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दिल्ली घूम लिया जाये तो दिमाग भी शांत हो जायेगा

कहीं घूमे हुए बहुत समय हो गया था, इतना अंतराल भी बोर करने लगता है, कि कब हम रूटीन जीवन से इतर हो कुछ अलग सा करें, तो बस पिछले सप्ताहाँत हमने सोच लिया कि इस सप्ताहाँत पर अच्छे से दिल्ली घूम लिया जाये तो दिमाग भी शांत हो जायेगा और ऊर्जा भी आ जायेगी। बहुत दिनों से लग रहा था कि कार में कुछ समस्या है, तो हमने सुबह सबसे पहले कार के पहिये का एलाईनमेंट और बैलैन्सिंग करवाया और उसके दो दिन पहले ही दुर्घटना बीमा के तहत हमने कार की विंड शील्ड कंपनी के सर्विस सेंटर से बदलवाई थी।

दिल्ली रेल्वे संग्रहालय
दिल्ली रेल्वे संग्रहालय

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हम कचरा फैलाने में एक नंबर हैं (We indians are great and known for litter)

    कचरा फैलाने के मामले में हम भारतीय महान हैं । और कचरा भी हम इतनी बेशर्मी और बेहयाई से फैलाते हैं जबकि हमें पता है कि यही कचरा हम सबको परेशान कर रहा है इसलिये हम सबको बड़े से बड़े पुरस्कार से सम्मानित किया जाना चाहिये, कम से कम इसकी शुरूआत गली से करनी चाहिये या घर कहना ही बेहतर होगा, जब हमारा घर साफ सुथरा होगा, तभी गली, मोहल्ले, सड़कें और उनके किनारे साफ होंगे।
    हमारे यहाँ घर में कई लोगों की आदत होती है कि रात में या सुबह कचरा घर में कहीं भी डाल दिया कि अब झाड़ू तो लगेगी ही तो साफ हो जायेगा, जबकि दो कदम पर ही कचरापेटी रखी है, वहाँ तक जाने की जहमत नहीं उठायेंगे। वैसे ही हम भारतीयों को नाक बहुत आती है और कुछ लोग तो उसका सेमड़ा भी उदरस्थ करने में माहिर होते हैं, जो उदरस्थ नहीं कर पाते वे सबसे पहले अपने बैठने के स्थान पर नीचे हाथ डालकर वह नाक का सेमड़ा चिपका देंगे या फिर उँगलियों के बीच सेमड़े को इतना घुमायेंगे कि वह कड़क हो जाये और फिर वे आसानी से उसे सम्मान के साथ बिना किसी को बोध हुए कहीं भी फेंक देंगे। इसलिये भी मैं कभी भी सार्वजनिक स्थानों जैसे कि थियेटर, फिल्म हॉल, बस, ट्रेन और हवाईजहाज में अपने हाथ सीट के नीचे ले जाने से कतराता हूँ।
    हमारे घर में कचरापेटी के अलावा भी बहुत सी जगहें कचरा डालने के लिये माकूल महसूस होती हैं, जैसे कि पलंग पर बैठे हैं और टॉफी खा रहे हैं, तो उसका रैपर फेंकने कौन कचरापेटी तक जायेगा, तो टॉफी का रैपर मोड़कर गोली बनाकर वहीं गद्दे के नीचे फँसा दिया, अगर गद्दा उठ पाने की स्थिती में नहीं है तो फिर पलंग के पीछे ही रैपर को सरका दिया, अगर वह जगह भी नहीं है और पास में ही कहीं कोई अलमारी रखी है तो उसके पीछे सरका दिया, वहाँ पर भी जगह नहीं मिली तो आखिरकार सबकी आँख बचाकर कचरा जमीन पर अपनी चप्प्ल या पैर के पास फेंका और धीरे से पलंग के नीचे सरका दिया। यह व्यवहार अपने सार्वजनिक जीवन में लगभग हर जगह देख सकते हैं।
    गुड़गाँव से दिल्ली धौलाकुआँ होते हुए हाईवे से जाते हैं, तो लगता है कि शायद यह सड़क विश्वस्तर की तो होगी ही, पर जब उस पर चलते हुए पुराने ट्रक और बस दिखते हैं जो कि प्रदूषण फैलाते हुए अपनी बहुत ही धीमी रफ्तार से बड़े जाते हैं, इनमें से कई बस ट्रक में से तेल निकल रहा होता है, और कई सभ्य लोग अपनी बड़ी बड़ी गाड़ियों में सफर कर रहे होते हैं, पर अधिकतर ये कार वाले लोग इतने असभ्य हो जाते हैं कि कहीं भी किधर से भी पानी की खाली बोतल फेंक देंगे या फिर कोई चिप्स का पैकेट, इच्छा होती है कि अगर इनके घर का पता मेरे पास होता तो मैं उनको यही कचरा उनके घर पर वापस से सम्मान के रूप में देने जाता, कि भाईसाहब आप अपना यह कचरा कल हाईवे पर छोड़ गये थे।
    यह पोस्ट इंड़ीब्लॉगर के हैप्पी अवर के लिये लिखी गई है, जो कि टाईम्स ऑफ इंडिया के लिये है, ज्यादा कचरा कैसे फैलायें, इसके लिये आप यहाँ भी क्लिक करके देख सकते हैं http://greatindian.timesofindia.com/

कुतुबमीनार से मेट्रो का रोज का सफर

ऐसे तो रोज ही कई किस्से होते हैं लिखने के लिये, आजकल रोज ही मेट्रो से आना जाना होता है, आते समय अब कुतुबमीनार से मेट्रो बन के चलने के कारण वहीं से अधिकतर आना होता है, सब अपने अॉफिस से थके मांदे निकले हुए दिखते हैं, सब के शक्ल से ही बारह बजे नजर आते हैं ।
हुडा सिटी सेंटर से आने वाली मेट्रो में जबरदस्त भीङ होती है, और जिनको लंबा सफर तय करना होता है वे कुतुबमीनार पर उतरकर, वहीं से बनकर चलने वाली मेट्रो के लिये उतरकर गेट के सामने ही खङे हो जाते हैं, जिससे जो अगली मेट्रो बनकर चलेगी, उसमें बैठने की जगह मिल जायेगी।
 
कुतुबमीनार मेट्रो स्टेशन की और सङक पार करके आना भी अपने आप में एक बङा चैलेन्ज होता है, हालांकि व्यस्त सङक होने के बावजूद भी, स्टेशन की और आने के लिये विशेषत: सिग्नल लगा रखा है। मेट्रो स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर जाना भी अच्छी भली कवायद होती है। सुरक्षा का लिये स्कैनिंग मशीन से रोज ही दो बार अपने को और बैग को गुजरना पङता है। फिर आजकल सीढियों की जगह स्केलेटर्स का उपयोग ज्यादा होने लगा है, कई बार तो लिफ्ट का भी बेधङक उपयोग कर लेते हैं।
 
राजीव चौक पर इंसान भेष बदलकर यहाँ थोङी देर के लिये जानवर बन जाता है, वरना वाकई कम जगह में चढना उतरना आसान नहीं है, फिर भी हमें मुँबई लोकल का अनुभव है, उसके आगे मेट्रो के आगे बहुत सोफिस्टिकेटेड लगा, एसी में पसीना नहीं आता और लोकल में हर तरफ इंसानों के पसीने की भिन्न तरह की बदबू झेलना पङती थी । कम से कम यहाँ यह व्यथा तो नहीं है। 
 
शाम को घर तक आते आते गर्मी के मारे थककर बेहाल हो चुके होते हैं, कदम हैं कि उठने का नाम नहीं लेते, और आँखें खुलने में भी थकान महसूस कर रही
होती हैं, जब तक हम सफर को खत्म नहीं कर देते तब तक यह उपक्रम चलता ही रहेगा।

जाती है इज्जत तो जाने दो कम से कम भारत की इज्जत लुटने से तो बच जायेगी

    आज सुबह के अखबारों में मुख्य पृष्ठ पर खबर चस्पी हुई है, कि दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी के दौरान ही एक बन रहा पुल गिर गया, और २७ घायल हुए।

    इस भ्रष्टाचारी तंत्र ने भारत की इज्जत के साथ भी समझौता किया और भारत माता की इज्जत लुटने से का पूरा इंतजाम कर रखा है, ऐसे हादसे तो हमारे भारत में होते ही रहते हैं, परंतु अभी ये हादसे केंद्र में हैं, क्योंकि आयोजन अंतर्राष्ट्रीय है, अगर यही हादसा कहीं ओर हुआ होता तो कहीं खबर भी नहीं छपी होती और आम जनता को पता भी नहीं होता।

    हमारे यहाँ के अधिकारी बोल रहे हैं कि ये महज एक हादसा है और कुछ नहीं, बाकी सब ठीक है, पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम के आयोजन में इतनी बड़ी लापरवाही ! शर्मनाक है। हमारे अधिकारी तो भ्रष्ट हैं और ये गिरना गिराना उनके लिये आमबात है, पर उनके कैसे समझायें कि भैया ये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं चलता, एक तो बजट से २० गुना ज्यादा पैसा खर्चा कर दिया ओह माफ़ कीजियेगा मतलब कि खा गये, जो भी पैसा आया वो सब भ्रष्टाचारियों की जेब में चला गया। मतलब कि बजट १ रुपये का था, पर बाद में बजट २० रुपये कर दिया गया और १९.५० रुपये का भ्रष्टाचार किया गया है।

    अब तो स्कॉटलेंड, इंगलैंड, कनाडा, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया ने भी आपत्ति दर्ज करवाना शुरु कर दी है, पर हमारे भारत के सरकारी अधिकारी और प्रशासन सब सोये पड़े हैं, किसी को भारत की इज्जत की फ़िक्र नहीं है, सब के सब अपनी जेब भरकर भारत माता की इज्जत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, अरे खुले आम आम आदमी के जेब से कर के रुप में निकाली गई रकम को भ्रष्टाचारी खा गये वह तो ठीक है, क्योंकि आम भारतीय के लिये यह कोई नई बात नहीं है, परंतु भारत माता की इज्जत को लुटवाने का जो इंतजाम भारत सरकार ने किया है, वह शोचनीय है, क्या हमारे यहाँ के नेताओं और उच्च अधिकारियों का जमीर बिल्कुल मर गया है।

    आस्ट्रेलिया के एक मीडिया चैनल ने तो एक स्टिंग आपरेशन कर यह तक कह दिया है कि किसी भी स्टेडियम में बड़ी मात्रा में विस्फ़ोटक सामग्री भी ले जाई जा सकती है, और ये उन्होंने कर के बता भी दिया है, विस्फ़ोटक सामग्री दिल्ली के बाजार से आराम से खरीदी जा सकती है और चोर बाजार से भी।

    अगर यह आयोजन हो भी गया तो कुछ न कुछ इसी तरह का होता रहेगा और हम भारत और अपनी इज्जत लुटते हुए देखते रहेंगे, और बाद में सरकार सभी अधिकारियों को तमगा लगवा देगी कि सफ़ल आयोजन के लिये अच्छा कार्य किया गया, और जो सरकार अभी कह रही है कि खेलों के आयोजन के बाद भ्रष्टाचारियों पर कार्यवाही करेगी, कुछ भी नहीं होगा। उससे अच्छा तो यह है कि कॉमनवेल्थ खेल संघ सारी तैयारियों का एक बार और जायजा ले और बारीकी से जाँच करे और सारे देशों की एजेंसियों से सहायता ले जो भी इस खेल में हिस्सा ले रहे हैं, अगर कमी पायी जाये तो यह अंतर्राष्ट्रीय आयोजन को रद्द कर दिया जाये।

    हम तो भारत सरकार से विनती ही कर सकते हैं कि क्यों भारत और भारतियों की इज्जत को लुटवाने का इंतजाम किया, अब भी वक्त है या तो खेल संघ से कुछ ओर वक्त ले लो या फ़िर आयोजन रद्द कर दो तो ज्यादा भद्द पिटने से बच जायेगी, घर की बात घर में ही रह जायेगी।

हमारे घर में नया मेहमान आया है… :) :D

    आज शाम को हमारे घर में एक नया मेहमान आया है, बिटिया आई है, मेरे छोटे भाई शलभ को आज बिटिया की प्राप्ति हुई, बहु दिल्ली में ही थी और भाई शाम की फ़्लाईट पकड़ कर दिल्ली पहुँचा है।

    कितना रोमांचकारी पल होता है पिता बनने का, उससे बात करने से ही पता चल रहा था, जब बिटिया इस दुनिया में आई तो हमारा भाई फ़्लाईट में था, तो हमने तुरंत एक एस.एम.एस. कर दिया … [Congrats Dad !! bitiya ghar me aayi hai, khushiya lai hai :)]

    जब भाई के प्लेन दिल्ली में उतर गया तो जैसे ही मोबाईल खोला हमारा एस.एम.एस. मिलने से उसे पता चला और तब तक तो हम लगभग सभी अपने परिचितों को एस.एम.एस. या फ़ोन कर चुके थे।

    घर पर बात हुई तो मम्मी बोली कि अब तो ताऊ बन गये हो, और घर में बिटिया आई है, अब घर में रक्षाबंधन का त्यौहार भी मना करेगा। हम खुशी के मारे कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे। बहुत ही सुन्दरतम एहसास होता है घर में नये मेहमान आने का और वो भी प्यारी बिटिया रानी के आने का।

ये आई.ए.एस. में लोग सेवा करने जाते हैं या कमाने जाते हैं ? यह एक यक्ष प्रश्न है कि इन आई.ए.एस. की इज्जत करें या न करें, और अगर आज के युवा की सोच ही ऐसी होगी परिवार की होगी तो इस राष्ट्र का भविष्य क्या होगा।

    दो साल पहले की बात है, हम करोल बाग में एक रेस्त्रां में खाना खा रहे थे, और हमारे पीछे वाली टेबिल पर कुछ छ: लड़के बैठे हुए थे, जो कि मूलत: झारखंड और बिहार के लग रहे थे।

    हमने खाना ऑर्डर किया और अपनी बातें करने लगें परंतु ये लड़के अपनी बातें इतनी तेज आवाज में बात कर रहे थे कि हम अपनी बात कर ही नहीं पा रहे थे और वे जिस तरह की बातें कर रहे थे वैसी हमने पहले कभी सुनी भी नहीं थीं, इसलिये चुपचाप हमने उनकी ही बातें सुनने का फ़ैसला ले लिया।

    वे बात कर रहे थे सिस्टम की, जी हाँ प्रशासन की, क्या हम यहाँ झक मारने आये हैं समाज के लिये नहीं !!!, आई.ए.एस. बनना है और करोड़ों कमाना है, अरे रुतबा का रुतबा और कमाई की कमाई, किसी कंपनी का सीईओ भी क्या कमाता होता आई.ए.एस. की कमाई के आगे।

    बातों में पता लगा कि उनमें से २-३ के पिता आई.ए.एस. हैं, और बाकी २-३ सामान्य लोग हैं परंतु दाँतकाटी दोस्ती लग रही थी उन सबमें, जिनके पिता आई.ए.एस. थे वे कुछ किस्से बता रहे थे कि फ़लाने ने आई.ए.एस. की पोस्टिंग मिलने के २-३ साल के अंदर ही करोड़ रुपया अंदर कर लिया वो भी किस सफ़ाई से, कहीं कोयला खदान की बात हो रही थी कि वहाँ पर किसी परमीशन या ठेके के लिये आई.ए.एस. ने ४० करोड़ की रिश्वत ली थी और मंत्री को पता चल गया तो मंत्री ने कमीशन माँगा तो उस आई.ए.एस. ने उस मंत्री को पैसे देने की जगह पैसा खर्च करके उसको गद्दी से ही हटवा दिया।

    फ़िर किसी आई.पी.एस. की बात चली कि ये लोग भी कम नहीं होते हैं, रंगदारी करते हैं और व्यापारियों से एक मुश्त रकम या फ़िर सप्ताह लेते रहते हैं, बस व्यापारी बड़ी मुर्गी होता है।

    तभी उनमें से एक आई.ए.एस. का सुपुत्र बोला उसके दूसरे मित्र को जो कि शायद किसान परिवार से था, कि बेटा पढ़ाई कर जम कर और केवल हरे हरे नोटों के सपने देख, और देख कि तेरा रसूख कितना बढ़ जायेगा, लोग सलाम ठोकेंगे, कभी भी करोड़ रुपया अंदर कर सकता है। तो किसान परिवार के लड़के का उत्तर सुनकर तो हम दंग ही रह गये, वो बोला “हमारे पिताजी ने कहा है कि तू केवल पढ़ाई पर ध्यान दे, और ये आई.ए.एस. की परीक्षा पास कर ले, जितना पैसा खर्च होता है ३०-४० लाख रुपया होने दे, तू चिंता मत कर हम खेत खलिहान बेच देंगे घर बेच देंगे, तू आई.ए.एस. बन गया तो ये खर्चा तो कुछ भी नहीं है ये तो निवेश है, इसका दस गुना तुम हमें २-३ साल में कमा कर दे दोगे” !!!

    हम हमारे विचारों में खो गये कि ये आई.ए.एस. की परीक्षा और आई.ए.एस. बनने का जुनून तो किसी और दिशा में मुड़ गया है। और ये केवल करोलबाग की ही बात नहीं है, जहाँ आई.ए.एस. की तैयारी कर रहे लोग मिलेंगे, आपको इस तरह की बातें सुनना शायद आश्चर्यजनक न लगे। क्योंकि हमने ये चर्चाएँ कई बार दिल्ली में अलग अलग जगह पर सुनी हैं।

    इसलिये अब हमारे सामने यह एक यक्ष प्रश्न है कि इन आई.ए.एस. की इज्जत करें या न करें, और अगर आज के युवा की सोच ही ऐसी होगी परिवार की होगी तो इस राष्ट्र का भविष्य क्या होगा।

श्रवण कुमार और दिल्ली की मिट्टी का कमाल

आज ताऊ के ब्लाग पर कलयुगी श्रवण पढ़ा तो एक वाक्या याद आ गया दिल्ली में श्रवण कुमार का।

दिल्ली वाले कृपया बुरा न मानें वैसे मैं भी नार्थ इंडियन हूँ और मुंबई में रहते हुए लगभग ४ साल पूर्ण हुए हैं।

दिल्ली में एक मित्र से वार्तालाप चल रहा था और हम सामाजिक मुद्दों पर बात कर रहे थे कि मुंबई और दिल्ली में क्या भिन्नता है। दिल्ली में कोई भी तबके का व्यापारी हो वो ग्राहक को लूटने का प्रयत्न करता है, जैसे आटो वाले, फ़लवाले, इलेक्ट्रानिक दुकानवाले इत्यादि। ऐसा नहीं है कि मुंबई में लूट नहीं है परंतु दिल्ली के मुकाबले तो बहुत कम है पर फ़िर भी लूट तो लूट ही है। फ़िर भी मुंबई का आम आदमी आत्म अनुशासित है पर दिल्ली का नहीं क्यों ??

साउथ इंडिया की श्रंखला का एक प्रसिद्ध होटल करोलबाग में है और वहाँ पर साउथ इंडियन आँख बंद करके जाते हैं और अगर कमरा खाली नहीं भी होता है तो घंटों तक खाली होने का इंतजार करते रहेंगे पर किसी और होटल में जाना पसंद नहीं करेंगे। क्योंकि उन्हें साउथ इंडियन होटल पर विश्वास है परंतु दिल्ली वालों पर नहीं और अगर तब भी को कमरा खाली नहीं होता है तो जो भी वहाँ आते हैं उन लोगों को वो साउथ इंडियन होटल वाले ही दूसरे होटल में कमरा आरक्षित करके देते हैं।

कहते हैं कि जब श्रवण कुमार अपने अंधे माता पिता को कंधे पर पालकी में ले जा रहे थे तो जैसे ही श्रवण कुमार का दिल्ली में आगमन हुआ उन्होंने अपने माता पिता से घुमाने का किराया मांगा तो उनकी माताजी ने कहा चल बेटा आगे चल तुम्हें हम आगे किराया दे देंगे और थोड़ी सी मिट्टी अपने हाथों में लेकर अपने पास रख ली। जब मथुरा पहुंचे तो श्रवण कुमार से उनकी माता ने कहा कि कितना किराया चाहिये तब श्रवण कुमार ने कहा कैसा किराया क्योंकि वो तो सब भूल गये थे। फ़िर वो मिट्टी को रखकर उनकी माता बोली अब इस पर खड़े हो और बताओ तो झट से फ़िर श्रवण कुमार ने फ़िर किराया मांगा। यह सब दिल्ली की मिट्टी का कमाल है।

दिल्ली को इन चरसियों से मुक्त करवाने के लिये कृप्या सहयोग करें और दिल्ली को सुँदर बनाने में योगदान दें।

मैं रोज आटो से करोलबाग से कनाटप्लेस अपने ओफ़िस जाता हूँ तो पंचकुइयां रोड और कनाटप्लेस की रोड जहाँ मिलती है, उसके थोड़े पहले ही चरसियों की भीड़ फ़ुटपाथ पर लगी रहती है। खुलेआम भारत की राजधानी दिल्ली में चरस का सेवन कर रहे हैं पर कोई भी किसी भी तरह की कार्यवाही करने को तैयार नहीं, कारण शायद यह कि उनसे कमाई नहीं हो सकती !!

वैसे तो रास्ते में बहुत सारी ओर भी चीजें पड़ती हैं रास्ते में, हनुमानजी का बहुत बड़ा मंदिर, थोड़ी ओर आगे जाने पर कबूतरों को दाने खिलाते लोग और कोने में श्मशानघाट और भी बहुत कुछ। पर बरबस ही निगाहें रुक जाती हैं चरसियों को देखकर जब कनाटप्लेस की रेडलाईट पर आटो रुकता है। ये लोग भिखारी, कचरा बीनने वाले जैसे लगते हैं, परंतु ये खुलेआम चरस का सेवन करते हुए दिख जायेंगे कानून का मजाक बनाते हुए। किसी भी कानून पालन करवाने वाले व्यक्ति को ये लोग नहीं दिखते ?

ये लोग वहाँ मैली कुचैली चादर ३-४ के झुँडों में ओढ़कर चरसपान करते रहते हैं और जैसा कि आटो वाले बताते हैं कि यही लोग रात के अँधेरे का फ़ायदा उठाकर लूटपाट भी करते हैं और पुलिस वाले इनको इसलिये पकड़ के नहीं ले जाते हैं कि इनसे उन्हें कोई भी (धन संबंधी) फ़ायदा नहीं होता है। उल्टा उनकी सेवा करना पड़ती है।

दिल्ली को इन चरसियों से मुक्त करवाने के लिये मेरा ब्लाग पढ़कर कोई बंधु जो यह अधिकार रखता हो या मीडिया में हो तो कृप्या सहयोग करें और दिल्ली को सुँदर बनाने में योगदान दें।

दिल्ली सुधारो पर पहले दिल्ली वालों को सुधारो

अभी हाल ही में अविनाशजी की एक पोस्ट आयी थी दिल्ली सुधारो। पर हमें लगता है कि उसे होना चाहिये दिल्ली वालों को सुधारो। उस पोस्ट में अविनाशजी ने बताया था कि कैसे दिल्ली के आटो वालों से निपटा जाये मतलब ज्यादा किराया मांगने पर उनकी शिकायत कहाँ की जाये।

अब हमें तो रोज कनाट प्लेस से आटो चालकों से झिकझिक करनी पड़ती है, क्योंकि कोई भी मीटर से चलने को तैयार नहीं होता और अगर मीटर से चलने को कहो तो इस अजीब तरह से हमें देखेगा कि जैसे हम अजायबघर से आये हों, फ़िर वही मोलभाव करो। अब कल का किस्सा बतायें आटो चालकों से झिकझिक कर रहे थे समय था रात के ११.२५ बजे का चूँकि आखिरी मेट्रो जा चुकी थी इसलिये आटो से ही जान पड़ेगा, जितने भी आटो वाले थे सब पूरे डबल पैसे माँग रहे थे और हम वीरता के साथ ईमानदारी (ज्यादा रुपये न देने के लिये) का झंडा लिये करीबन ३०-४० आटो वालों से पूछ चुके थे।

वहाँ पर दिल्ली पुलिस की पीसीआर वैन खड़ी थी, उस पर लिखा था दिल्ली पुलिस की चलती फ़िरती पुलिस चौकी और वो किन बातों पर एक्शन लेते हैं वो तीन बातें क्रमबद्ध तरीके से लिखी हुई थीं। हमने उनसे मदद लेने की कोशिश की तो जबाब मिला ये हमारा काम नहीं है ये ट्राफ़िक पुलिस का काम है। अरे भाई पुलिस तो होती है कानून का पालन करवाने के लिये पर यहाँ तो मामला ही उलट था, हमने भी उनसे पूछा कि देखो भाई वो एक्शन में तीसरे नंबर पर लिखा है कि क्राइम होने पर आप काम आयेंगे तो जबाब मिला कि अरे भाई ये भी कोई क्राइम है तब हमें आभास हुआ कि क्राइम का मतलब भी अलग हो गया है या हमने शायद उनके कार्यकौशलता पर संदेह किया है वे लोग तो वहाँ बंदूकवाले आतंकवादियों से लड़ने के लिये बैठे हैं न कि अपने देश के अंदर होने वाले इस तरह की छोटी छोटी मानसिक आतंकवादी गतिविधियों से लड़ने के लिये।

फ़िर याद आया कि अरे अविनाश भाई ने एक नंबर दिया था ट्राफ़िक पुलिस का, हमने मोबाईल से नंबर डायल किया और उसे शिकायत की तो उसका जबाब सुनकर हमें लगा कि हमारा फ़ोन लगाना उसे पसंद नहीं आया और गलती से फ़ोन उठा लिया है। हमने बताया कि कोई भी आटो वाला तय किराये पर जाने को तैयार नहीं है क्या किया जाये। ज्यादा हील हौल करने पर उधर से डिमांड आयी कि आटो का नंबर बता दीजिये कार्य़वाही की जायेगी तो हमने एक बचकानी सी बात पूछी “तो क्या ३०-४० आटो के नंबर आपको देने पड़ेंगे यहां पर तो कोई भी तय भाव से जाने को तैयार ही नहीं है”, तो उधर से जबाब आया तो क्या हरेक आटो वाले पर कार्यवाही करें क्या, अब मैं क्या जबाब देता क्योंकि वो खुद ही असहाय नजर आया। हमने फ़ोन काट दिया फ़िर १५-२० आटो वालों से पूछा और तय भाव से थोड़ा ज्यादा देकर, मोलभाव कर अपने गंतव्य पहुँच गये।

तो हमें लगा कि दिल्ली सुधारो पर पहले दिल्ली वालों को पहले सुधारो, पुलिस वालों को उनके कार्यक्षैत्र का पता होना चाहिये, खुलेआम लूट को रोकना चाहिये जैसे कि कोल्ड ड्रिंक या बोतलबंद पानी पर पूरे कनाट प्लेस में २ से ३ रुपये ज्यादा लिये जाते हैं, झिकझिक करो तो वो हाकर कहता है कि ये पुलिस वालों को चार्ज देना पड़ता है यहाँ खड़े होने के लिये।