सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १४, महाराज धृतराष्ट्र से मुलाकात और युद्धशाला में शिक्षण का प्रयोजन

       एक-एक प्रासाद को पीछे छोड़्ते हुए हम चलने लगे । हम महाराज के प्रासाद में आये। विशाल वक्ष:स्थलवाले महाराज घनी लम्बी श्वेत दाढ़ी के काराण बड़े प्रभावशाली लग रहे थे, लेकिन उनकी आँखों के चारों ओर काले घेरे थे। उनकी आँखें बंद प्रतीत होती थीं।

    अत्यन्त आदर से झुककर पिताजी ने महाराज को अभिवादन किया। उन्होंने संकेत से मुझे भी वैसा ही करने को कहा। मैंने भी झुककर प्रणाम किया।

    “मैं आपका सेवक सूतराज अधिरथ आपको वन्दन कर रहा हूँ, सम्राट ! मेरा पुत्र यह कर्ण भी अत्यन्त आदरपूर्वक आपको वन्दन कर रहा है, महाराज !” पिताजी ने झुके हुए ही कहा ।

     “आओ ! सूतराज अधिरथ, तुम्हारी चम्पानगरी के क्या हाल-चाल हैं ? और तुम्हारे साथ तुम्हारा वही पुत्र है क्या, जो कवच-कुण्डलों से युक्त है ? उसके उन कवच-कुण्डलों के विषय में हमने बहुत कुछ सुना है ।“

“हाँ, महाराज ! वही कर्ण है यह ।“

      पिताजी ने मुझको पास जाने का संकेत किया। मैं तत्क्षण आगे बढ़ा । महाराज ने टटोलकर मेरा हाथ अपने हाथ में लिया। मैंने उनके मुख की ओर देखा। उनकी दोनों सुकोमल और कुछ-कुछ लाल-सी आँखों के किनारे आर्द्र हो गये थे। पलको के पास के स्नायु पलकों को खोलने के लिए बड़े अधीर होकर हरकत करने लगे। परन्तु पलकों के खुलने के बजाय आँखों के छोरों पर जो जल एकत्रित हो गया था, वह ररकता हुआ गालों पर शुभ्र दाढ़ी में मिल रहा था। मैंने झुककर उनके चरणों को स्पर्श किया । उन्होंने बाँह पकड़कर मुझको तुरन्त ऊपर उठाया। अपने काँपते हुए दोनों हाथों से उनहोंने मेरे मुख को पकड़ लिया। ऊँगलियों से कान के कुण्डल टटोलकर देखे। उनके उस थर-थर कम्पित स्पर्श में एक अद्भुत आकर्षण था। भौहों को ऊँची कर, दायीं ओर मुड़कर बोले, “विदुर सचमुच ही आश्चर्य की बात है। उसके ये मांसल कुण्डल तो एक असाधारण घटना है ।“

     “हाँ महाराज ! और इसकी देह पर हिरण्यवर्ण का कवच भी है।“ विदुर ने पिताजी की ओर देखते हुए पूछा, “अधिरथ, तुम तो श्यामवर्णी हो, फ़िर तुम्हारा यह पुत्र हिरण्यवर्णी कैसे है ?”

    “वह मातृवर्णी है गुरुदेव !” पिताजी ने हाथ जोड़कर महाराज से कहा, “एक प्रार्थना है महाराज !”

“कहो अधिरथ ! क्या चाहते हो ?”

“राजकुमारों के साथ मेरे इस पुत्र को भी यदि युद्ध-शास्त्र का कुछ शिक्षण मिल सके तो…”

“अवश्य । अधिरथ, अभी जाओ और गुरु द्रोणजी से मिलकर इसका नाम उनकी युद्धशाला में आज ही लिखवा दो ।“

महाराज का अभिवादन कर हम लोग बाहर आये।

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