ऐसे तो रोज ही कई किस्से होते हैं लिखने के लिये, आजकल रोज ही मेट्रो से आना जाना होता है, आते समय अब कुतुबमीनार से मेट्रो बन के चलने के कारण वहीं से अधिकतर आना होता है, सब अपने अॉफिस से थके मांदे निकले हुए दिखते हैं, सब के शक्ल से ही बारह बजे नजर आते हैं ।
हुडा सिटी सेंटर से आने वाली मेट्रो में जबरदस्त भीङ होती है, और जिनको लंबा सफर तय करना होता है वे कुतुबमीनार पर उतरकर, वहीं से बनकर चलने वाली मेट्रो के लिये उतरकर गेट के सामने ही खङे हो जाते हैं, जिससे जो अगली मेट्रो बनकर चलेगी, उसमें बैठने की जगह मिल जायेगी।
कुतुबमीनार मेट्रो स्टेशन की और सङक पार करके आना भी अपने आप में एक बङा चैलेन्ज होता है, हालांकि व्यस्त सङक होने के बावजूद भी, स्टेशन की और आने के लिये विशेषत: सिग्नल लगा रखा है। मेट्रो स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर जाना भी अच्छी भली कवायद होती है। सुरक्षा का लिये स्कैनिंग मशीन से रोज ही दो बार अपने को और बैग को गुजरना पङता है। फिर आजकल सीढियों की जगह स्केलेटर्स का उपयोग ज्यादा होने लगा है, कई बार तो लिफ्ट का भी बेधङक उपयोग कर लेते हैं।
राजीव चौक पर इंसान भेष बदलकर यहाँ थोङी देर के लिये जानवर बन जाता है, वरना वाकई कम जगह में चढना उतरना आसान नहीं है, फिर भी हमें मुँबई लोकल का अनुभव है, उसके आगे मेट्रो के आगे बहुत सोफिस्टिकेटेड लगा, एसी में पसीना नहीं आता और लोकल में हर तरफ इंसानों के पसीने की भिन्न तरह की बदबू झेलना पङती थी । कम से कम यहाँ यह व्यथा तो नहीं है।
शाम को घर तक आते आते गर्मी के मारे थककर बेहाल हो चुके होते हैं, कदम हैं कि उठने का नाम नहीं लेते, और आँखें खुलने में भी थकान महसूस कर रही
होती हैं, जब तक हम सफर को खत्म नहीं कर देते तब तक यह उपक्रम चलता ही रहेगा।
होती हैं, जब तक हम सफर को खत्म नहीं कर देते तब तक यह उपक्रम चलता ही रहेगा।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन धरती को बचाओ – ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
कुतुब से अगले स्टेशन पर (छतरपूर) कई बार चढे उतरे हैं पर ठीक ही लगा।