ने बहुत तोड़ फ़ोड़ की थी, अब हालत यह है कि वही तोड़ फ़ोड़ करने वाले लोग रिलायंस रिटेल से समान खरीद रहे हैं।

थोड़े दिनों बाद विरोधी स्वर विदेशी खुदरा दुकानों के फ़ीता काटते नजर आयेंगे। जनता को समझाइये कि विदेशी खुदरा दुकानों से क्या नुक्सान होगा। आज अखबार में पढ़ा कि जयपुर में कैनोफ़र ने जयपुर के सभी थोक अंडा व्यापारियों से करार कर लिया है, अब सभी खुदरा व्यापारियों को अंडे मिलना बंद हो जायेगा। पहली बात तो यह उन थोक व्यापारियों की गलती है जिन्होंने ये करार किये हैं और वैसे भी भारत है जहाँ हर चीज का जुगाड़ होता है, जब सरकार जुगाड़ से चल सकती है तो ये व्यापार क्या चीज है। खैर आगे क्या होगा यह तो ये करार कार्यांन्वयन होने के बाद ही पता चलेगा। हमारे खुदरा व्यापारी कोई ना कोई तोड़ निकाल ही लेंगे।

ऐसा नहीं है कि मैं विदेशी खुदरा दुकानों का समर्थक हूँ परंतु हाँ यह अर्थव्यवस्था के लिये ठीक होगा और रूपये के अवमूल्यन होने से कुछ हद तक रोकेगा। परंतु रूपये का अवमूल्यन रोकने के लिये क्या इस तरह के हथकंडे अपनाना उचित है ? कतई नहीं !

परंतु नेता जनता को कितना बेवकूफ़ बनायेंगे, अगर इन नेताओं ने घोटाले नहीं किये होते, भ्रष्टाचार पर लगाम कसी होती और भारत के विकास में उस रूपये का योगदान किया होता तो शायद रूपये के मूल्य का अवमूल्यन नहीं होता उल्टा डॉलर कमजोर होता, परंतु सरकार विदेशी लोगों को बाजार में भी तरह तरह के साधन उपलब्ध करवाती है कि ये लोग आसानी से भाग लेते हैं, और जनता ठगी से देखती रह जाती है।

जरूरत है सरकार में नेताओं में विकास की इच्छाशक्ति की कमी की, अगर इन नेताओं में यह इच्छाशक्ति आ जाये तो हम विकास के पथ पर अग्रसर होंगे। लोग कहते हैं कि दस वर्ष में हम नंबर वन बना देंगे, पिछले पाँच वर्ष में भारत को कौन से नंबर पर लाये हैं, ये तो सब जानते हैं।

बात रही [बेचारे] खुदरा दुकानदारों की तो वे बेचारे तो रोजमर्रा कि चीजों को बेचकर अपना घर चला लेंगे। जैसे अगर आपको ब्रेड लेने जाना हो तो आप विदेशी खुदरा दुकानों में तो नहीं जायेंगे ना, बस ऐसे ही बहुत सारी चीजें हैं जो कि आप बिना पार्किंग में अपनी गाड़ी लगाये लेना चाहेंगे या घर से गाड़ी नहीं निकालकर पास के दुकान से लेंगे। तो सरकार को यह समझ लेना चाहिये कि १० लाख से ज्यादा जनता वाले शहर बहुत समझदार हैं।

मुंबई में जहाँ हम रहते थे वहाँ भी आसपास बहुत मॉल थे, परंतु लगभग सभी लोग एक किराने वाले से ही समान लेते थे, वजह वह कीमत में सीधी छूट देता था और उसकी स्कीमें भी आकर्षक होती थीं। फ़िर घर पहुँच सेवा, आप जाकर बोल दीजिये और घर पर समान पहुँच जायेगा। अगर आपकी घर से निकलने की इच्छा नहीं है तो केवल फ़ोन लगा दीजिये और समान घर पर होगा। उस किराना व्यवसायी का स्वभाव बहुत अच्छा था और मृदु भाषी है। यह सब बातें कहाँ देशी और कहाँ विदेशी खुदरा दुकानों पर मिलेंगी।

मल्टी ब्रांड रिटेल पर इतना घमासान क्यों ? (Why protestation against Multi Brand FDI ?)

सरकार ने ५१ फ़ीसदी तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दे दी, इस पर सरकार से विपक्ष और पक्ष के लोग बहुत नाराज हैं। क्या कारण है कि वे नाराज हैं –

१. खुदरा व्यापारियों को नुक्सान होगा ।

२. जो उनके यहाँ काम कर रहे हैं वे लोग बेरोजगार हो जायेंगे।

और भी बहुत से कारण हैं, परंतु उपरोक्त २ कारण ही मुख्य हैं।

जबकि सरकार ने साफ़ साफ़ कहा है कि ये खुदरा विदेशी दुकानें दस लाख से ज्यादा वाली आबादी में ही खुलेंगी।

अब अगर देखा जाये तो दस लाख से ज्यादा आबादी वाली जगहों पर आज बड़ी दुकानों जैसे हॉयपर सिटी, रिलायंस, बिग बाजार इत्यादि का कब्जा है । तो अभी भी तो वहाँ खुदरा व्यापारियों के लिये मुश्किल है। अगर मल्टी ब्रांड विदेशी खुदरा दुकानें आती हैं तो असली प्रतियोगिता तो बड़ी देशी खुदरा दुकानों और विदेशी खुदरा दुकानों के मध्य होगी। छोटे खुदरा व्यापारियों पर तो कोई असर नहीं पड़ने वाला है।

वालमार्ट विदेशी खुदरा दुकानें अभी बड़े देशी खुदरा दुकानों पर सभी सामान जरूर मिलता है, परंतु ये दुकानें अच्छी खासी कमाई कर रही हैं, और उपभोक्ताओं को कीमत मॆं कोई राहत नहीं है, उपभोक्ता को तो सामान छपी हुई कीमत पर ही मिलता है। जबकि ये देशी खुदरा दुकानें सामान सीधे कंपनियों से खरीदते हैं तो इनका डिस्ट्रीब्यूटर और डीलर इत्यादि मार्जिन भी बचता है, ट्रांसपोर्टेशन शुल्क में बचत होती है, कर में बचत होती है। जब ये देशी खुदरा दुकानें खुली थीं तब दावा किया गया था कि वस्तुएँ सीधे उपभोक्ता तक पहुंचेंगी और उपभोक्ता को कीमत में भारी फ़ायदा होगा, परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। यही दावा अब विदेशी खुदरा दुकानें वालमार्ट, कैश एंड कैरी, केरफ़ोर इत्यादि कर रहे हैं। जब ये विदेशी खुदरा दुकानें आयेंगी तभी पता चलेगा कि उपभोक्ता को कितना फ़ायदा होता है।

बड़े देशी खुदरा दुकानों की बात की जाये तो मालवा (इंदौर, उज्जैन) में पाकीजा का एक तरफ़ा कब्जा है, जबकि वहाँ पर सभी बड़े देशी खुदरा दुकानदार मौजूद हैं। उसका मूल कारण है कि वे उपभोक्ता को सीधे कीमत में लाभ देते हैं, वे बात नहीं करते, उपभोक्ता को फ़ायदा देते हैं। उसका परिणाम यह हुआ कि अधिकतर लोग अब पाकीजा रिटेल से खरीदारी करने लगे हैं और वहाँ है असली समस्या छोटे खुदरा व्यापारियों की, तो अब वे भी उपभोक्ताओं को विभिन्न स्कीमों का प्रलोभन दे रहे हैं। वैसे वाकई बड़े खुदरा व्यापारियों को पाकीजा की उपभोक्ता नीतियों का अध्ययन करना चाहिये, जो उनके लिये बहुत फ़ायदेमंद साबित हो सकता है।

ये तो भविष्य में उपभोक्ता ही तय करेगा कि कौन खुदरा बाजार पर राज करेगा मल्टी ब्रांड विदेशी खुदरा दुकानें या देशी खुदरा दुकानें, यह तो तय है कि जो भी उपभोक्ता को ज्यादा फ़ायदा देगा वही बाजार में सिरमौर होगा।

क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? क्या इसीलिये आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं ? (Why Childs are not emotional ? why suicidal cases are increasing ?)

शिक्षा में बदलाव बेहद तेजी से हो रहे हैं और शिक्षक और छात्र के संबंध भी उतनी ही तेजी से बदलते जा रहे हैं। कल के अखबार की मुख्य खबर थी यहाँ बैंगलोर में इंजीनियरिंग महाविद्यालय के छात्र ने होस्टल के कमरे में पंखे से फ़ांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। खबर लगते ही हजारों के झुंड में छात्र इकठ्ठे हो गये और महाविद्यालय प्रशासन के खिलाफ़ नारेबाजी करने लगे। पुलिस बुलाई गई, परंतु छात्रों ने पुलिस को भी खदेड़ दिया और महाविद्यालय की इमारत को भी नुक्सान पहुँचाया। बाद में महाविद्यालय के मालिक का बयान आया कि वह छात्र कमजोर दिल का था और लगातार पिछले तीन वर्षों से उस छात्र का प्रदर्शन बहुत कमजोर था।

विषादग्रसित यह खब्रर पढ़ने के लिये नहीं लिखी हैं मैंने, सही बताऊँ तो मैंने कल अखबार ही नहीं पढ़ा था पर कल रात्रि  भोजन पर भाई से चर्चा हो रही थी तब इस और ध्यान गया और आज सुबह कल का अखबार पढ़ पाया । मन अजीब हो उठा और लगा क्या महाविद्यालय प्रशासन ने कभी उस छात्र के मन में क्या चल रहा है, यह जानने की कोशिश की। महाविद्यालय प्रशासन महज छात्र के घर एक पत्र भेजकर अपनी जिम्मेदारी से तो नहीं बच सकता ।

आज छात्र बहुत ही संवेदनशील परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, क्योंकि वे अब भावुक नहीं रहे, अब छात्रों से भावनाओं के बल पर कोई भी कार्य करवाना असंभव है। उसके पीछे बहुत सारे कारण जिम्मेदार हैं, परवरिश के बेहतर माहौल में कमी, शिक्षकों से अच्छा समन्वयन न होना । ऐसे बहुत सारे कारण हैं। क्योंकि आजकल बच्चों को इंटरनेट पर सब मिल जाता है तो कई बच्चे तो दोस्त भी नहीं बनाते हैं और इंटरनेट पर ही अपना समय बिताते पाये जाते हैं।

अब मेरे मन में जो सवाल उठ रहे हैं कि क्या महाविद्यालय का छात्र पर अच्छे प्रदर्शन के लिये दबाब बनाना उचित था, और अगर दबाब बनाया गया तो उसे क्या उचित मार्गदर्शन दिया गया । छात्र के घर पर पत्र भेजने से छात्र की मानसिक हालात को समझा जा सकता है। हरेक छात्र के माता-पिता यही सोचते हैं कि बेटा अच्छा पढ़ रहा है परंतु अगर महाविद्यालय से इस प्रकार का पत्र मिले तो वे यकीनन ही अपने बेटे पर क्रुद्ध होंगे, और उसे परिस्थिती से बचने के लिये उस छात्र ने आत्महत्या कर ली हो ? छात्र तो पहले से ही विषादग्रसित था, उसको मनोवैज्ञानिक तरीके से संभालना चाहिये था। परंतु ऐसा ना हुआ, अब उन माता-पिता पर क्या गुजर रही होगी जिन्होंने अपना जवान बेटा इसलिये खो दिया क्योंकि वह पढ़ाई में कमजोर था, नहीं ? वह पढ़ाई में कमजोर होने के कारण विषादग्रसित हो चला था।

पढ़ाई में कमजोर होना कोई बुरी बात तो नहीं, पढ़ाई ही तो सबकुछ नहीं है, उससे बढ़कर होता है जीवन जीने का हौसला और उस विषादित परिस्थिती से निकालने में सहायक परिवेश और परवरिश। कमजोर पढ़ाई वाले पता नहीं कितनी आगे निकल गये हैं और पढ़ाई वाले कहीं पीछे रह गये हैं।

मुख्य सवाल जो मेरे मन में है और उसका उत्तर खोजने की कोशिश जारी है मनन जारी है, क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? और उनके आधुनिक परिवेश में उन्हें कैसी परवरिश देनी चाहिये ?

हैलो… हिन्दी आता है क्या ? (Hello ! Do you know Hindi ?)

    ऑफ़िस से आते समय थोड़ा पहले ही घर के लिये उतरना पड़ा तो सिग्नल पर एक आदमी टकराया और बोला “हैलो… हिन्दी आता है क्या?” हमने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और चुपचाप चल दिये कि जैसे अपने को नहीं किसी और को बोला हो।

     कई बार ऐसे व्यक्ति मिले हैं, जो कि उत्तर भारतीय लोगों को निशाना बनाते हैं और उनसे मदद के नाम पर ठगी करते हैं, इसलिये अब तो हम बिल्कुल मदद नहीं करते हैं, हाँ इसमें अगर कोई जरूरतमंद होता है तो भी उसकी जानबूझकर मदद नहीं कर पाते हैं।

    ये वाक्ये केवल बैंगलोर में ही नहीं भारत में लगभग सभी जगह होते हैं। अगर बात करने रूक जाओ तो उसकी आँखों मॆं विशेष चमक आ जाती है और पता नहीं कहाँ से उसका परिवार भी प्रकट हो जाता है जिसमें अमूमन उसकी पत्नी और एक याद दो बच्चे होते हैं, जो कि फ़टॆहाल होते हैं। और फ़िर शुरू होता है खेल रूपये ऐंठने का । कहा जाता है हम दूर दराज से आये हैं और यहाँ काम नहीं मिल पाया है और अब खाने के भी पैसे नहीं है, खाने के ही पैसे दे दीजिये, घर वापस जाना है कैसे जायें समझ नहीं आ रहा । इस सबसे ही माजरा समझ में आ जाता है कि इन लोगों ने लोगों के हृदय को झकझोर कर रूपये ऐंठने का धंधा बना रखा है ।

    क्योंकि जहाँ तक मैं सोचता हूँ आज भी दूर दराज के गाँव का कोई भी व्यक्ति शहर कुछ करने आयेगा तो पहली बात तो वह अकेला आयेगा ना कि अपने परिवार के साथ, और अगर वह कुछ करना चाहता है तो बड़े शहरों में इतना काम होता है कि कोई न कोई काम मिल ही जाता है, और अगर कोई काम न करना चाहे तो वह अलग बात है।

    गाँव का व्यक्ति कभी भी अपने स्वाभिमान से डिगेगा नहीं, कि उसे भीख माँगनी पड़ जाये, वह भूखे रह लेगा या वापिस बिना टिकट जैसे तैसे अपने गाँव वापिस चले जायेगा, किंतु शायद ही वह अपने स्वाभिमान से समझौता करेगा, हो सकता है कि कुछ लोगों की परिस्थितियाँ अलग हों। किंतु इतने सारे लोगों की परिस्थितियाँ तो एक जैसी नहीं हो सकतीं।

त्यौहार पर सीधे पहली गाड़ी पकड़कर अपने घर अपने जड़ की तरफ़ भागते हैं, अब आप कैसे समझोगे युवराज !

विकास नहीं होगा तो युवराज बाहर जाकर मजदूरी भी करनी पड़ेगी और भीख भी मांगना पड़ेगी। सभी युवराज आप जैसे सुनहरी किस्मत लेकर पैदा नहीं हुए हैं, अगर युवराज आपने कभी भूख और गरीबी को झेला होता तो शायद यह आप तो कभी नहीं कहते। आप और आपकी संपत्ति ५ वर्ष में २०० से १००० गुना तक बढ़ जाती है परंतु उनके ऊपर कोई आयकर जाँच नहीं होती है और एक व्यापारी जो कि अपनी मेहनत से काम करता है और किसी को घूस देने को मना कर देता है तो झट से सारी सरकारी मशीनरी उसके पीछे पड़े जाती है।

आपके मुँह से विकास की बातें अच्छी नहीं लगतीं, आप पहले कांग्रेस की भारत में उपलब्धियाँ गिनायें कि भारत देश को आगे विकास की राह पर ले जाने के लिये क्या क्या किया, चलो किया भी तो भी गिनायें, जनता को समझ तो आना चाहिये कि क्या क्या कर सकते थे और कितना किया । और अभी भी केवल विकास की भाषा बोल रहे हैं, नहीं युवराज अब ऐसी भाषा से जनता बहकने वाली नहीं है। ऐसी पार्टी से कैसे भारत देश के विकास की उम्मीद की जा सकती है जिनकी सरकार के दर्जन भर मंत्री जेल में हों और बहुत सारे दागी मंत्री हों। खुद केंद्रीय मंत्री आंदोलनकारियों को लात घूसे चलायें तो अब क्या बतायें।

आप बताओ विकास कैसे करोगे, जैसे कोई निजी कंपनी जब अपना उत्पाद किसी को बेचने जाती है तो उसके फ़ायदे बताती है, उस उत्पाद से कंपनी को फ़ायदा होगा तभी ना कंपनी खरीदेगी, जैसे सरकार, जब कोई भी चीज खरीदती है तो पूछा जाता है कि आपने कहाँ कहाँ उत्पाद बेचा है और उन लोगों को कितनी सुविधा हुई, उत्पाद कैसा चल रहा है । आपको समझना पड़ेगा कि जनता अब बेवकूफ़ नहीं रह गई है, जनता के पास सूचना है कि कब कहाँ क्या क्या हुआ और क्या क्या हो रहा है।

विकास के रास्ते पर देश को प्रदेश को कैसे ले जाओगे, उसका मास्टर प्लॉन बताओ तभी युवाओं और जनता की समझ में आयेगा। जब खुद दागी लोगों को आप टिकट देते हो, दागी मंत्री होते हैं, दागी मोटर पर घूम लेते हैं, तब प्रदेश में माफ़िया राज कहना कुछ ठीक नहीं लगता।

जो लोग घर से दूर पड़ें मजदूरी और नौकरी कर रहे हैं, उनके और उनके परिवार के दिल से पूछो कि क्या वे दूसरे प्रदेश में सुखी हैं, नहीं अलबत्ता लगभग सबका जबाब होगा कि अगर हमारे यहाँ भी घर में प्रदेश में अवसर होता तो बाहर तो नहीं आते, चाहे दो पैसे कम कमाते और दो पैसे कम बचाते।  किसी को भी घर के बाहर रहना अच्छा नहीं लगता अब आप को क्या पता युवराज जब ये सब आपके ऊपर बीतती तो आपको पता लगता। और वैसे भी भारत में कोई भी कहीं भी जाकर रह सकता है और कमा सकता है इसलिये यह बात बेमानी सी है कि आप केवल इतना कहकर मतदाता को बहका रहे हैं। और खुद पार्टी को हाशिये पर ले जाने की तैयारी कर चुके हैं।

बाहर जो भी रह रहे हैं पढ़े लिखे या अनपढ़ जो नौकरी कर रहे हैं या मजदूरी कर रहे हैं, पता है बाहर केवल पैसा कमाने आये हैं, त्यौहार पर सीधे पहली गाड़ी पकड़कर अपने घर अपने जड़ की तरफ़ भागते हैं, अगर यहीं रहना होता तो घर की तरफ़ नहीं जाते।

अब बात करें महाराष्ट्र की तो अगर मुंबई में बाहर का आदमी नहीं होगा तो मुंबई के चक्के थम जायेंगे, फ़ल फ़ूल और सब्जियाँ तो मिलनी ही बंद हो जायेगी, क्योंकि वहाँ ये सब काम तो अधिकतर बाहर वाले ही कर रहे हैं। ऑटो जो कि मुंबई के  परिवहन के मुख्य साधनों में से एक है बंद हो जायेंगे। दर्जी नहीं मिलते मुंबई में, दर्जी भी थोड़ी अच्छी कमाई के लिये मुंबई आते हैं, मैंने अपनी ऑखों से देखा है, दर्जी अपनी मशीन दुकान के बाहर लगाता है और रात को वहीं उसी मशीन के पास अपनी चादर बिछाकर सो जाता है, रहने के लिये कोई जगह नहीं लेता है क्योंकि उसमें भी पैसे खर्च होते हैं, और वह पैसे बचाकर अपने परिवार को भेजता है। नाई, नाई भी अधिकतर वहीं से हैं जहाँ से आप बोल रहे हो, परंतु क्या करेंगे वे भी घर पर कमाई १ हजार भी नहीं हो पाती और मुंबई में कम से कम १०-१२ हजार कमा लेते हैं, दुकान में ही सो जाते हैं, सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करते हैं, और पैसे बचाकर घर पर भेजते हैं, क्योंकि घर पर बुजुर्ग हैं जिन्हें दवा की जरूरत है छोटे भाई बहन हैं जिनको आगे पढ़ना है, घर में काम करवाना है, कम से कम अपने परिवार को सहारा तो देते हैं।

अगर आपने युवराज यह सब चीजें बहुत करीब से देखी होतीं तो शायद आपको पता होता कि विकास का क्या महत्व है। आपको वोट देने में कोई बुराई नहीं है परंतु विकास की राह तो बताईये कि हाँ हम गाँव और शहरों में कैसे विकास लायेंगे हमे दागी लोगों को टिकट नहीं देंगे, सरकारी मशीनरी की मदद से लोगों को स्वरोजगार में मदद करेंगे। केवल विकास की बातों से कुछ नहीं होगा।

यह दर्द है ऐसे ही एक दुखहारे का जिसके प्रदेश में कांग्रेस ने लगभग ४५-५० वर्ष शासन किया परंतु वहाँ प्रगति के नाम पर कुछ नहीं हुआ, और कुछ अपना करने की कोशिश भी की तो सरकारी तंत्र से कोई सहायता नहीं मिली और मजबूरी में बाहर नौकरी कर रहा है, नौकरी याने कि जो किसी का नौकर है, तो जब मालिक अपनी पर आता है तो वह बेचारा मजदूर बन जाता है। अगर उस प्रदेश में विकास के लिये कुछ महत्वपूर्ण काम किये गये होते तो वह दुखहारा भी अपने घर अपने प्रदेश अपनी माटी से उतना ही प्यार करता है जितना आप युवराज आप वोट से करते हो।

सुपारी देना किसको कहते हैं और सुपारी के गुण और उसकी गाथा

सुपारी देना शब्द कहाँ से आया बहुत ढूँढ़ा कहीं मिला नहीं, वैसे हमें तो केवल इतना पता है कि सुपारी पान बीड़ा का एक अवयव है, परंतु यही सुपारी कब इस अलग रूप में आ गई, पता ही नहीं चला, खासकर फ़िल्मों और सीरियलों में बहुत सुनने को मिलता है कि फ़लाने की सुपारी दे दी, मतलब कि हत्या करने के लिये किसी को पैसे दिये गये ।
वैसे सुपारी तो हमारी संस्कृति का अंग है और सुपारी को पूजा में भी रखा जाता है। आखिरकार अपने पुराने जमाने वाले लोगों ने जिन्होंने सुपारी को खाने लायक समझा होगा, उनको दाद देनी होगी कि इतने कठोर फ़ल को भी खाने में और पूजा में प्रयुक्त किया, और सुपारी को खाने के लिये सरौते का भी अविष्कार किया, अब कहते हैं ना कि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी होती है।
सुपारी के बहुत सारे औषधीय उपयोग भी हैं –
 मुंह के रोग : 10-10 ग्राम बड़ी इलायची और सुपारी को जलाकर मुंह में छिड़कने से मुंह के सभी रोग ठीक हो जाते हैं।
और भी उपयोग होंगे परंतु और याद नहीं हैं, स्वाद बिल्कुल पानी जैसा कि कोई स्वाद नहीं परंतु हाँ कुछ मिला लो तो इसका स्वाद बेहतरीन है तभी तो आजकल मीठी सुपारी मिलती है, परंतु वह भी प्रोसेस्ड होती है, उसे तो बिल्कुल खाना ही नहीं चाहिये।
सुपारी भी कई प्रकार की होती है, हमें तो बस इतना ही पता है कि सुपारी कच्ची भी होती है और पक्की भी या शायद भुनी हुई होती हो। सुपारी भी अलग अलग तरह में काटी जाती है, जैसे कि बोल्डर, चिप्स इत्यादि, अब सुपारी इतनी कठोर होती है कि हमें खाने में बहुत दिक्कत होती है और मसूढ़े भी छिल जाते हैं, तो हम चिप्स खाते थे परंतु अब यहाँ दक्षिण में भाई लोग बोल्डर ही देते हैं।
एक हमारे मित्र हैं जिनके केरल में समुद्रीय इलाके में खेत हैं वह भी सुपारी के, वहाँ सुपारी की ही खेती होती है और उनसे पता चला कि किसान को ज्यादा पैसा नहीं मिलता, सुपारी महँगी है और उसके पीछे कारण है बिचौलिये और सेठ लोग जो कि सुपारी खरीदते हैं।
सुपारी कहाँ से याद आई थी और उस पर इतना सारा लिख भी दिया, दरअसल कहीं से एक सुपारी खाने के लिये मिली थी जो कि पूजा के बाद की थी और उसे हमें ही खाना था, पहले तो इसी आस में जेब में पड़ी रही कि कभी हाथ से तोड़कर खा लेंगे । बहुत प्रयास किया हाथ से नहीं टूटी, फ़िर दाँत से तोड़ने की कोशिश की तो उसमें भी असफ़ल रहे और जल्दी ही समझ में आ गया सुपारी तो नहीं टूटेगी अपने दाँत जरूर टूट जायेंगे, फ़िर मूसल से तोड़ने की कोशिश की उसमें भी नाकाम। आखिरकार पान की दुकान पर जाकर सरौते से कटवाना पड़ी, पान वाले से पूछा कि सुपारी और किस तरीके से तोड़ी या काटी जा सकती है तो उसने बताया कि केवल सरौते से ही काटी जा सकती है, वह तो अच्छा हुआ कि हमने जितने उपाय किये थे वे नहीं बताये वरना सुपारी के ऊपर हमारे किये गये एक्सपीरियमेंट पर हँस हँस कर लोट पोट हो लेता। सोचा कि अपना ब्लॉग वो थोड़े ही पढ़ेगा तो यहीं लिख देते हैं।

गूगल क्रोम ब्राऊजर का वेब स्टोर (Web Store from Google Chrome in Browser)

गूगल क्रोम तो लगभग सभी उपयोग करते होंगे परंतु उसकी apps को बहुत ही कम लोग उपयोग करते होंगे। अभी दो दिन पहले प्रवीण पांडे जी की पोस्ट आयी थी संदेश और कोलाहल यहाँ पर ज्ञानदत्त पांडे जी की टिप्पणी थी फ़ीडली बढ़िया औजार है, गूगल रीडर से सिंक करने के लिये । और वहीं विषय से संबंधित एक टिप्पणी थी पूजा उपाध्याय की, ब्लॉग के एड्रेस के अंत में अगर /view लिख दिया जाये तो ब्लॉग सरल अवतार में मिलेगा । बस इन दो टिप्पणियों से बहुत कुछ सीखने को मिला ।
और हम जुट गये गूगल क्रोम को टटोलने में, खजाना छिपा हुआ था जरूरत थी तो केवल खंगालने की। बिल्कुल वैसे ही जैसे ईश्वर हृदय में बसा हुआ है पर हम ढूँढ़ते बाहर हैं ।
गूगल कोम ब्राऊजर खोला कर पहले ध्यान से देखा गया तो पाया कि नीचे मध्य में दो टैब दिये हुए हैं, हालांकि कुछ दिन पहले देखा था, परंतु ज्यादा दिमाग नहीं लगाकर छोड़ दिया गया था कि कभी और देखेंगे और हम यह खजाना देखने से चूक गये थे।
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यहाँ Most Visited एवं Apps टैब दे रखे हैं, जिसमें कि Most Visited में वह वैबसाईट के आईकॉन दिखाता है जो कि आप   ज्यादा घूमते हैं, जिससे नेविगेशन में आसानी होती है और आपको केवल एक क्लिक पर अपनी मनपसंदीदा वेबसाईट पर चले जाते हैं।  Apps में सबसे पहला आईकॉन दिखेगा Chrome web store, जैसे ही इस पर क्लिक करेंगे बस बहुत सारी एपलीकेशन्स का खजाना आपके सामने होगा।
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ऊपर दिये गये चित्र में देखिये पहला आईकॉन Chrome Web Store का है और आगे के आईकॉन जो एपलिकेशन मैंने अपने ब्राऊजर में संस्थापित कर रखी हैं। इन एपलिकेशन को संस्थापित करने से काम करने की गति में इजाफ़ा होता है और इससे बहुत ही ज्यादा सरलीकरण भी हो जाता है।
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ऊपर दिये गये चित्र में देखेंगे तो बायीं तरफ़ वर्गीकरण तालिका दे रखी है और दायें और उस वर्ग के एपलिकेशन्स दे रखे हैं। हमें तो बहुत सारे एपलिकेशन्स काम के मिले और उनसे हमारा काम भी बहुत आसान हो गया।
आप भी आजमाईये।

लिव-इन रिलेशनशिप मतलब बराबर का खर्चा

आजकल लिव-इन रिलेशनशिप का फ़ंडा कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ता जा रहा है, अभी हाल ही में एक परिचित से बात हो रही थी, तो उसने बताया कि उसके साथ काम करने वाली एक लड़की से उसकी बात हो रही थी।
उस लड़की ने बताया कि वह पिछले दो साल से लिव-इन रिलेशन में रह रही है और साथ ही होस्टल का किराया भी भरती है, जब भी लड़की के घरवाले बैंगलोर मिलने को आते हैं, वह होस्टल चली जाती है और उनके वापिस जाते ही वह वापिस उस फ़्लैट में शिफ़्ट हो जाती है। तो उसने पूछा कि शादी क्यों नहीं कर लेते हो जब दो वर्षों से लिव-इन में रह रहे हो, उसका जबाब था कि जब जिंदगी बिना टेन्शन के चल रही है और अभी शादी की जरूरत भी महसूस नहीं हो रही तो शादी क्यों कर ली जाये।
फ़िर उससे पूछा कि खर्चा कैसे करते हो, तो वह बोली कि तुम दोस्त लोग कैसे फ़्लैट शेयर करके रहते हो और खर्चा बांटते हो बस वैसे ही हम अपना खर्चा बांटते हैं, हरेक खर्च में हम दोनों बराबर के हिस्सेदार होते हैं, शादी नहीं होने के बाबजूद शादीशुदा जिंदगी का लुत्फ़ उठाते हैं, घर के हर काम में भागीदारी करते हैं।
लड़का और लड़की दोनों उत्तर भारत के रहने वाले हैं, और दोनों ही संस्कारी परिवार से हैं। परंतु आजकल के खुलेपन में शायद अपनी मर्यादाओं को भुल गये लगते हैं, उनकी सोचने की दिशा बदल गई है।
हम तो यह सोचते हैं कि अगर लिव-इन में रहना जरूरी है तो घर वालों से पर्दा क्यों, जो भी करो खुलेआम करो । किसी से डरने की जरूरत ही क्या है ?

बिस्तर पर कैसे और किसके साथ नींद में होते हैं, नींद को कभी जाना है ?

बिस्तर पर लगभग गिरा ही था और नींद के आगोश में पूरी तरह से खो चुका था, चादर की वह सल वैसी ही रही, जैसी पहले थी, और बस वह सल के साथ बिस्तर पर ढ़ह चुका था। जब नींद आती है तो वह सोने की जगह नहीं देखती। एक समय था जब बिस्तर पर एक भी सल हो मजाल है, परंतु आज इतने वर्षों में जिंदगी के इतने सारे रंग और रास्ते देखने के बाद थकान इतनी बड़ चली है कि उसे उस सल का भी ध्यान नही रहा जिससे उसे हमेशा से चिढ़ रही है।
बचपन में उसने पढ़ा था कि भगवान राम या भरत अब याद नहीं, इतने नाजुक थे कि एक बार बिस्तर पर लंबा सा बाल पड़ा रह गया था तो उनके शरीर पर लाल रंग की रेखा उभर आई थी, खैर उभर तो इसलिये ही आई होगी कि वे भी भरपूर नींद के आगोश में थे। अगर तकलीफ़ होती तो उठकर बाल नहीं हटा देते।
इसलिये मानना है कि नींद जिंदगी का सबसे बड़ा नशा है, किसी के पास कितनी भी दौलत आ जाये परंतु वह बिना नींद के रह नहीं सकता, उसे नींद लेना बहुत जरूरी है।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जो बिस्तर पर तभी जाते हैं जब नींद आ रही होती है और बिस्तर पर लेटते ही नींद के आगोश में खो जाते हैं, हमारे हिसाब से तो वे बहुत ही खुशकिस्मत लोग होते हैं, क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि ऐसे लोग अपना पूरा काम निपटाने के बाद इतमिनान से चिंतन करके पूरी तरह सोने की मानसिक चेतना के साथ जाते हैं।
कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो कि बिस्तर पर तो चले जाते हैं क्योंकि सोने का समय हो गया है, परंतु नींद उनकी आँखों से कोसों दूर होती है, तरह तरह के नायाब नुस्खे अपनाते हैं नींद बुलाने के लिये परंतु नींद है कि आने का नाम ही नहीं लेती, हमें ऐसा लगता है कि ऐसे लोग दो प्रकार के हो सकते हैं एक वे जिनके पास कोई काम नहीं होता और थकान नहीं होती और दूसरे वे जिनको आज और कल दोनों की बहुत ज्यादा चिंता रहती है और उसी चिंता में घुले जाते हैं।
कुछ लोग उसके जैसे होते हैं, जो कि काम के बोझ के मारे होते हैं जो मजदूरों की तरह काम करते हैं और घर के लिये निकलने पर पूरी नींद में होते हैं, ये काम को बेहतरीन तरीके से करते हैं, परंतु इनके पास काम इतना होता है कि खुद के लिये सोचने का समय ही नहीं होता बस ये सोचते हैं कि नींद लेकर शरीर को रिचार्ज कर लिया जाये और अगले दिन के लिये ऊर्जा इकठ्ठी कर ली जाये।
अब वह बोल रहा था कि कम से कम बिस्तर की सल तो निकाल कर सोयेगा, नहीं तो उसे रात में २ बजे उठकर वह सल हटाना पड़ती है, मैं सोच रहा था क्या नींद में भी इतना अनुशासन जरूरी है ?

प्रोड़क्टिव मेन अवर्स बर्बाद और आभिजात्य वर्ग की मानसिक मजदूरी

अभी दो दिनों से कार्यालय जा रहे हैं, नहीं तो घर से ही काम कर रहे थे। इन दो दिनों में आना जाना और कई लोगों से मिलना हुआ।

घर से काम करने में यह तो है कि घर पर परिवार को समय ज्यादा दे पाते हैं, परंतु काम करने में थोड़ी बहुत अड़चनें भी आती हैं, खैर हमेशा परिवार के साथ रहते हैं, और आने जाने का लगभग २ घंटे का समय भी बचता है, जो कि कहीं और निवेश कर दिया जाता है।

कल जब बस स्टॉप पर बस पकड़ने के लिये खड़े थे तो ऐसा लगा कि सदियाँ बीत गईं हैं सफ़र किये हुए, और बस का इंतजार और बस के इंतजार में खड़े लोग पता नहीं कितने सारे प्रोड़क्टिव मेन अवर्स बर्बाद हो रहे थे और हम कुछ कर नहीं सकते थे, केवल देख सकते थे। व परिवार को जो समय दिया जा सकता है, वह भी कम्यूटिंग में निकल जाता है।

कोई भाग रहा है कोई दौड़ रहा है, कोई मुस्करा रहा है कोई टेंशन में है, सबकी अपनी अपनी दुविधाएँ हैं तो सबके अपने अपने सुख दुख हैं।

रोजी रोटी जो न कराये वह कम है, एक लड़की अपने मित्र का एस.एम.एस. पढ़ पढ़कर दुखी हो रही है, उसके ब्वॉय फ़्रेंड ने एस.एम.एस. में कहा है कि मैं तुम्हारे लिये बहुत सारा समय निकाल सकता हूँ परंतु मेरी और भी प्रायोरिटीज हैं, प्लीज समझा करो और मुझसे ज्यादा एक्स्पेक्ट मत करो, मैं सोचने लगा कि वाह लड़के भी आजकल इतना साफ़ साफ़ मैसेज भेजने की हिम्मत रखते हैं।

नहीं तो हम तो सोचते थे कि केवल लड़कियाँ ही साफ़ साफ़ बोलती हैं 🙂 खैर जब लिफ़्ट के पास होते हैं तो सबके हाथों में मोबाईल देखते हैं, अधिकतर आई फ़ोन लिये दिखते हैं, तो अपने ऊपर कोफ़्त होती है कि अपन इतने आधुनिक क्यों ना हुए.. और जिनके पास ब्लैक बैरी है तो पता चल जाता है कि कंपनी ने दिया है कि बेटा २४ घंटे खाते पीते उठते जागते चलते फ़िरते काम करते रहो। इससे यह तो समझ में आ गया कि आई फ़ोन वाला वर्ग विलासिता भोगी हो सकता है और ब्लैक बैरी वाला अच्छे कपड़ों में मानसिक मजदूर।

अच्छा है कि अपन अभी इन दोनों वर्गों से दूर हैं, या भाग रहे हैं, पहले जब कंपनी लेपटॉप देती थी तो लगता था कि २४ घंटे मजदूरी के लिये दे रही है, परंतु धीरे धीरे अब समय बदल गया है और अब सबको ही लेपटॉप ही दिया जाता है, अब डेस्क्टॉप का जमाना लद गया।

खैर आभिजात्य वर्ग की मानसिक मजदूरी कितने लोग देख पाते होंगे पता नहीं, जो ब्लैकबैरी और लेपटॉप में उलझा रहता है।