याममात्रम़् – एक याम (प्रहर) तीन घण्टे के बराबर होता है। यक्ष ने यहाँ मेघ को एक याम तक प्रतीक्षा करने को कहा है; क्योंकि लक्षणों से यक्षिणी “पद्मिनी” मानी गयी है और पद्मिनी के सोने का समय एक या
म भर होता है। जैसे कि कहा गया है –
पद्मिनी यामनिद्रा च द्विप्रहरा च चित्रिणी।
हस्तिनी यामत्रितया घोरनिद्रा च शड़्खिनी॥
परंतु अन्य विद्वान लिखते हैं कि संभोग की परमावधि एक याम मानी गयी है। यक्षिणी भी पूर्ण यौवना है। उसकी भी स्वप्न में रतिक्रीड़ा एक याम तक चलेगी तब तक प्रतीक्षा करना।
स्वजलकणिकाशितलेन – इससे स्पष्ट होता है कि यक्ष-पत्नी कोई सामान्य स्त्री नहीं थी, वह स्वामिनी थी; क्योंकि स्वामी या स्वामिनियों के पैर दबाकर, पंखा झलकर, गाकर जगाना चाहिये। इसलिये यक्ष मेघ से निवेदन करता है कि वह उसकी प्रिया को शीतल जल कणों से, शीतल वायु से जगाये।
विधुद़्गर्भ: – मेघ वहाँ अपनी बिजली रुपी पत्नी को साथ लेकर जाये; क्योंकि मेघ के लिये परस्त्री के साथ अकेले बात करना उचित नहीं है (परनारीसंभाषणमेकाकिनो नोचितम़्)।
अविधवे – कवि ने यह पद साभिप्राय प्रयुक्त किया है; क्योंकि मेघ यक्षिणी को अविधवे कहकर संबोधित करेगा, जिससे यक्षिणी समझ जायेगी कि उसका पति जीवित है और वह मेघ की बात उत्साहित होकर सुनेगी।
यो वृन्दानि त्वरयति पथि श्राम्यतां प्रोषितानां – संस्कृत काव्यों में वर्षा का उद्दीपक के रुप में वर्णन किया गया है; इसलिए प्राय: यह वर्णन किया जाता है कि मेघ परदेश गये पतियों को घर लौटने के लिये प्रेरित करता है। प्राचीन काल में क्योंकि आवागमन के साधन नहीं थे और पैदल ही आते जाते थे तो पुरुष दीपावली के बाद अपनी जीविका के लिये चले जाते थे और फ़िर वर्षा ऋतु से पहले लौट आते थे, पैदल चलते-चलते जब वे थक जाते थे तो विश्राम करने लगते थे, किन्तु मेघों की घटाएं देखकर वे शीघ्रातिशीघ्र घर पहुँचने के लिये उत्कण्ठित हो उठते थे।
अबलावेणिमोक्षोत्सुकानि – प्रोषितभर्तृका स्त्री प्रिये के प्रवास के समय केशों को एक चोटी में गूँथ लेती थी जिसे प्रवास से लौटकर पति ही अपने हाथ से खोलता था।