Category Archives: Uncategorized

चैन्नई में कल का रात्रि भोजन और आसपास के वातावरण के कुछ चित्र से अपने जहन में बीती जिंदगी का कोलाज बन गया…

    कल का रात्रि भोजन जो कि फ़िर हमने सरवाना भवन में किया, माफ़ कीजियेगा बहुत से ब्लॉगर्स को हमने इसका नाम याद करवा दिया है, और केवल इसके लिये ही वो चैन्नई आने को तैयार हैं।

    जब हम पहुँचे तो पहले से ही इंतजार की लाईन लगी थी क्योंकि बैठने की जगह बिल्कुल नहीं थी, हमने लिखवा दिया कि भई हमारा भी नंबर लगा दो। पीछे वेटिंग में पाँच लोगों का बहुत बड़ा परिवार (बड़ा इसलिये कि आजकल तो हम दो हमारा एक का कान्सेप्ट है।) और उनके पीछे दो लड़के हमारी ही उम्र के होंगे और साथ में उनके साथ एक वृद्धा थीं। पहला हमारा ही नंबर था, जैसे ही एक टेबल खाली होने वाली थी वैसे ही वेटर ने हमें उस टेबल का अधिकार हमें इशारा करके दे दिया। जो उस टेबल पर बैठे थे वो भाईसाहब हाथ धोने गये थे तब तक वेटर उनका बिल लेकर आ गया और उनको खड़े खड़े ही पेमेन्ट भी देना पड़ा और वापस छुट्टे आने का इंतजार भी करना पड़ा।

    पर हम अपनी कुर्सी पर ऐसे धँस गये थे बिल्कुल बेशर्म बनकर कि हमें कोई मतलब ही नहीं है, हालांकि अगर ये हमारे साथ होता तो बहुत गुस्सा आता और शायद इस बात पर हंगामा खड़ा कर देते। जब हम इंतजार की लाईन में खड़े थे तभी मेन्यू कार्ड लेकर क्या खाना है वो देख लिया था जिससे बैठकर सोचने में समय खराब न हो क्योंकि बहुत जोर से भूख लगी थी।

    आर्डर दे दिया गया, जहाँ हम बैठे थे उसी हाल के पास में ही खड़े होकर खाने की व्यवस्था थी, सेल्फ़ सर्विस वाली। हमारी टेबल के पास ही एक टेबल पर एक लड़की पानी बताशे खा रही थी, तो बताशा उसने जैसे ही मुँह में रखा, तो मुँह खुला ही रह गया, क्योंकि बताशा एक बार के खाने के चक्कर में उसके मुँह में फ़ँस गया था, उसने कोशिश की पर कुछ नहीं हुआ फ़िर अंतत: अपने हाथ से बताशा मुँह के अंदर करना पड़ा ये सब देखकर हमें अपने पुराने दिन याद आ गये, जब हम अपने उज्जैन में चौराहे पर पानी बताशे वाले के यहाँ खड़े होकर बड़े बड़े बताशे निकालने को कहते थे कि मुँह में फ़ँस जाये। और हम सारे मित्र लोग बहुत हँसते थे।

    तभी हमारे सहकर्मी जो कि हमारे साथ थे कहा कि देखो उधर सिलेंडर देखो, तो उधर हमने देखा तो पाया कि एक सुंदर सी लड़की खड़ी थी, हमारा सहकर्मी बोलता है कि हमने सिलेंडर देखने को बोला है, लड़की नहीं। किसी जमाने में हम भी अपने दोस्तों के साथ यही किया करते थे, और बहुत मजा किया करते थे। अपने स्कूल कॉलेज के दिनों की बातें याद आ गईं।

    अगली टेबल पर एक छोटा परिवार (छोटा इसलिये कि वो हम दो हमारा एक कॉन्सेप्ट के थे) था जो कि खड़ा होकर खा रहा था। और अपने प्यारे दुलारे बेटे को गोल टेबल पर बैठा रखा था, और उसकी मम्मी पापा बड़े प्यार दुलार से अपने बेटे को अपने हाथों से खिला रहे थे। और साथ में प्यार भी करते जा रहे थे। हमें हमारे बेटे की याद आ गई, क्योंकि वो भी लगभग इतनी ही उम्र का है, और शैतानियों में तो नंबर वन है। कहीं भी चला जाये तो पता चल जाता है कि हर्षवर्धन आ गये हैं। होटल में तो बस पूछिये ही मत पूरा होटल सर पर रख लेंगे, होटल वाला अपने आप एक आदमी उसके पीछे छोड़ देता है, कि यह पता नहीं क्या शैतानी करने वाला है, और हम लोग अपना खाना मजे में खाकर बेटे को साथ में लेकर चल देते हैं, बेचारा होटल वाला भी मन में सोचता होगा कि ये हमारे यहाँ क्यों खाने आये हैं।

    आज हमें कुछ ज्यादा ही मोटे लोग नजर आये, तो समीर भाई “उड़नतश्तरी जी” की टिप्पणी याद आ गई, कि हमें तो खाने का फ़ोटू देखते ही वजन दो किलो बड़ गया, ध्यान रखें। मोटे लोगों को देखकर अनायास ही मुँह से निकल जाता है, ये देखिये अपना भविष्य। पर क्या करें बेशर्म बनकर उनको देखते रहते हैं।

    शाम को ही एक बिहारी की दुकान पर समोसा खा रहे थे, तो वहाँ पर एक बेहद मोटा व्यक्ति जलेबियाँ खा रहा था, कपड़े ब्रांडेड पहने हुआ था, और मजे में जलेबियाँ खाये जा रहा था, हम सोचने लगे कि ये तो हमसे लगभग तिगुना है फ़िर भी क्या जलेबियाँ सूत रहा है, तो बसे हम समोसे पर ही रुक गये और जलेबियों की ओर देखा भी नहीं, केवल उस मोटे व्यक्ति की ओर एक नजर देखकर चुपचाप सरक लिये।

    जब सरवाना भवन से खाकर निकले तो बिल्कुल पास में ही एक पान वाले भैया खोका लगाकर बैठते हैं, ५ दिन से हम इनके पर्मानेंट ग्राहक हैं, भैया जी इलाहाबाद के हैं और बहुत रसभरी प्यारी प्यारी बातें करते हैं पर तमिल पर भी उतना ही अधिकार है, जितना कि अपनी मातृभाषा पर, पर उनका टोन बिल्कुल नहीं बदला है, अभी भी ऐसा ही लगता है कि छोरा गंगा किनारे वाला ही बोल रहा है। उनसे हम अपना पान लगवाकर थोड़ी सी हिन्दी में मसखरी करके अपने रास्ते निकल लेते हैं। आज वे भी प्यार से बोले “बाबू आप भी हमारे मुल्क से लगते हो” हम भी बोल ही दिये “भई हम तो इलाहाबाद के दामाद हैं।” और चल दिये अपने ठिकाने की ओर…

तुम्हारे पास क्या है…

एक वरिष्ठ प्रबंधक जो कि बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत थे, रोज की तरह दोपहर के भोजन के बाद कॉफ़ी पीने के लिये कैफ़ेटेरिया में गये।

वह कैंटीन में थोड़ा आराम कर रहा था, तो उसने देखा कि एक लड़का कैंटीन की टेबल साफ़ कर रहा है।

उसने अपना समय बिताने के लिये उसके साथ थोड़ा मजा करने का सोचा, और उसे बुलाया….

वरिष्ठ प्रबंधक ने उस लड़के (रवि पुजारी) से पूछा: कितना कमा लेते हो ?

वह लड़का थोड़ा मुस्कराया…

वरिष्ठ प्रबंधक – अपने भविष्य के लिये क्या योजनाएँ हैं ?

वह लड़का चुप रहा कुछ बोला नहीं..

वरिष्ठ प्रबंधक – आज से १० वर्ष बाद तुम अपने को किस जगह देखते हो ?

वह लड़का उसे घूरता रहा पर कुछ बोला नहीं.

वरिष्ठ प्रबंधक – जब मैं बैंगलोर आया था तब मेरे पास भी कुछ नहीं था।

आज मेरे पास क्या नहीं है…

नाम है……

शोहरत है…….

पैसा है……

इज्जत है……

तुम्हारे पास क्या है ……. ?

उस लड़के का उत्तर क्या रहा होगा आगे देखिये….

अरे नहीं ऐसा मत सोचिये कि उसने दीवार वाले शशि कपूर वाला डॉयलाग मारा होगा “मेरे पास माँ है…”

लड़का – साब मेरे पास बहुत काम है….. जो तुम्हारे पास नहीं है !!!!!!!!

और वरिष्ठ प्रबंधक चुपचाप कैंटीन से चल दिया।

राजनीति से प्रेरित कुछ चुटकुले.. अगर सारे पाकिस्तानी चाँद पर चले जायें तो क्या कहोगे ?

पेंटागन पर हमले के तुरंत बाद सांत्वना के लिये चीन के प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति बुश को फ़ोन किया :

“हमें हमले के बारे में जानकर बहुत दुख हुआ, और हम इस कृत्य की घोर निंदा करते हैं, लेकिन अगर पेंटागन से कोई जरुरी दस्तावेज गुम हो गये हों, तो बता दें हमारे पास सभी की प्रति उपलब्ध है।”

——————————————————–

मुशर्रफ़ ने बुश को ११ सितंबर को फ़ोन किया –

मुशर्रफ़ – “राष्ट्रपति महोदय, मैं अपनी गहन संवेदनाएँ व्यक्त करना चाहता हूँ, यह घोर निंदनीय कृत्य है…यह भयानक त्रासदी है.. इतनी प्रसिद्ध इमारत…इतने सारे लोग.. लेकिन मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि हमारा इस सबसे कोई संबंध नहीं है…”

बुश – कौन सी इमारत ? कौन से लोग ?

मुशर्रफ़ – ओह, अभी अमेरिका में समय क्या हुआ है ?

बुश – अभी सुबह के आठ बज रहे हैं।

मुशर्रफ़ – ओहो, मैं आपको एक घंटे बाद फ़ोन करता हूँ !

——————————————————–

बाजपेयी और बुश एक बार में बैठे हुए थे, एक आदमी वहाँ आया और बारमैन से बोला “ये बुश और बाजपेयी हैं क्या ?”

बारमैन बोला “ हाँ वही हैं..” तो वो उनके पास गया

और बोला “नमस्कार, आप लोग यहाँ क्या कर रहे हैं ?”

बुश बोले “हम लोग तीसरे विश्वयुद्ध की योजना बना रहे हैं”

तो वह आदमी बोला, “सच्ची, तो क्या क्या होने वाला है ?”

तो बाजपेयी बोले, “हम १४लाख पाकिस्तानियों और एक साईकिल सुधारने वाले को मारने वाले हैं ।”

उस आदमी ने चिल्लाते हुए कहा, “एक साईकिल सुधारने वाला ?!!”

बाजपेयी बुश की ओर मुड़े और कहा, “देखा, मैंने कहा था न कि कोई भी १४ लाख पाकिस्तानियों की चिंता नहीं करेगा !”

———————————————————-

पाकिस्तानी चाँद पर –

प्रश्न – अगर एक पाकिस्तानी चाँद पर चला गया तो क्या कहोगे ?

उत्तर – समस्या…

प्रश्न – अगर दस पाकिस्तानी चाँद पर चले जायें तो क्या कहोगे ?

उत्तर – समस्या…

प्रश्न – अगर सौ पाकिस्तानी चाँद पर चले जायें तो क्या कहोगे ?

उत्तर – समस्या…

प्रश्न – अगर सारे पाकिस्तानी चाँद पर चले जायें तो क्या कहोगे ?

उत्तर – ….समस्या खत्म !!!

———————————————————-

एक आदमी न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में शाम के समय टहल रहा था, तभी उसने देखा कि एक बड़े से कुत्ते ने एक छोटी सी बच्ची पर हमला कर दिया।

वह दौड़ा और उस कुत्ते से उसे बचाने लगा और आखिरकार कुत्ते को मारने में उसे सफ़लता मिल ही गई और वह उस छोटी सी बच्ची को बचा पाया।

एक पुलिसवाला जो यह सब देख रहा था वह उस आदमी के पास आया और बोला – “तुम बहुत बहादुर हो”

कल तुम सारे अखबारों में यह खबर देखोगे – “बहादुर न्यूयॉर्कवासी ने छोटी सी बच्ची की जान बचाई”

वह आदमी बोला, “लेकिन मैं न्यूयॉर्क का रहने वाला नहीं हूँ !”

ठीक है, तो सुबह की खबर सारे अखबारों में इस प्रकार होगी –

“बहादुर अमेरिकी ने एक छोटी बच्ची की जान बचाई” वह पुलिसवाला बोला।

वह आदमी बोला-“मैं पाकिस्तानी हूँ !”

अगले दिन के अखबारों में खबर छपी, “उग्रवादी ने निर्दोष अमेरिकी कुत्ते को मारा”

कोलकाता के बंगाली डॉन क्यों नहीं होते…… ?

यह संस्मरण किसी भाषा या किसी क्षेत्र की बुराई नहीं करता है, और न ही इस मकसद से लिखा गया है, यह हमारे मित्र के साथ हुई एक सुखद याद है, संस्मरण है, किसी विवाद का विषय न बनायें, कोई बंगाली भाई बुरा न माने।

    हम पहले जिस कंपनी में कार्यरत थे उसी में एक लड़का कोलकाता से आया था, और हमारे ही कमरे में ठहरा था, उसे उसका मामा छोड़ने आया था, बंगालियों में प्रथा होती है कि अगर लड़का पहली बार बाहर जा रहा होता है तो कोई बड़ा छोड़ने जाता है। ऐसा उसने हमें बताया। हमने उससे कहा कि भई ये कंपनी का गेस्ट हाऊस है यहाँ तुम्हारे अंकल नहीं रुक सकते हैं। तो वो ऐसे ही हमसे बहस करने लगा। हमने उसे समझा दिया बेटा न तुम रह पाओगे और न तुम्हारे साथ तुम्हारे मामा। चुपचाप रह लो और इनको जल्दी से घर भेज दो, तुम्हारे घर वाले इनके लिये परेशान हो रहे होंगे।

    जब उसके मामा चले गये तब तो उसने बहुत ही परेशान कर दिया, बोलता क्या था और हमें समझता क्या था, वो बंगाली बाबू कहता था, हम रोटी खाता है और चाय भी खाता है, बस हमारे तो दिमाग की दही कर रखी थी।

    एक दिन ऐसे ही शाम को किसी बात पर गुस्सा आ गया अरे भई हमें नहीं उसे वो भी हमारे ऊपर। अंट शंट बोलने लगा, अब बेचारे को थोड़ी बहुत हिन्दी आती थी और अंग्रेजी भी ज्यादा नहीं आती थी। वैसे भी जब इंसान को गुस्सा आता है तो अपनी मातृभाषा में या जिस भाषा पर उसका ज्यादा अधिकार होता है, उसी में गाली बकने लगता है, अंट शंट बकने लगता है। बस हमें भी गुस्सा आ गया। हम उस समय ११वें माले पर रहते थे, कह अब एक भी शब्द निकाला तो “जहीं से नीचे फ़ेंक देंगे, चिल्लाता हुआ नीचे जायेगा और धप की आवाज आयेगी”। तो बस इतना हमारा कहना था कि वह तो और आगबबूला हो उठा, बोलता है कि हम भी ऐसा ही कुछ कर सकता हूँ।

     तो मैंने उससे मसखरी में ही पूछ लिया अच्छा बता तेरे बंगाल से आज तक कितने डॉन हुए हैं, मैं जहाँ का रहने वाला हूँ वहाँ के मैं गिनाता हूँ, क्योंकि अपनी तो अकल ही घुटने में है (समझ गये न कि मैं कहाँ का रहने वाला हूँ)। बोल अब बोलती बंद क्यों हो गयी, अबे बंगाली तो होते ही सीधे हैं, केवल जबान चलानी आती है परंतु हाथ चलाने में दम गुर्दे चहिये होते हैं, बस बंगाली बाबू बिल्कुल शांत।

    हमारे बंगाली मित्र बोलते हैं कि यह तो हमें भी नहीं पता कि कोलकाता के बंगाली डॉन क्यों नहीं होते….?

कृपया अपने जोखिम पर पढ़े… अगर बाद में आप अपने सिर के बाल नोंचें तो हमारी को जिम्मेदारी नहीं होगी..शोले फ़िल्म में किस का डबल रोल था..

एक वैज्ञानिक अपनी डोरबैल हटा देता है….

आप बता सकते हैं क्यों ??

.

.

.

.

.

.

.

.

.

सोचो….

.

.

.

.

.

नहीं जानते ..

.

.

वो नो-बैल प्राईज जीतना चाहता था।

———————————————————-

एक जहाज था… जिसमें बहुत सारे लोग थे.. उसमें एक चोर भी था.. जहाज बर्फ़ की चट्टान से टकरा गया और सब डूब गये… सिर्फ़ चोर बच गया …. बताओ कैसे…?

.

.

.

.

.

 

.

.

.

.

.

क्योंकि चोर की दाढ़ी में तिनका था…

डूबते हुए को तिनके का सहारा मिल गया

और चोर बच गया।

———————————————————

एक काना लड़का किसी लड़की को कौन सा गाना गाकर प्यार का इजहार करेगा ???

.

.

.

.

.

.

.

.

.

.

.

एक नजर से भी प्यार होता है मैंने सुना है…..

———————————————————-

प्रश्न: – एक अंग्रेज अगर अपने भारतीय नौकर को दरवाजा खोलने के लिये कैसे बोलेगा जो कि केवल हिन्दी समझता है !!

जबाब – “There Was A Cold Day” (say it fast)

(दरवाजा खोल दे)

———————————————————-

शोले फ़िल्म में किस का डबल रोल था..

?

?

?

?

?

किंग जार्ज..

.

.

.

.

कैसे ??

.

.

.

.

सिक्के के दोनों साईड रहता है…

चैन्नई में तीन हिन्दी ब्लॉगरों की मुलाकात.. साधक उम्मेद सिंह जी और पीडी से हुई बातों का ब्योरा..

   शनिवार ३० जनवरी को शाम को हमने उम्मेद सिंह जी से बात की और अगले दिन सुबह ८.३० बजे हमारे होटल में मिलना तय हुआ, फ़िर पीडी से बात हुई तो पीडी बोले हम तो कभी भी आ सकते हैं, आप चिंता न करें।

    सुबह हम लगभग ७ बजे उठे और रोज के उपक्रम से निवृत्त होकर चुके ही थे कि अचानक हमारा मोबाईल फ़ोन घनघनाया, फ़ोन किसी मोबाईल से था तो हमें लग गया जरुर साधक उम्मेद सिंह जी का फ़ोन है, बात हुई तो उधर से साधक उम्मेद सिंह जी की ही आवाज थी। उन्होंने कहा कि हम आपके साथ ज्यादा समय बिताना चाहते हैं जरा जल्दी आ जायें क्या, हमने कहा अरे आपका स्वागत है, बिल्कुल आ जाईये, तो साधक जी बोले फ़िर खोलिये आपके कमरे का दरवाजा हम सामने ही खड़े हैं।

    हमने कमरे का दरवाजा खोला तो साधक जी जैसे ही रुबरु हुए, वे बोले “अरे आप तो बहुत सुंदर हैं।”

   फ़िर बहुत सारी बातें हुईं गीता, उपनिषद, धार्मिक, साहित्यिक, ब्लॉग जगत और जीवन सभी बातों पर साधकजी की गजब की पकड़ है।

    फ़िर अविनाश वाचस्पति जी को फ़ोन लगाया उस समय शायद वो उठे ही थे या हमने उठा दिया था, उनसे भी हमारी और साधकजी की बहुत बातें हुईं।

    साधकजी की ब्लॉग के तकनीकी पक्ष की बहुत सारी जिज्ञासाएँ थीं जिसे हमने शांत करने का प्रयास किया और उन्हें बताया कि हम कैसे विन्डोज लाईव राईटर उपयोग करते हैं, और इसमें क्या क्या सुविधाएँ उपलब्ध हैं, लिंक कैसे बनाते हैं, फ़ोटो कैसे लगाते हैं इत्यादि।

    तब फ़िर हमने वापस प्रशान्त उर्फ़ पीडी को फ़ोन लगाया तो वे बस उठे ही थे, हमने उन्हें अपना होटल का पता बताया तो पीडी बोले कि हम बस आधे पौने घंटे में पहुँचते हैं, वो बराबर पौने घंटे में आ पहुँचे फ़िर एक बार साधकजी और पीडी के साथ चर्चाओं का दौर शुरु हो गया। तब तक नाश्ते का समय हो चुका था और बहुत जोर से पेट में चूहे कूद रहे थे, तो जाने के पहले हमने बोला कि एक फ़ोटो खींचकर नुक्कड़ पर लगा देते हैं, और साधकजी ने अपनी छ: लाईने लिख दीं।

कुछ फ़ोटो हमारे लेपटॉप से –

Image45 Image44

    फ़िर चल दिये पास ही स्थित सरवाना भवन वहाँ जाकर पहले रसगुल्ला और फ़िर इडली छोटी वाली जो कि प्लेट में १४ आती हैं और फ़िर कॉफ़ी, पर पीडी चाय कॉफ़ी नहीं पीते हैं।

    नाश्ता निपटाकर वापिस आये और थोड़ी देर बाहर की हवा में खड़े होकर आनंदित होकर बातें कर रहे थे। साधक जी को शाम को ही जयपुर निकलना था, तो वे हमसे विदा लेकर चल दिये फ़िर मिलने का वादा करके और फ़ोन पर बराबर संपर्क में रहने के बादे के साथ।

    मैं और पीडी वापिस कमरे में आये और फ़िर ब्लॉग जगत के बारे में बातें हो ही रही थीं और साथ में पीडी के मिनी लेपटॉप पर उनके फ़ोटो देख रहे थे, कि पाबला जी का फ़ोन आ गया और फ़िर पाबला जी से भी बातें हुईं, जो कि उन्होंने नुक्कड़ की पोस्ट देखकर ही लगाया था।

    बहुत सारी अपनी जिंदगी की बातें हुईं, फ़िर पीडी भी दोपहर को विदा लेकर चल दिये कि फ़िर जल्दी ही मुलाकात होगी।

चैन्नई की कुछ फ़ोटो सत्यम सिनेमा, नार्थ का ढ़ाबा और सरवाना भवन का प्रसिद्ध मसाला दूध..

आज जब दोपहर को खाने के लिये निकले तो बीच में सत्यम सिनेमा रोज ही
बीच में पड़ता है वहाँ १० से ज्यादा स्क्रीन्स हैं, वहाँ तमिल फ़िल्म का
एक बड़ा पोस्टर लगा हुआ था, इतना बड़ा पोस्टर मैंने पहली बार इधर ही देखा
है, भले ही हम मुंबई मायानगरी के रहने वाले हैं, परंतु वहाँ हमने इतना
बड़ा पोस्टर नहीं देखा।

फ़िर एक उत्तर भारतीय एक ढ़ाबा मिल गया जहाँ हमने आलू के परांठे सूते
और साथ में नमकीन लस्सी, मजा आ गया।

फ़िर शाम को सरवाना भवन में खाने को गये वहाँ खाया दही पूरी, छोले
भटूरे और यहाँ का प्रसिद्ध मसाला दूध फ़िर सादा पान वाह !!!

लगता है कि गूगल के सर्वर पर कुछ समस्या चल रही है…

अभी दो – तीन दिन से लगातार भारतीय समय के अनुसार तार १२ बजे के आसपास
अचानक ही गूगल और उसकी सुविधाएँ काफ़ी धीमी तरीके से कार्य करने लगती
हैं।

जरा बताईये आपके साथ भी ऐसा ही हो रहा है क्या…

ये मैं ईमेल के जरिये पहली पोस्ट डाल रहा हूँ।

क्यों हमारा मन अशांत होता है जब कोई अपना हमसे रुठ जाता है… एक विश्लेषण… क्यों हमारी कार्य क्षमता अपने आप खत्म हो जाती है…

    यह बात में कई सालों से सोच रहा हूँ कि हमारा मन क्यों अशांत होता है जब कोई अपना हमसे रुठ जाता है। या कोई अपना बीमार होता है या उसे कोई परेशानी होती है।

    हमें कोई परेशानी नहीं होती है परंतु फ़िर भी मन अशांत रहता है किसी कार्य में मन नहीं लगता है, स्वस्थ्य होते हुए भी शरीर अस्वस्थ्य जैसा लगने लगता है, दिल तो बैठ ही जाता है और किसी अनहोनी की आशंका से हमेशा धाड़ धाड़ हथौड़ा बजता रहता है।

    हमारी कार्य करने की क्षमता अपने आप खत्म हो जाती है, भूख लगनी बंद हो जाती है, नींद नहीं आती है, सिर भारी रहने लगता है, उल्टी जैसा होता है और भी पता नहीं क्या क्या, सभी नहीं लिख पाऊँगा।

    प्यार किसी अपने से हो यह जरुरी नहीं, जहाँ आत्मिक जुड़ाव होता है वहाँ पर भी यही होता है, वो आत्मिक जुड़ाव किसी इंसान से भी हो सकता है, किसी भौतिकवादी वस्तु से भी हो सकता है।

    जिससे हम आत्मिक रुप से जुड़े होते हैं, जिससे हम सच्चा प्यार करते हैं, जिसे हम खुश देखना चाहते हैं, जो हमारी रग रग में बसा होता है, जिसे हमारा रोम रोम पुकारता है। यह सब उसके लिये होता है, क्योंकि कहीं न कहीं हमें कुछ खोने का डर होता है।

    और जैसे ही वह डर खत्म हो जाता है, सब अपने आप ठीक हो जाता है, कार्य करने की क्षमता आ जाती है जोश के साथ कार्य करने लगते हैं, जोर से भूख लगने लगती है, गहरी नींद आती है।

आपके साथ भी ऐसा होता है क्या …..

हाँ हम भी इन्सान हैं, अपनी कमजोरियों को सुनना हमें भी अच्छा नहीं लगता बुरा लगता है

हाँ हम भी इंसान हैं भले ही किसी से भी कितना भी प्यार करें पर बुरा तो लगता है भले ही वह बोले हमें या दुनिया का कोई ओर व्यक्ति।

कोई भी अपनी कमजोरियों को सुनना पसंद नहीं करता है और अपनी कमजोरियों को सब छुपाते हैं मैं कोई भगवान तो नहीं हूँ जो अपनी कमजोरियों के सामने आने पर असहज महसूस न करुँ। गुस्सा आना तो स्वाभाविक है, और ऐसे कितने लोग होंगे जो ऐसी परिस्थिती में अपने ऊपर काबू रख पाते होंगे। शायद कोई नहीं।

बढ़ती महत्वाकांक्षाएँ रिश्तों में दरारें भी ला सकती हैं और अपनापन खत्म भी कर सकती हैं, इंसान को अपनी इच्छाएँ सीमित ही रखनी चाहिये कि अगर कोई इच्छा अगर पूरी भी न हो तो ज्यादा दुख न हो।

हमने तो अपने जीवन के शुरुआत से कभी भी अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति ही नहीं की, जो मिलता गया बाबा महाकाल का आशीर्वाद से होता गया। और आज भी केवल उतनी ही चीजों की जरुरत महसूस होती हैं, जो कि जिंदा रहने के लिये बहुत जरुरी होती हैं। क्योंकि विलासिता का जीवन न हमें रास आया और भगवान न करे कि हमें विलासिता देखनी भी पड़े।

सभी बुराईयों की शुरुआत की लकीर विलासितापूर्ण जीवन से ही शुरु होती है, जब इंसान की आँखों पर पट्टी बँध जाती है, और वह केवल और केवल अंधे होकर भागता रहता है, जो कि उसका है ही नहीं, केवल क्षणिक सुख के लिये।

न साथ कुछ लाये हैं न लेकर जायेंगे, खाली हाथ आये थे, खाली हाथ जाना है, फ़िर भी इस नश्वर संपत्ति का मोह, वो भी इतना अधिक नहीं होना चाहिये, अपने मन की इस गंदगी को अपने मन के खोह में ही छिपाकर रखना चाहिये, ऐसी खोह में जिसे कोई देख न सके।

केवल अपने पास इतना रखना चाहिये कि अपनी जिंदगी आराम से निकल जाये, ज्यादा मोह भी बुराई की जड़ है। हमेशा अपनी हद में रहना चाहिये, जिससे आप को पता रहे कि आप किसी का मन नहीं दुखा रहे हैं, और अपनी मर्यादा की सीमा का उल्लंघन भी नहीं कर रहे हैं।