मेरी वो किताबें
जिनकी धूल कभी मैंने झाड़ी थी
उनपर आज फ़िर
धूल की परतें जमीं है
उन परतों में अपनी अकर्मण्यता ढूँढ़ता हूँ
उन परतों में दबा हुआ समय देखता हूँ
जमे हुए रिश्ते पढ़ने की कोशिश करता हूँ
और मेरे छूने पर
उस परत के टूटे हुए कणों को देखते हुए
फ़िर नया करने में जुट जाता हूँ ।
बहुत बढ़िया है जी….
बहुत सुंदर रचना जी, धन्यवाद
न पढ़ी हुयी पुस्तकें रह रह कर धिक्कारती हैं।
यही जीवन है. न रूकने का नाम.
बहुत सुंदर भाव |आपका सोच सराहनीय है |बधाई
आपकी यह प्रस्तुति बहुत बहुत पसंद आयी ! आभार एवं शुभकामनाएं !
आपकी कविता ने तो वो भाव जगा दिया…जैसे वो कागज़ की कश्ती ,वो बारिश का पानी…..!पुराणी किताबें तो गीले कागज़ की भांति है कोई पढता भी नही ,कोई जलाता भी नही….बस संभाल कर रखते है…..
मेरी वो किताबें… मेरी कविता…शब्द और भाव, जिनके बिना बदरंग और बेस्वाद हो जाते लम्हे.
सुन्दर एवं भावमय प्रस्तुति ।
Vivek bhai, chha gaye aap.
पुस्तकों पर जमी धूल संदेश देती है कि इन्हें फिर से पढ़ो।
सुन्दर भाव.
very good Vivek darling