ओह्ह..
तो तुम आ गये
कितना इंतजार करवाया
कहाँ छिपे थे,
बहता नीर भी रुक ही गया था
तुम्हारे लिये, पता है….
उड़ते हुए बदरा बौरा से गये थे
तुम्हारे लिये, पता है….
रुकी थी वो गौरैया भी चहचहाने से
तुम्हारे लिये, पता है….
हवा मंद मंद सी हुई थी,
तुम्हारे लिये…
अंधकार गहराने से डर रहा था
तुम्हारे लिये..
बस तुम आओ… तुम्हारे लिये
तुम्हें तुमसे मिलाने के लिये॥
Category Archives: कविता
ऊफ़्फ़ कितनी जोर से दरवाजा बंद कर रखा है…मेरी कविता…विवेक रस्तोगी
ऊफ़्फ़
कितनी जोर से दरवाजा बंद कर रखा है
जरा कुंडी ढ़ीली करो
जिससे हलके से धक्के से
ये किवाड़ खुल जाये,
कुंडी हटाना मत
नहीं तो हवाएँ बहुत जालिम हैं।
खोज रहा हूँ.. क्यों उदास है ये जिंदगी…..मेरी कविता….विवेक रस्तोगी
क्यों उदास है ये जिंदगी
पलकें भारी हैं
होश नहीं है,
जीवन जीवन नहीं है
पर फ़िर भी
इस उदासी भरी जिंदगी को,
जीते जा रहे हैं
अब शायद कुछ बचा न हो
पर फ़िर भी,
इंतजार कर रहे हैं
मन व्याकुल है
आत्मा कष्ट में है,
हर राह में कंटक बिछे हैं
अंतर बीमार है
मन अशांत है
जीवन में
ध्यान छिन्न भिन्न है
अत्र तत्र यत्र सर्वथा
अवांक्षित से विचार
न कोई ओर न कोई छोर
जीवन की डोर
फ़िसली जा रही है
राहें कठिन होती जा रही हैं
संबल अंतहीन के अंत तक
पहुँचा लगता है
हर चीज जो जीवंत है
मेरे लिये उसका अंत ही दिखता है,
अनमोल है सब पर,
मेरे जीवन का मोल और
हर वस्तु का मोल खत्म सा है,
गीता ज्ञान और मर्म
सब निरापद सा लगता है
चहुँ और अवसाद के
घिरे हुए से बादल हैं,
कहीं कोई रोशनी और
उम्मीद दूर दूर तक नहीं है
बस जीवन अवसादपूर्ण है
कैसे इसकी थाह लूँ
गंगा में या हिमालय में
खोज रहा हूँ।
अनुग्रहित करो मुझे …. मेरी कविता … विवेक रस्तोगी
अनुग्रहित करो मुझे
पासंग में अपने लेकर,
अपने संभाषण में
सम्मिलित करो,
जीवन की धारा में
साथ साथ
ले चलो अनुषंगी बनाकर,
कट रहा है
इसे जीने दो
अपनी मौज में
अपने उच्छश्रंखल अवस्था में
रंगीन रंग में
करतल ध्वनि में
जीवन की ताल से
जोड़ते हुए
ले चलो कहीं,
दूर पठारों पर, वादियों में,
झाड़ के झुरमुट में
पतंगों की गुनगुनाहट में
मन की अंतरताल में,
शामिल करलो मुझे
अनुग्रहित करो मुझे।
देखना है रक्त की विजय !!! … मेरी कविता … विवेक रस्तोगी
विषादों से ग्रसित जीवन,
रुधिर के थक्के
जीवन में जमते हुए,
खुली हवा की घुटन,
थक्के के पीछे
नलियों में, धमनियों में,
धक्के मारता हुआ
रुधिर,
थक्के के
निकलने का इंतजार,
खौलता हुआ रक्त,
और
विषादित जीवनमंच,
रेखाएँ खिंचती हुई
हटती हुईं,
जाल बुनता हुआ,
गहराता हुआ,
ठहरा सा
गुमसुम रक्त शिराओं में,
विषादों से लड़ता हुआ,
देखना है
रक्त की विजय !!!
तुम कहाँ कहाँ से आती हो …. मेरी कविता …… विवेक रस्तोगी
तुम कहाँ कहाँ से आती हो
कभी मेरे लेपटॉप के कीबोर्ड से
कभी मेरे उदात्त्त मन से
कभी दुखभरे दिल से
कभी उमंग भरे मन से
कभी मेरी अलमारी के अंदर से
कभी मेरे तकिये के नीचे से
कभी मेरे बेटे के जबां से
कभी बारिश की बूँदों से
कभी ठंडे पानी से नहाते हुए
कभी सोते समय कभी उठते समय
कभी डोर से उतरती हुई
कभी डोर से चढ़ती हुई
पर जब तुम आती हो
तो ऐ “कविता”
सबके होश उड़ाती आती हो।
नई सुबह का इंतजार है ….. मेरी कविता …… विवेक रस्तोगी
नई सुबह का इंतजार है
जो मेरे जीवन को महका देगी
जो मेरे मन को लहका देगी
नई परिभाषा होगी
नयापन सा होगा
हिम्मत से सारोबार होगा
नवचेतन मन नये आयाम
नई पृथ्वी नई हवा
सब कुछ अलग होगा
और मैं भी कुछ नया सा !!!
मेरे स्वप्न में, वही नदी क्यों आती है…. मेरी कविता …. विवेक रस्तोगी
बारबार मेरे स्वप्न में
वही नदी क्यों आती है
जो मुझे बुलाती है
कहती है कि आओ जैसे तुम पहले
मेरे पास आकर बैठते थे
वैसे ही पाँव डालकर बैठो,
अब तो तुम
समुंदर के पास हो
है बहुत विशाल
पर मुझे बताओ
कि कितनी बार उसने तुम्हें
अपने पास बैठने दिया
जैसे मैंने ??
क्योंकि शब्दों से मेरा जीवन जीवन्त है …. मेरी कविता … विवेक रस्तोगी
शब्दों से मेरा जीवन जीवन्त है
नहीं तो सुनसान रात्रि के
शमशान की सन्नाटे की गूँज है
सन्नाटे की सांय सांय में
जीवन भी कहीं सो चुका है
शमशान जाने को समय है
पूरी जिंदगी मौत से डरते हैं
शमशान जाने से डरते हैं
पर एक दिन मौत के बाद
सबको वहीं उसी सन्नाटे में
जाना होता है,
जहाँ रात को सांय सांय
हवा अपना रुख बदलती है
जहाँ रात को उल्लू भी
डरते हैं,
जहाँ पेड़ों पर भी
नीरवता रहती है
मैं जाता हूँ तो मुझे
मेरे शब्द जीवित कर देते हैं
क्योंकि शब्दों से मेरा जीवन जीवन्त है।
फ़िर भी मेरी सुबह और दिन भागते हुए शुरु होते हैं…..मेरी कविता … विवेक रस्तोगी
रोज सुबह भागते हुए
दिन शुरु होता है,
पर सुबह तटस्थ रहती है,
सुबह अपनी ठंडी हवा,
पंछियों की चहचहाट,
मंदिर की घंटियाँ,
मेरे खिड़्की के जंगले से आती भीनी भीनी
फ़ूलों की खुश्बु,
सब कुछ तो ताजा होता है
फ़िर भी मेरी सुबह और दिन
भागते हुए शुरु होते हैं।