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अगर आप भारतीय रेल में यात्रा करते हुए चाय पान कर रहे हैं तो सावधान… (IRCTC’s Worst…..)

अगर आप भारतीय रेल में यात्रा करते हुए चाय पान कर रहे हैं तो सावधान…

भारतीय रेल (आईआरसीटीसी द्वारा प्रदत्त चाय) में चाय पीने के पहले सोचिये फ़िर पीने की हिम्मत कीजिये।

१. केटर्स चाय बनाने के लिये शौचालय के नल का पानी उपयोग में लेते हैं।

२. चाय शौचालय के पास की जगह पर बनायी जाती है।

३. Bath हीटर को दूध गरम करने के लिये उपयोग में लाया जाता है, चाय बनाने के लिये।

ये चित्र हमारे एक मित्र के मित्र द्वारा जनशताब्दी एक्सप्रेस में यात्रा करते समय लिये गये हैं, देखिये…

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मैं तो मर ही जाता अगर मुझे हनुमान चालीसा न याद होती…!!

पत्नी – शादी की रात तुमने जब मेरा घूँघट उठाया तो कैसी लगी थी…

पति – मैं तो मर ही जाता अगर मुझे हनुमान चालीसा न याद होती…!!

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क्यों प्रेमविवाह ज्यादा अच्छा है ????

क्योंकि “जाना हुए शैतान” अच्छा है एक “अज्ञात भूत” से।

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पत्नी – मैं तुम्हारी याद में बीस दिन में ही आधी हो गयी हूँ,

मुझे लेने कब आ रहे हो ?

पति – बीस दिन और रुक जाओ..

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पति होटल मैनेजर से – “जल्दी चलो ! मेरी बीबी  खिड़की से कूदकर जान देना चाहती है”

मैनेजर – “तो मैं क्या करुँ ?”

पति – “कमीने, खिड़की नहीं खुल रही है”

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हरेक आदमी “स्वतंत्रता सेनानी” होता है…. शादी के बाद !!

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वो कहते हैं कि तुम्हारी बीबी स्वर्ग की अप्सरा है,

हमने कहा खुशनसीब हो भाई, हमारी तो अभी जिंदा है….

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३० [कर्ण का धनुर्विद्या का गुप्त अभ्यास…]

      उस दिन सन्ध्या समय मैं नगर में गया। मरे हुए पक्षियों में भूस भरकर बेचनेवाले एक व्यक्ति से भुस भरा हुआ एक पक्षी लिया और लौट आया। रात को चारों ओर स्तब्धता होते ही मैंने शोण को जगाया। हम दोनों अपने कक्ष से बाहर निकले। मेरे हाथ में वह पक्षी था। सम्पूर्ण युद्धशाला शान्त थी। दिन-भर शस्त्रों की झनकार से कम्पित रहनेवाला वह स्थान इस समय निस्तब्ध था। स्थान-स्थान पर इंगुदी के पलीते जलते हुए उस भव्य क्रीड़ांगण को धैर्य बँधा रहे थे। उनमें से एक पलीता मैंने हाथ में ले लिया और बीच के धनुर्वेद के पत्थर के चबूतरे पर चढ़ गया। सामने ही वह विशाल अशोक वृक्ष था। उसकी ओर अँगुलि से संकेत कर अपने हाथ में लगा पक्षी शोण के हाथ में देता हुआ मैं बोला, “इस पक्षी को उस वृक्ष पर किसी ऊँचे स्थान पर बाँध दो और तुम पलीता लेकर वहीं रुके रहो।“

   “किसलिए ?” उसने आश्चर्य से पूछा।

“वह बाद में बताऊँगा। जल्दी जाओ।“

      मेरे हाथ से पलीता और पक्षी लेकर वह वृक्ष की ओर गया। सरसर गिलहरी की तरह सरकता हुआ वह क्षण-भर में ही ऊपर चढ़ गया। थोड़ी देर बाद वह बोला, “भैया, यहाँ एक शाखा से एक धागा बँधा हुआ दिखाई देता है। यहीं बाँध दूँ क्या ?”

“जितना सम्भव हो सके उतना ऊँचा जाओ अभी।“ मैं नीचे से चिल्लाया।

      वह वहाँ से और ऊँचा गया। इससे अधिक ऊँचाई पर वह अब जा ही नहीं सकता था। उसने हाथ में पकड़ा पक्षी एक डाल से बाँध दिया। वह एक अन्य शाखा पर बैठ गया। मैंने चिल्लाकर उससे कहा, “उस पलीते को इस तरह पकड़ो कि वह पक्षी मुझको दिखाई दे। तनिक भी हिलो-डुलो मत।“ उसने पलीता अच्छी तरह पकड़ लिया। मैंने धनुष उठाया और वीरासन लगाया। उस चबूतरे पर खड़े होकर ही मैंने सूर्यदेव को शिष्यत्व स्वीकार किया था। मेरा मन मुझसे कह रहा था, “याद रख, युवराज अर्जुन ने लक्ष्य की दिखाई देनेवाली एक आँख फ़ोड़ी थी। तुझको दोनों आँखें फ़ोड़नी हैं। दिखाई देनेवाली और दिखाई न देनेवाली। कैसे ? पहला बाण लगते ही वह पक्षी घूमेगा। उसका दूसरी ओर का हिस्सा सामने आ जायेगा। इतने में ही दूसरा बाण उसकी दूसरी आँख में घुसना चाहिए। ये दोनों बाण एक ही समय छोड़ने हैं और वे भी पलीते के धूमिल प्रकाश में।“

    मैंने वृक्ष की ओर देखा। पलीते की फ़ड़फ़ड़ाती हुई ज्योति से हवा का अनुमान किया। समीप रखे तरकश में से दो सूची बाण झट से खींचकर हाथ में लिये। धनुष को सन्तुलित किया और वे दोनों बाण उस पर चढ़ा दिये। प्रत्यंचा खींची। अब मैं….मैं नहीं रहा था। मेरा शरीर, मन, दृष्टि, श्वास, बाणों की दोनों नोक और पक्षी की दोनों आँखें – सब एक हो गये। खींची हुई प्रत्यंचा पर दोनों ऊँगलियाँ स्थिर हो गयीं। दोनों अँगुलियों पर दो भिन्न-भिन्न प्रभाव थे। उनमें से एक बाण थोड़ा-सा आगे जाना चाहिए था और दूसरा तुरन्त ही उसके पीछे। क्षण-भर स्थिरता रही और फ़िर दोनों बाण सूँऽऽऽऽ करते हुए एक के बाद एक धनुष से छूटे । पहला आघाता लगा और वह पक्षी एकदम घूमा। इतने में ही दूसरे बाण का एक और आघात उसको लगा और गड़बड़ी में शोण द्वारा जैसे-तैसे बाँधा गया वह पक्षी धागा टूट जाने के कारण धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। हाथ में लगा धनुष फ़ेंककर, चबूतरे की चार-चार सीढ़ियाँ एकदम उतरकर मैं दौड़ता हुआ उस वृक्ष के नीचे गया। पक्षी हाथ में लेकर एक ओर लगे पलीते के पास ले जाकर मैंने देखा। उसकी दोनों आँखों की पुतलियों में दो बाण घुसे हुए थे। सफ़लता के आनन्द से मेरी आँखें चमकने लगीं। शोण वृक्ष से उतरकर नीचे आया। दूर कहीं रात में पहरा देनेवाले पहरेदार ने मध्यरात्रि की घटकाओं के टोले लौहपट्टिका पर मारे।

हम लौटकर कक्ष में सोने चले गये।

     उस दिन से लक्ष्य-भेद के कठिन-कठिन प्रकारों को हम दोनों गुप्तरुप से रात में करने लगे, जब अखाड़े में कोई नहीं होता था। क्योंकि नीरव निस्तब्ध रात में मन को बड़ी अच्छी तरह एकाग्र किया जा सकता था, कोई व्याघात नहीं डाल सकता था।

    इसी प्रकार अभ्यास करते हुए एक के बाद एक अनेक वर्ष कैसे बीत गये, इसका न मुझको पता चला, न शोण को। मल्लविद्या के हाथ सीखने के कारण मेरा शरीर सुदृढ़ हो गया। भुजदण्ड के स्नायुओं पर जोर से मुष्टि-प्रहार करता हुआ अश्वत्थामा मुझसे कहता, “कर्ण, यह मांस है या लोहा ?”

थोड़ी देर के लिये टेन्शन भगायें… [Tension Relievers…..] हँसे और हँसायें….

अपनी बीबी को अपनी १००% कमाई देने से १०% सुख मिलता है।

किसी दूसरी को अपनी कमाई का १०% देने पे १००% सुख मिलता है।

पैसा आपका … फ़ैसला आपका…

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अजीब बात है लेकिन सच है ये तथ्य..

औरत अपने भविष्य के लिये केवल तब तक ही सोचती है जब तक उसे पति नहीं मिल जाता,

आदमी अपने भविष्य के लिये कभी नहीं सोचता जब तक कि उसे पत्नी नहीं मिल जाती !!

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शादी के पहले – स्पाईडरमैन

शादी के बाद – जैन्टलमेन

५ साल बाद – वॉचमेन

१० साल बाद – अपने ही जाल में फ़ँस हुआ स्पाईडरमैन

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जिंदगी में हमेशा हँसते रहो, मुसकराते रहो, गाते रहो, गुनगुनाते रहो…

ताकि तुम्हें देख कर ही लोग समझ जायें कि …….

तुम … “कुँवारे” हो….

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पत्नी – अगर मैं खो गयी तो तुम क्या करोगे ?

पति – मैं टीवी और अखबार में विज्ञापन दूँगा कि जहाँ कहीं भी हो… खुश रहो

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २९ [गुरु द्रोण की परीक्षा और पक्षी की आँख..]

    बीच में एक बार मैं माता से मिलने के लिए चम्पानगरी गया था। आठ दिन बाद जब लौटा तब अश्वत्थामा से पता चला कि गुरु द्रोण ने अपने सभी शिष्यों की परीक्षा ली थी। उन्होंने एक अशोक वृक्ष की ऊँची डाल पर एक मरा हुआ पक्षी, जिसमें भूसा भरा हुआ था, टँगवा दिया था। उस पक्षी की बायीं आँख को ही अचूक भेदनेवाले को उनका प्रशंसात्मक साधुवाद मिलना था। उन्होंने सभी शिष्यों को एकत्र किया और एक-एक करके प्रत्येक को उस पत्थर के चबूतरे पर बुलाकर, उसके हाथ में धनुष देकर उससे निशाना लगाने को कहा। प्रत्येक व्यक्ति आता, धनुष उठाता, प्रत्यंचा चढ़ाता, इतने में ही गुरुवर्य उससे पूछते, “बाण छोड़ने से पहले तुझको क्या-क्या दिखाई दे रहा है ?”

     अनेक जनों ने अनेक प्रकार के उत्तर दिये। उस मूर्ख भीम ने तो यह कहा कि, “मुझे परली ओर के हरे पहाड़ दिखाई पड़ रहे हैं।“ कोई कहता कि बादल दिखाई पड़ रहे हैं, कोई कहता कि पेड़ के हरे पत्ते दिखाई दे रहे हैं, कोई कहता कि वह पक्षी दिखाई दे रहा है।

    इससे गुरुदेव को सन्तोष नहीं होता । वे उस व्यक्ति को धनुष नीचे रखकर वापस जाने को कहते। सबके अन्त में अर्जुन आया। गुरुवर्य ने उससे पूछा, “अर्जुन, तुझे क्या-क्या दिखाई दे रहा है ?”

अर्जुन बोला, “मुझे केवल उस पक्षी की आँख ही दिखाई दे रही है।“

     गुरुवर्य प्रसन्न हो गये। उन्होंने पीठ पर थाप मारी और कहा, “बहुत अच्छे ! तो कर उस आँख का भेदन !” उसने तत्क्षण बाण छोड़कर उस आँख को भेद दिया। गुरुवर्य ने फ़िर उसकी पीठ पर थाप मारी।

    यह समस्त घटना मुझको अश्वत्थामा ने, अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को बीच-बीच में और बड़ी करते हुए, बतायी। अन्त में उसने मुझसे सहसा ही पूछा, “ कर्ण, यदि तू उस समय उपस्थित होता, तो तू पिताजी को क्या उत्तर देता ?”

    मैं थोड़ी देर चुप रहा। मन ही मन मैंने स्वयं को उस पत्थर के चबूतरे पर समझकर वीरासन लगाया और आँखों के सामने उस पक्षी की आँख पर दृष्टि स्थिर कर दी तथा उससे कहा, “अश्वत्थामा ! यदि मैं होता तो मैंने कहा होता, “मुझको कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। क्योंकि लक्ष्य सामने होने पर कर्ण फ़िर कर्ण रहता ही नहीं है। उसका सम्पूर्ण शरीर बाण बन जाता है। केवल बाण ही नहीं, बल्कि बाण की नोक और लक्ष्य-भेद का बिन्दु । मैंने कहा होता, मेरे नुकीले शरीर को एक तिल की जितनी जगह सामने दिखाई दे रही है।“

    मेरे इस उत्तर से आनन्दित होकर अश्वत्थामा ने मुझको अंक में भर लिया । वह बोला, “कर्ण, तू सबमें श्रेष्ठ धनुर्धर होगा।“ उसके बन्धन से अपने को छुड़ाता हुआ मैं मन ही मन निश्चय कर रहा था कि जिस युवराज अर्जुन की, उस पक्षी की आँख का भेद करने के कारण, गुरुवर्य ने इतनी प्रशंसा की थी; वही लक्ष्यभेद आज मैं करुँगा। यह करने पर गुरु द्रोण फ़िर कभी न कभी मुझको भी अपने निकट कर लेंगे। मेरी भी पीठ थपथपायेंगे।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २८ [अश्वत्थामा से मेरी निकटता और कुछ असंयमित बातें पाण्डवो से ….]

     राजप्रसाद से युद्धशाला बहुत दूर थी, इसलिए हम कुछ दिन बाद युद्धशाला में ही रहने लगे। अब राजप्रासाद से हमारा सम्बन्ध टूट गया था। वर्ष में एक बार शारदोत्सव के लिए हम राजभवन जाया करते। वह भी युवराज दुर्योधन के आग्रह के कारण। उसने और अमात्य वृषवर्मा ने हमारी अत्यधिक सहायता की थी। उसके निन्यानबे भाई थे, लेकिन अकेले दुर्योधन को छोड़कर और किसी ने कभी मेरा हालचाल नहीं पूछा था। मुझको भी औरों के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। उन सबके नाम कितने विचित्र थे! दुर्मर्ष, दुर्मुख, अन्त्यनार । यों तो मुझको एक और व्यक्ति भी अच्छा लगा था । वह था अश्वत्थामा। गुरु द्रोण का पुत्र । कितना सरल और ऋजु स्वभाव था उसका ! इतनी छोटी-सी अवस्था में ही धर्म, आत्मा, पराक्रम, प्रेम आदि विषयों पर वह कितने अधिकार से बोलता था ! अपन असमस्त अतिरिक्त समय मैं उसके साथ चर्चा करने में बिताता था। उसको मेरा केवल कर्ण नाम ही विदित था। मैं कौन हूँ, कहाँ का हूँ, यहाँ किस लिए आया हूँ, इस सम्बन्ध में उसने मुझसे कभी पूछ्ताछ नहीं की थी। इसीलिए वह मुझको सबसे अधिक अच्छा लगा था।

     एक दिन मैंने सहज ही उससे पूछा, “तुम्हारा नाम अश्वत्थामा तनिक विचित्र-सा है, तुमको नहीं लगता ?”

    छोटे बालक की तरह खिलखिलाकर हँसता हुआ वह बोला, “तुम ठीक कह रहे हो। यह नाम मुझे भी खटकता है। लेकिन जब मैं अपने नाम के सम्बन्ध में लोगों से पूछता हूँ, तब वे क्या कहते हैं, जानते हो ?”

   “और क्या कहेंगे ? तुम घोड़े की तरह रोबीले दिखाई पड़ते हो, ऐसा ही कुछ कहते होंगे ।“

    “नहीं। ये लोग कहते हैं कि जन्म लेते ही मैं घोड़े की तरह हिनहिनाया था। और इसीलिए मेरा नाम अश्वत्थामा रखा गया है। लेकिन मुझे नहीं जँचती यह बात। कोई छोटा शिशु घोड़े की तरह हिनहिनाये – यह कभी सम्भव है क्या ? परन्तु सच बात तो यह है कि मुझको अपना नाम अच्छा लगता है। क्योंकि मेरे पिताजी मुझको ’अशू’ कहते हैं। लेकिन जब मैं अकेला होता हूँ तभी कहते हैं। सबके सामने तो वे मुझको अश्वत्थामा ही कहते हैं।“

    उसकी संगति में मेरे दिन बड़े मजे में बीत रहे थे। वह मेरे कानों के कुण्डलों को छूकर कहता, “कर्ण, तुम्हारे ये कुण्डल दिन-ब-दिन और अधिक सुनहले रंग के होते जा रहे हैं। नगर के किस सुवर्णकार के पास जाकर इनपर यह सुनहला वर्क चढ़वाते हो ?”

    “मेरे इन कुण्डलों को रँगनेवाला सुवर्णकार कौन है, यह मुझे भी भला कहाँ मालूम है ! नहीं तो मैं उससे अवश्य कहता कि मेरे मित्र अश्वत्थामा को भी सुनहले कुण्डलों की एक जोड़ी दे दो। बड़ा अच्छा है यह ।“

    वह हँसकर कहता, “नहीं भाई, अपने कुण्डलों को तुम अपने ही पास रखो। कानों में सुनहले कुण्डल देखकर कोई चोर मुझ-जैसे पर्णकुटी में सोने वाले ऋषिकुमार का कान ही काटकर ले जायेगा। फ़िर तो न कुण्डल रहेंगे न कान।“ हम दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ते और अपने-आपको भूल जाते। मैं सदैव मन में सोचा करता कि गुरु द्रोण का यह पुत्र कितना निष्पाप और निराग है। परन्तु उसके पिता कितने गम्भीर और शान्त हैं। उनके मन की थाह ही नहीं मिलती है। या कि उत्तरदायित्व मनुष्य को प्रौढ़ बना देता है ? य कि कुल लोग जन्म से ही प्रौढ़ होते हैं ? वह युधिष्ठिर नहीं है क्या – सदैव गम्भीर। क्या मजाल जो कभी भूलकर भी हँसे ? परन्तु इस शाला के सभी शिष्य उसका कितना सम्मान करते हैं ! और उसका भाई अर्जुन तो जैसे सबका प्राण ही है। जहाँ देखो वहाँ अर्जुन। इस अश्वत्थामा पर भी उतना प्रेम नहीं होगा जितना कि गुरु द्रोण उस अर्जुन पर करते हैं। अर्जुन को वे इतना क्यों मानते हैं ? वैसे देखा जाये तो अश्वत्थामा के बराबर श्रेष्ठ युवक युद्धशाला में कोई और नहीं था। लेकिन उस अर्जुन के अतिरिक्त यहाँ और किसी का सम्मान नहीं था। किसी व्यक्ति का इतना महत्व बढ़ा देना कहाँ तक उचित है ! इससे वह व्यक्ति क्या उन्मत्त नहीं हो जायेगा ? वह कौन-सी कसौटी है, जिसपर खरा उतरने के कारण अर्जुन को गुरुदेव ने अपने इतने समीप कर लिया है ? अनेक बार मेरे मन में यह इच्छा हुई थी कि अश्वत्थामा से यह प्रश्न पूछूँ, लेकिन बड़े संयम से मैंने वह बात टाल दी थी। कहीं इसमें वह अपने पिता का अपमान न समझ ले। इसलिए वह प्रश्न मैं इससे कभी नहीं पूछ सकता था।

आगे ४-५ दिन ब्लॉगिंग में अनियमित हो सकते हैं…

हम अपना फ़्लेट आज शिफ़्ट कर रहे हैं, और इंटरनेट कनेक्शन आने में ४-५ दिन लग सकते हैं, क्योंकि उसमॆं एग्रीमेंट के कागज चाहिये जो कि ३-४ दिन बाद आयेंगे।

मृत्युंजय के अंश भी अनियमित होंगे पर जैसे ही हमारे पास इंटरनेट कनेक्शन आ जाता है वैसे ही हम नियमित हो जायेंगे।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २७ [राजमाता कुन्तीदेवी का पाँच घोड़ों का रथा….]

    एक दिन मैं और शोण यों ही नगर घूमने गये थे। सदैव की भाँति घूमघामकर हम लौटने लगे। राजप्रासाद के समीप हम आ चुके थे। इतने में ही सामने से आता हुआ एक राजरथ हमको दिखाई दिया। उस रथ के चारों और झिलमिलाते हुए वस्त्रों के परदे लगे हुए थे। रथ के घोड़े श्वेत-शुभ्र थे। मुझको उनका रंग बहुत ही अच्छा लगा।

    इतने में ही शोण अकस्मात मेरे हाथ में से अपना हाथ छुड़ाकर उस रथ की ओर ही दौड़ने लगा। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि वह पागलों की तरह रथ की ओर क्यों दौड़ रहा था ? और वह रथ के सामने कूद पड़ा और बड़ी फ़ुर्ती से कोई काली सी चीज उठायी। शोण को देखकर सारथी ने अत्यन्त कुशलता से सभी घोड़ों को रोका। मैं हांफ़ता हुआ उसके पास गया मुझे देखते ही बोला “भैया यह देखो । यह अभी रथ के नीचे आ जाता !” मैंने देखा वह एक बिल्ली का बच्चा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि शोण से अब कहूँ तो क्या कहूँ ? उस पर क्रोध भी नहीं किया जा सकता था। मैं कुछ आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा। यह क्या वही शोण है जो हमारे रथ के पीछे रोता हुआ दौड़ता आया था ?

    इतने में ही उस राजरथ के रथनीड़ पर बैठे हुए सारथी ने कहा, “जल्दी कीजिए, झटपट अलग हटिए । रथ में राजमाता कुन्तीदेवी हैं !”

“राजमाता कुन्तीदेवी !”

   मैंने शोण की बाँह पकड़कर उसको झट से एक ओर खींच लिया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । उस रथ में छह घोड़े जोड़ने की भली-भाँति व्यवस्था होने पर भी केवल पाँच ही घोड़े जोड़े गये थे। एक घोड़े का स्थान यों ही रिक्त छोड़ दिया गया था।

   “राजप्रासाद में घोड़े नहीं रहे हैं क्या ?” मैंने मन ही मन कहा।

बस उसने मुझसे लड़ाई शुरु कर दी …. अरे मेरी बीबी ने…

जब मैं कल रात घर पर पहुँचा तो मेरी पत्नी ने मुझसे मांग की कि मैं उसे किसी महंगी जगह पर ले जाऊँ…

तो मैं उसे पेट्रोल पंप ले गया..

बस उसने मुझसे लड़ाई शुरु कर दी……

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मैंने मेरी पत्नी को कहा “ तुम हमारी शादी की सालगिरह पर कहाँ जाना चाहती हो ?”

उसका भावुक चेहरा देखकर मेरा दिल पिघल गया ।

“कहीं ऐसी जगह जहाँ मैं बहुत लम्बे समय से नहीं गयीं हूँ !” पत्नी ने कहा

तो मैंने बोला “फ़िर रसोईघर कैसा रहेगा ?”

बस उसने मुझसे लड़ाई शुरु कर दी…