२९ तारीख का कार्यक्रम पहले से ही तय था, वृन्दावन, मथुरा और आगरा और आगरा से मालवा एक्सप्रेस से उज्जैन। सुबह ५ बजे ही टैक्सी को बुला लिया गया था और तय किया गया था कि भोर ठंडे ठंडे वृन्दावन पहुँच जायेंगे, क्योंकि आजकल धौलपुर का तापमान ४५ डिग्री के ऊपर ही चल रहा है और पत्थरों का क्षैत्र है इसलिये झुलसा देने वाली हवाएँ खूब चलती हैं। दोपहर को वहाँ यह हालत होती है कि जिसको जरूरत होती है वह भी बाहर नहीं निकलता है।
घर से टैक्सी में बैठे और जैसे ही हाइवे पर पहुँचे तो देखा कि वहाँ तो जाम लगा हुआ है, यहाँ फ़ोर लेन का काम चल रहा है मगर सरकारी गति से, वहाँ पर ड्राईवर ने किसी से पूछा जाम कब से है और कहाँ तक है, तो उत्तर मिला जाम तो पिछले २-३ घंटे से है और एक भी गाड़ी आगे नहीं जा पाई है, और जाम खुलने में कम से कम ३-४ घंटे और लग जायेंगे। ड्राईवर ने वहीं पर फ़ुर्ती से गाड़ी घुमाई और चल दिया दूसरे रास्ते की ओर, गाड़ी घुमाने के दौरान एक बाहर की गाड़ी भी वहीं जाम में फ़ँसी हुई थी, उसने पूछा कि क्या कोई और रास्ता भी है, ड्राईवर बोला कि आगरा जा रहे हैं, आना है तो पीछे हो लो, परंतु वह परिवार नहीं आया, एक कारण क्षैत्रकाल का भी हो सकता है, क्यूँकि वह चंबल क्षैत्र है जहाँ के नाम से ही बाहर के लोगों की पुँगी बजी रहती है। खैर हमारी गाड़ी कच्चे रास्तों को पार करते हुए लगभग १० मिनिट में ही हाईवे पर पहुँच गई और 80-100 की रफ़्तार से बातें करने लगी।
हम सीधे वृन्दावन जा रहे थे, इसलिये न आगरा रुके और ना ही मथुरा। सुबह लगभग 8.30 बजे हम वृन्दावन पहुँच गये, सबसे पहले गये बांके बिहारी जी के मंदिर वहाँ बांके बिहारी की छटा देखते ही बनती है। वहाँ प्रसाद चढ़ाया और दर्शनों का आनंद लिया। कई महिलायें बांके बिहारी के भजन गा रही थीं, मन भावभिवोर हो उठा था, जैसे वे महिलायें नाच रही थीं और बांके बिहारी को मना रही थीं, हम भी भजन में मगन थे और सामने बांके बिहारी के दर्शन थे, बांके बिहारी इतने सुन्दर हैं कि वहाँ से जाने की कभी इच्छा ही नहीं होती। प्रसाद में छोटे कुल्लड़ में खुरचन होती है जो कि बांके बिहारी का असली प्रसाद है।
दर्शनों के बाद गलियों में ही चाट पकौड़ी और लस्सियों की कतार से दुकानें हैं, कहीं भी खा लीजिये स्वाद सबका एक जैसा शुद्ध खालिस देसी घी का बना हुआ। हमने एक टिक्की ली और एक फ़ुल लस्सी, ब्रजक्षैत्र के खाने का तो गजब ही आनंद है, जहाँ माखनचोर खुद रहते हों वहाँ भला स्वाद की कोई कमी होगी, और दोगुना स्वाद होगा।
वृन्दावन में मंदिरों की कमी नहीं है, हमने २-३ मंदिरों के दर्शन और किये और फ़िर हम चल दिये निधि वन की तरफ़. जहाँ संत हरदास ने बांके बिहारी जी की प्रतिमा को प्रकट किया था । निधिवन बांके बिहारी जी का प्रगट स्थल है, जहाँ पर वृन्द (तुलसी) और कदंब के पेड़ आज भी हैं और पूरा वन क्षैत्र है। यहाँ पर जिस स्थान पर बांके बिहारी जी प्रगट हुए थे, उस जगह पलंग और उस पर बिस्तर है, जहाँ कहा जाता है कि आज भी रासबिहारी कृष्ण राधा रानी के साथ रास करते हैं, इस बात की पुष्टि मंदिर के पुजारी ने भी की, और बताया कि रात को यहाँ कोई नहीं रुकता न पंछी ना जानवर और ना आदमी, और अगर कोई रुकता भी है तो वह अगले दिन सुबह इस स्थिती में नहीं रहता कि किसी को कुछ बता सके, वह या तो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है या फ़िर अंधा, बहरा या गूँगा हो जाता है। आज भी उस बिस्तर पर फ़ूल बिछाये जाते हैं जो कि सुबह दबे हुए मिलते हैं, जिससे ऐसा लगता है कि कोई उस बिस्तर पर आया था। हमने जोश जोश में यहाँ का फ़ोटो खींच लिया था और वहाँ कहीं लिखा भी नहीं था कि फ़ोटो लेना मना है, तो पुजारी ने बड़े प्रेम से बोला कि भैयाजी यह फ़ोटो काट दीजिये आप ही की भलाई के लिये बोल रहा हूँ, उस पुजारी ने इतने प्रेम से बोला और बांके बिहारी से जुड़ी बात थी तो हमने फ़ट से फ़ोटो अपने मोबाईल से हटा दिया मतलब काट दिया। लगभाग सभी मंदिरों में फ़ोटोग्राफ़ी वर्जित है।
आगे का विवरण अगली पोस्ट में, लंबी होने से बोझिल होने लगेगी..
॥ बांके बिहारी लाल की जय॥