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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १५

हम नगर से युद्धशाला की ओर चले। मैंने पिताजी से पूछा, “महाराज की आँखों को क्या हो गया है ?”

“वे अन्धे हैं, वत्स । और इसीलिए उनकी पत्नी राजमाता गान्धारी देवी भी समदु:खी होने के लिए आँखों पर पट्टी बाँधकर रहती हैं, जिससे कि यह संसार दिखाई न दे।“

“राजमाता गान्धारी देवी ?”

“हाँ ! युवराज दुर्योधन की माता। उनके निन्यानबे पुत्र और हैं । युद्धशाला में उन सबको तुम अभी देखोगे ही। महाराज पाण्डु के पुत्र पाण्डव भी तुमको इस समय देखने को मिलेंगे।“

“पाण्डव ?”

“हाँ ! इस राज्य के वास्तविक उत्तराधिकारी करुअवराज महाराज पाण्डु थे लेकिन उनकी अकाल-मृत्यु हो जाने के कारण यह राज्य उनके भाई महाराज धृतराष्ट्र को मिला। उन महाराज पाण्डु के पाँच पुत्र हैं, उन्हीं को नगरजन पाण्डव कहते हैं।“

“इसका अर्थ यह है कि कुरुवंश में कुल एक सौ पाँच युवराज हैं। पाँच पाण्डव और सौ धार्तराष्ट्र।“ मेरे मन में यह उत्सुकता जाग्रत हुई कि इतने युवराज आपस में कैसा व्यवहार करते होंगे !

“और दो महाराज और एक पितामह – पितामह भीष्म ।“ पिताजी बोले ।

“दो महाराज ? कौन-से ?”

“एक महाराज धृतराष्ट्र और दूसरे विदुर ।“

“विदुर महाराज कैसे हुए ? थोड़ी देर पहले तो आपने उनसे गुरुदेव कहा था ?”

“हाँ वत्स, गुरुदेव विदुर महाराज धृतराष्ट्र के भाई हैं, लेकिन उन्होंने राजसंन्यास ग्रहण कर लिया है ।“

“संन्यास ! संन्यास क्या होता है ?”

“संन्यास का अर्थ यह है कि इन्होंने सबका त्याग कर दिया है। यह राज्य, यह राजप्रासाद, यह वैभव- किसी पर भी उन्होंने अपना अधिकार नहीं जताया।“

“फ़िर वे यहाँ क्यों रहते हैं ?”

“अपने अन्धे भाई की राज्य-व्यव्स्था लँगड़ी न हो जाये, इसलिए । उनके प्रत्येक शब्द का यहाँ सम्मान होता है। उसी प्रकार पाण्डवों की माता-राजमाता कुन्तीदेवी का भी मान है।“

“राजमाता कुन्तीदेवी !” मैं कुछ प्रश्न करने जा ही रहा था कि इतने में ही पास के कुंज से एक कोकिल जोर से कुहू-कुहू करता हुआ अशोक के वृक्ष पर से सर्र से उड़ा और हमारे सिर के ऊपर से गुजर गया। मैंने उसकी ओर देखा। मुझको भगदत्त की याद आयी। उसने एक बार कहा था कि, “सप्तस्वरों में तान लेनेवाला कोकिल मादा कौआ के घोंसले में पलता रहता है, क्योंकि उसकी माँ ही उसको जन्म देकर मादा कौआ के घोंसले में रख आती है।“ कितना पागल है भगदत्त ! अरे, कोकिल कहाँ पलता है, यह जानकर क्या करना है ? उचित समय आते ही चतुर्दिक वातावरण को मुग्ध कर देनेवाली उसकी आवाज सुनाई देती है, यही पर्याप्त है ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १४, महाराज धृतराष्ट्र से मुलाकात और युद्धशाला में शिक्षण का प्रयोजन

       एक-एक प्रासाद को पीछे छोड़्ते हुए हम चलने लगे । हम महाराज के प्रासाद में आये। विशाल वक्ष:स्थलवाले महाराज घनी लम्बी श्वेत दाढ़ी के काराण बड़े प्रभावशाली लग रहे थे, लेकिन उनकी आँखों के चारों ओर काले घेरे थे। उनकी आँखें बंद प्रतीत होती थीं।

    अत्यन्त आदर से झुककर पिताजी ने महाराज को अभिवादन किया। उन्होंने संकेत से मुझे भी वैसा ही करने को कहा। मैंने भी झुककर प्रणाम किया।

    “मैं आपका सेवक सूतराज अधिरथ आपको वन्दन कर रहा हूँ, सम्राट ! मेरा पुत्र यह कर्ण भी अत्यन्त आदरपूर्वक आपको वन्दन कर रहा है, महाराज !” पिताजी ने झुके हुए ही कहा ।

     “आओ ! सूतराज अधिरथ, तुम्हारी चम्पानगरी के क्या हाल-चाल हैं ? और तुम्हारे साथ तुम्हारा वही पुत्र है क्या, जो कवच-कुण्डलों से युक्त है ? उसके उन कवच-कुण्डलों के विषय में हमने बहुत कुछ सुना है ।“

“हाँ, महाराज ! वही कर्ण है यह ।“

      पिताजी ने मुझको पास जाने का संकेत किया। मैं तत्क्षण आगे बढ़ा । महाराज ने टटोलकर मेरा हाथ अपने हाथ में लिया। मैंने उनके मुख की ओर देखा। उनकी दोनों सुकोमल और कुछ-कुछ लाल-सी आँखों के किनारे आर्द्र हो गये थे। पलको के पास के स्नायु पलकों को खोलने के लिए बड़े अधीर होकर हरकत करने लगे। परन्तु पलकों के खुलने के बजाय आँखों के छोरों पर जो जल एकत्रित हो गया था, वह ररकता हुआ गालों पर शुभ्र दाढ़ी में मिल रहा था। मैंने झुककर उनके चरणों को स्पर्श किया । उन्होंने बाँह पकड़कर मुझको तुरन्त ऊपर उठाया। अपने काँपते हुए दोनों हाथों से उनहोंने मेरे मुख को पकड़ लिया। ऊँगलियों से कान के कुण्डल टटोलकर देखे। उनके उस थर-थर कम्पित स्पर्श में एक अद्भुत आकर्षण था। भौहों को ऊँची कर, दायीं ओर मुड़कर बोले, “विदुर सचमुच ही आश्चर्य की बात है। उसके ये मांसल कुण्डल तो एक असाधारण घटना है ।“

     “हाँ महाराज ! और इसकी देह पर हिरण्यवर्ण का कवच भी है।“ विदुर ने पिताजी की ओर देखते हुए पूछा, “अधिरथ, तुम तो श्यामवर्णी हो, फ़िर तुम्हारा यह पुत्र हिरण्यवर्णी कैसे है ?”

    “वह मातृवर्णी है गुरुदेव !” पिताजी ने हाथ जोड़कर महाराज से कहा, “एक प्रार्थना है महाराज !”

“कहो अधिरथ ! क्या चाहते हो ?”

“राजकुमारों के साथ मेरे इस पुत्र को भी यदि युद्ध-शास्त्र का कुछ शिक्षण मिल सके तो…”

“अवश्य । अधिरथ, अभी जाओ और गुरु द्रोणजी से मिलकर इसका नाम उनकी युद्धशाला में आज ही लिखवा दो ।“

महाराज का अभिवादन कर हम लोग बाहर आये।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १३

        झंझावत की तरह वह जैसे आया था, वैसे ही मुड़ा और बिजली की तेजी से राजप्रासाद की सीढ़ियों पर चढ़ने लगा। केवल एक सीढ़ी शेष रही थी। लेकिन वहीं रुककर वह पुन: पीछे मुड़ा और वर्षा की धारा की तरह क्षण-भर में उन समस्त सीढ़ियों को उतरकर वह फ़िर हमारे पास आया। मेरे पास आकर मेरे कुण्डलों की ओर एकटक देखते हुए वह बोला, “तुम्हारे ये कुण्डल जन्मजात हैं क्या ?”

“हाँ ।“ मैंने उसकी कंजी आँखों में गहराई से झाँकते हुए उत्तर दिया।

      “इन कुण्डलों के कारण तू बहुत ही सुन्दर लगता है। इतना सुन्दर कि ’तू इन चाचाजी का पुत्र है’ इस बात पर किसी को भी विश्वास नहीं होगा। क्यों चाचाजी ?” मेरे कन्धे पर हाथ रखकर उसने मुड़कर खिलखिलाकर हँसते हुए पिताजी से प्रश्न किया । वे असमंजस में कोई उत्तर न देकर ज्यों के त्यों खड़े रहे।

     युवराज दुर्योधन जैसे आया था, वैसे फ़िर तेजी से पैर रखता हुआ चला गया।

      सीढ़ियों को चढ़ने का कष्ट न हो इसलिए शोण को वे अपने कक्ष में पहुँचा आये। महाराज धृतराष्ट्र से मिलने के लिए हम उस भव्य राजाप्रासाद की सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। उन सीढ़ियों पर चढ़ते समय मेरे मन-मन्दिर में स्मृतियों का घण्टा घनघनाने लगा। किसी समय पिताजी ने यों ही कुरुवंश के पराक्रमी पूर्वजों की कहानियाँ सुनायीं थीं, वे कहानियाँ मन की अथाह गहराई से अचानक उफ़नकर ऊपर आने लगीं। मेरा मन भय, कौतूहल, आदर, संकोच, श्रद्धा आदि अनेक विचित्र भावों से भर आया।

       सूर्यवंश के पराक्रमी महाराज हस्ती ने ही यह नगर, यहाँ गंगा का विपुल और स्वच्छ जल देखकर बहुत बरसों पहले बसाया था। उनके प्रपौत्र महाराज कुरु इतने पराक्रमी निकले कि प्रजाजन उनके नाम से ही पहले के सूर्यवंश को कुरुवंश के रुप में जानने लगे। उनके वंशजों को वे कौरव कहने लगे। महापराक्रमी उन महाराज कुरु ने ही ये प्रासाद बनवाया था।

        जिस सूर्यवंश में बुद्धिमान मनु, पुरुषश्रेष्ठ पुरुरवा, इन्द्र को भी शरण में आने को विवश करनेवाले नहुष, अपनी दिग्विजय से समस्त आर्यावर्त को कँपा देने वाले ययाति, उनके पराक्रमी पुत्र यदु और पुरु, जनमेजय, अहंयाती, देवातिथि, दुष्यन्त, भरत, हस्ति और अजमीढ़-जैसे प्रतापी महाराज हो गये थे, उस सूर्यवंश को अपने कर्तृव्य से प्रजाजनों से विस्मृत करा देने वाले महाराज कुरु भला कितने पराक्रमी और गुणसम्पन्न होंगे ! कैसे थे वे महाराज कुरु ? लेकिन महाराज कुरु ही क्यों ? उनके पश्चात भी इस राजप्रासाद में क्या कम पराक्रमी लोग रहे थे ? विदूरथ, अन्श्वन, परीक्षित, भीमसेन, परिश्रवस आदि एक से एक बढ़कर पराक्रमी महाराजाओं की एक माला ही इस ’कुरु’ वंश में तैयार हो गयी थी। महाराज परीक्षित तो सचमुच ही कुरुकुलावतंस थे। एक मत्स्य-कन्या से विवाह करने वाले परिश्रवस महाराज के पुत्र शान्तनु ने तो कुरुवंश में एक नया ही आदर्श स्थापित कर दिया था। इतने विशाल राज्यवैभव को तृण के समान त्याग देने वाले उनके भाई महाराज देवापी तो कुरुवंश-परम्परा के साक्षात चरम उत्कर्ष ही थे।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १२

      हमारा रथ राजाप्रसाद के महाद्वार से भीतर प्रविष्ट हुआ। द्वारपालों ने आदर से झुककर पिताजी को अभिवादन किया। रथ अश्वशाला के पास रुका। सामने ही राजाप्रसाद में जाने के लिये ऊपर चढ़ती हुई असंख्य सीढ़ियाँ थीं| यों ही मेरे मन में आया और मैं उनको गिनने लगा । एक सौ पाँच थीं वे ! एकाध सीढ़ी कहीं छूट तो नहीं गयी, इस सन्देहवश मैं उनको पुन: गिनने लगा। अरे ! पिछली बार जब गिनीं थी, तब एक सौ पाँच थीं । अब एक सौ छ: कैसे हो गयीं ? मैं विचार करने लगा । पर मुझे क्या करना है ! यह सोचता हुआ अपना उत्तरीय सँभालता मैं हस्तिनापुर की उस वैभवशाली और पवित्र भूमि पर पैर रखने ही वाला था कि इतने में ही सात काले घोड़ों का रथ एकदम वायु की गति से, घड़-घड़ की ध्वनि करता हुआ महाद्वार से भीतर प्रविष्ट हुआ। किसी प्रतिहारी ने पुकार लगा दी, “हस्तिनापुराधिपति महाराज धृतराष्ट्रपुत्र युवराज शिरोमणी दुर्योधनऽऽ !” समस्त सेवक और द्वारपाल एकदम सावधान होकर खड़े हो गये। पिताजी ने भी रथ की ओर झुककर अभिवादन किया।

     “कहिए चाचाजी, चम्पानगरी से कब आये ?” युवराज ने रथ से उतरते हुए हँसकर पूछा ।

     “अभी-अभी ही आया हूँ, युवराज !” पिताजी ने सविनय उत्तर दिया।

        मैं रथ से उतरते ही युवराज दुर्योधन को देखने लगा । वह चौदह-पन्द्रह वर्ष का होगा। उसने वीर-भेष धारण कर रखा था। उस वेष में वह विष्णु की तरह सुशोभित हो रहा था। हाथ में गुम्बदवाली गदा के कारण तो वह बहुत ही प्रभावशाली दिखाई पड़ रहा था। एक ही झटके में कीदकर वह नीचे उतर आया और पिताजी के पास आया। उसकी गति ऐसी गर्वीली और मोहक थी, जो अन्यत्र दुर्लभ होती है। उसका प्रत्येक चरण मत्त हाथी के चरण की तरह दृढ़ता से पृथ्वी पर पड़ रहा था। भुजदण्ड पर से बार-बार फ़िसलते उत्तरीय को सँभालते हुए वह अपने हाथों को सगर्व झटके दे रहा था। उसकी कंजी आँखें बड़ी भेदक और पानीदार थीं। नाक भाले के फ़लक की तरह सीधी और पैनी थी। लेकिन न जाने क्यों, उसकी केवल एक बात अच्छी नहीं लगी, वह यह कि सारे संसार को किसी अजगर की तरह अपनी कुण्डली में कस लेने की इच्छा करनेवाली उसकी भौहें बड़ी ही मोटी और कुटिल थीं ।

मेरी ओर देखते हुए उसने पिताजी से पूछा, “चाचाजी ! यह कौन है ?”

“यह मेरा पुत्र कर्ण है, युवराज !” पिताजी ने उत्तर दिया।

“कर्ण ! बहुत अच्छा । लेकिन इसको आज किसलिए लाये हैं ?”

“आपकी राजनगरी दिखाने के लिए ।“

“ठीक है, अमात्य से मिल लीजिए । वे इसको सारा नगर दिखा देंगे ।“

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ११

    शोण हाथ उठाकर “भैया रुक जा ! भैया रुक जा ऽऽऽ – “ कहता हुआ रथ के पीछे दौड़ने लगा। माँ ने आगे बड़कर तत्क्षण उसको पकड़ लिया । मैंने सन्तोष की साँस ली। रथ आगे दौड़ने लगा । लेकिन शोण फ़िर माँ के हाथों से छूट गया था। दूर अन्तर पर उसकी छोटी-सी आकृति आगे बढ़ती हुई दिखाई दे रही थी। उत्तरीय सँवारता हुआ एक हाथ उठाये वह अब भी दौड़ रहा था।

    हम लोग नगरी की सीमा तक आ पहुँचे। मैंने सोचा था कि शोण हारकर अन्त में वापस लौट जायेगा। लेकिन हाथ उठाकर वह अब भी दौड़ रहा था। मैंने पिताजी को रथ रोकने को कहा। हमको रुकते देख वह और जोर से दौड़ने लगा। परन्तु भोले-भाले बालक-जैसे लगने वाले शोण में भी कितना बड़ा साहस था ! वह मेरे साथ आना चाहता था, इसलिए वह सब कुछ भूलकर दौड़ लगा रहा था। कितना हठी था वह ! हठी क्यों, कितना स्वाभाविक और निश्छल प्रेम था उसका मुझपर ! थोड़ी देर में ही वह हाँफ़ता हुआ हमारे पास आ गया।

    उसकी किशोर मुखाकृति स्वेद से तर हो गयी थी। वह बहुत थक गया था, लेकिन उस स्थिति में भी तत्क्षण आगे बढ़कर वह तेजी से उछलकर रथ में कूद पड़ा। रुआँसा होकर, हाँफ़ने के कारण टूटे-फ़ूटे शब्दों में, वह बोला, “मुझको छोड़कर जा रहा है ? क्यों रे भैया ? तू जायेगा तो…तो मैं भी तेरे साथ ही चलूँगा; वापस नहीं जाऊँगा मैं? मुझको शोण जैसा स्नेही भाई मिला था।

    नगरी के आस-पास के परिचित स्थल पीछे छूटने लगे। अगल-बगल की घनी वनराजि में चम्पानगरी अदृश्य होने लगी। मेरा बचपन भी अदृश्य होने लगा। आस-पास की वह हरियाली, जिस पर मेरे बचपन के चिह्न अंकित थे, क्षण-प्रतिक्षण मेरी आँखों से ओझल होने लगी।

    दो दिन पहले जिस पठार पर हमने राजसभा का खेल रचा था, नगरी के बाहर का वह पठार सामने आया। उस पर मध्य भाग में वह काल पाषाण एकाकी खड़ा-खड़ा तप रहा था। मुझको राजा के रुप में मान देनेवाला पाषाण का वह कल्पित सिंहासन – महाराज वसुसेन का वह सिंहासन – मुझको मौन भाषा में विदा करने लगा। हाथ उठाकर मैंने उसको और चम्पानगरी को वन्दन किया। मेरा जीवन बचपन की हरियाली छोड़कर दौड़ने लगा – चम्पानगरी से हस्तिनापुर की ओर ।