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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २२ [कर्ण के नये गुरु, जो खुद कर्ण ने बनाये..]

     जैसे ही मैं राजभवन पहुँचा, पिताजी ने मुझको तैयार रहने को कहा। क्योंकि युद्धशाला में जाना था, इसलिए मैं तुरन्त ही तैयार हो गया। माँ ने जो पेटिका दी थी, वह मैंने एक आले में सँभालकर रख दी थी । उस पर पारिजात के चार पुष्प चढ़ाये। उसको वन्दन कर मैं धीरे से बोला, “माँ ! मुझको आशीर्वाद दो । तुम्हारा वसु जीवन के मार्ग पर एक महत्वपूर्ण मोड़ आज ले रहा है । युद्धशाला में जाने का आज पहल दिन है ।“

पिताजी ने बाहर से ही पुकारा, “कर्ण ! शोण ! जल्दी चलो।“

    हम तीनों युद्धशाला में आये । कल की अपेक्षा आज तो वहाँ बहुत अधिक युवक एकत्रित थे। वे सभी मध्य में स्थित उस चबूतरे के चारों ओर शान्तिपूर्वक बैठे हुए थे। सबके सम्मिलित शान्त और गम्भीर स्वर सुनाई पड़ रहे थे। शायद प्रात:काल की प्रार्थना हो रही थी।

    “ऊँ ईशावास्यम इदम सर्वम…” । प्रार्थना बहुत देर तक चलती रही। मैंने पिताजी को वापस जाने को कहा।

“अनुशासन रखना।“ यह कहकर वे लौट गये।

    बीच में बैठे हुए गुरुदेव द्रोण शान्तिपूर्वक उठकर खड़े हो गये। उन्होंने अपने दोनों हाथ उठाकर अपने सभी शिष्यों को आशीर्वाद दिया। मैं शोण को लेकर आगे बढ़ा । हम दोनों ने झुककर गुरुदेव को प्रणाम किया। मुझको आशा थी कि अपना हाथ उठाकर वे हमको भी आशीर्वाद देंगे। लेकिन इतने में ही अर्जुन उनके सामने आ गया और वे अर्जुन के कन्धे पर हाथ रखकर उससे कुछ बातें करते हुए वहाँ से चले गये।

     मैंने सदैव की तरह पूर्व दिशा में आकाश की ओर देखा । तप्त लाल लोहे के गोले की तरह सूर्यदेव आकाश की नीली छत को जला रहे थे। मेरी निराशा क्षण-भर में नौ-दो ग्यारह हो गयी। बस, महासामर्थ्यशाली उस तेज के अतिरिक्त अधिक योग्य गुरु इस त्रिभुवन में दूसरा कौन होगा ? किसी अन्य के आशीर्वाद की भीख माँगने की आवश्यकता ही क्या है ? आज से मेरे वास्तविक गुरु ये ही हैं। आज से बस इन्हीं की पूजा, आज से इन्हीं की आज्ञा। तत्क्षण मैं पत्थर के उस चबूतरे पर चढ़ गया। वहाँ पुष्पों से सजा हुआ धनुष रखा था। वह मैंने हाथ में उठा लिया और जितना ऊँचा उठा सकता था, उतना ऊँचा उठाकर मैं बोला, “संसार के समस्त अन्धकार को नष्ट करने वाले सूर्यदेव ! आज से मैं तुम्हारा शिष्य हूँ। मुझको आशीर्वाद दो। मुझको मार्ग दिखाओ।“ उस धनुष को मस्तक से लगाकर मैंने झुककर उस तेज को प्रणाम किया।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २१, भीष्म पितामह से संवाद और कर्ण के विचार ।

    एक विशाल वटवृक्ष के सम्मुख घास के छोटे-से तृण की तरह मैं खड़ा था। क्या करुँ, यही मेरी समझ में नहीं आ रहा था। तुरन्त ही जैसे-तैसे अपने को सँभालकर मैंने झुककर उनको अभिवादन किया। उन्होंने तत्क्षण मुझको ऊपर उठाया। अत्यन्त मृदु स्वर में बोले, “तुम अपनी पूजा में लीन थे। मैंने तुमको जगा दिया, इसलिए तुम क्षुब्ध तो नहीं हो गये ?”

“नहीं ।” मैं बोला।

“सचमुच वत्स, तुमको जगाने की इच्छा मैं रोक नहीं सका।“

    मैं आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगा। थोड़ी देर बाद वे बोले, “आज तीन दशाब्दियाँ हो गयीं। प्रतिदिन नियमित रुप से मैं इस समय गंगा के घाट पर आता हूँ, लेकिन इस हस्तिनापुर का एक भी व्यक्ति कभी मुझसे पहले यहाँ नहीं आया, मैंने किसी को नहीं देखा। तुम वह पहले वयक्ति हो, जिसको मैं आज देख रहा हूँ।“

“मैं ?” मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आगे क्या कहूँ।

    “हाँ ! और इसीलिए बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद अन्त में तुमको जगाया ।“ मेरे कानों के कुण्डलों की ओर देखते हुए वे बोले, “इन कुण्डलों के कारण तुम बहुत ही अच्छे लग रहे हो।“

“ये जन्मजात हैं।“ मैंने कहा ।

     “इनका सदैव ध्यान रखना ।” धीरे धीरे पैर रखते हुए वे घाट की सीढ़ियों पर उतरने लगे। पर्वत की तरह भव्य दिखने वाला उनका वह लम्बा शरीर ओझल होने लगा। गले तक पानी में जाकर वे खड़े हो गये। उनके सिर के बाल पानी के साथ तैरने लगे। मैं जहाँ खड़ा था, वहीं से मैंने उनको वन्दन किया। आर्द्र उत्तरीय कन्धे पर डालकर मैं राजभवन की ओर लौटा।

    उस विचित्र संयोग पर मुझे आश्वर्य हुआ। जिन पितामह भीष्म को देखने के लिए मैं कल दिन-भर विचार करता रहा था, वे स्वयं ही आज मुझको मिल गये थे – वे भी अकेले, गंगा के तट पर और प्रात:काल की इस रमणीय बेला में। कितने मधुर हैं उनके स्वर ! मन्दिर के गर्भगृह की तरह उनकी मुखाकृति कितनी शान्त और पवित्र है ! मुझ जैसे एक साधारण सूतपुत्र की कोई बात उनको अच्छी लगती है ! कौरवों के ज्येष्ठ महाराज मुझ-जैसे सूतपुत्र के कन्धे पर हाथ रखकर स्नेह से पूछताछ करते हैं ! सचमुच ही वीर पुरुष यदि अभिमानरहित हो, तो वह कितना महान लगने लगता है ! जिस कुरुकुल में पितामह जैसे वीर और गर्वरहित श्रेष्ठ पुरुष ने जन्म लिया है, वह कुल निश्चय ही धन्य है। मैं भी कितना भाग्यशाली हूँ, जो ऐसे राजभवन में रहने का सौभाग्य मुझको प्राप्त हुआ है। अब तो बार-बार इन पुरुष-श्रेष्ठ के दर्शन मुझको हुआ ही करेंगे। वे दो शान्त और तेजस्वी आँखें मुझपर भी कृपा-दृष्टि रखेंगी। अपने जीवन में जिन तीन व्यक्तियों पर मेरा प्रेम था, उनमें एक व्यक्ति और बढ़ गया था ! पितामह भीष्म !

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २० [गंगा तट पर भीष्म पितामह से मुलाकात]

     संसार के तीन व्यक्तियों से मुझको अत्यन्त प्रेम था। एक अपनी माँ से, दूसरा पिताजी से और तीसरा शोण से। उसी तरह तीन बातों के प्रति मुझमें आकर्षण था। एक थी अपनी असंख्य लहरों के असंख्य मुखों से मुझसे घंटों तक बात करने वाली गंगामाता, दूसरे थे मेरे लिए सदैव उत्साह का प्रचण्ड प्रवाह लेकर आनेवाले आदित्यनारायण और तीसरी यह माँ की दी हुई एक छोटी-सी निशानी चाँदी की पेटिका। इस पेटिका के कारण मुझको चम्पानगरी की याद आयी। मेरे मन का बछड़ा मातृभूमि के थनों पर आघात करने लगा। उनसे स्मृतियों की अनेक मधुर दुग्धधाराएँ बहने लगीं उनकी मधुरता चखते-चखते मैं न जाने कब सो गया।

    प्रत्युषा में पक्षियों की चहचहाहट से मैं जागा। क्षितिज की रेखाओं से अन्धकार हटने लगा था। समस्त हस्तिनापुर धीरे-धीरे जागृत हो रहा था। दूसरा एक सूखा उत्तरीय लेकर मैं कक्ष से बाहर निकला। इस समय वहाँ कोई न होगा, अत: गंगा के पानी में जी भर स्नान कर आऊँ, यह सोचकर मैं घाट की ओर चलने लगा। विचारों में डूबा मैं गंगा के घाट पर आ पहुँचा। मैंने उस अथाह पात्र को आदरपूर्वक नमस्कार किया और फ़िर दोनों हाथ आगे कर सिर के बल मैं पानी में कूद पड़ा। लगभग घण्टा-भर तक मैं उस पानी में मनमानी डुबकियाँ लगाता रहा। मैं पानी में से घाट की ओर पानी काटता हुआ आया। भीगा हुआ अधरीय बदला। भीगा वस्त्र पानी में डूबाकर, फ़िर निचोड़कर मैंने सीढ़ी पर रख दिया। दूर आकाश में सूर्यदेव धीरे-धीरे ऊपर उठ रहे थे। उनकी कोमल किरणें गंगा के पानी को गुदगुदाकर जगा रही थीं। अंजलि में पानी भरकर भक्तिभाव से उसका अर्ध्य मैंने सूर्यदेव को दिया।

    शायद किसी ने मेरे कन्धों को स्पर्श किया। मेरे कन्धों को जोर से हिला रहा था। मैंने धीरे से आँख खोलीं और मुड़कर देखा। अत्यन्त शांत मुखाकृतिवाले एक वृद्ध मेरी ओर देख रहे थे। उनकी दाढ़ी के, सिर के और भौंहों के सभी केश सफ़ेद बादल की तरह श्वेत-शुभ्र थे। भव्य मस्तक पर भस्म की लम्बी रेखाएँ थीं। उनका हाथ मेरे कन्धे पर अब भी ज्यों का त्यों था। कौन है यह वृद्ध ? तत्क्षण मैं प्रश्नों के बाण मन के धनुष पर चढ़ाने लगा। लेकिन नहीं, मैंने इनको कहीं नहीं देखा।

अत्यन्त स्नेहासिक्त, स्वर में उन्होंने मुझसे पूछा, “वत्स, तुम कौन हो ?”

“मैं सूतपुत्र कर्ण ।“

“सूतपुत्र ! कौन-से सूत के पुत्र हो तुम ?”

“चम्पानगरी के अधिरथजी का ।“

“अधिरथ का ?”

“जी । लेकिन आप ?” मैंने बड़ी उत्सुकता से पूछा।

“मैं भीष्म हूँ ।“ उनकी दाढ़ी के बाल हवा के झोंकों से लहरा रहे थे।

भीष्म ! पितामह भीष्म ! कौरव-पाण्डवों के वन्दनीय भीष्म ! गंगा-पुत्र भीष्म ! कुरुवंश के मन्दिर के कलश भीष्म ! योद्धाओं के राज्य के ध्वज भीष्म ! क्षण-भर मेरा मन विमूढ़ हो गया। कुरुवंश का साक्षात पराक्रम मेरे सामने गंगा के किनारे खड़ा था।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १९, कुछ अनसुलझे प्रश्न !!

      मैं उस भीड़ के बाहर हो आया । चारों ओर अखाड़े को ध्यान से देखने लगा। क्योंकि कल से मुझको यहाँ शिक्षा प्राप्त करनी थी। लेकिन एक ही प्रश्न बार-बार मेरे मन में चक्कर काट रहा था। मैं युवराजों के साथ क्यों नहीं शिक्षा प्राप्त कर सकता ? थोड़ी देर पहले गुरुदेव ने कहा था कि युद्धविद्या केवल क्षत्रियों का कर्तव्य है। क्षत्रिय का अर्थ आखिर क्या है ? मैं क्या क्षत्रिय नहीं हूँ ? और यदि नहीं हूँ तो क्या हो नहीं सकता हूँ ?

    अपना नाम शाला में लिखवाकर हम उस भव्य महाद्वार से बाहर आये। मैंने पिताजी से पूछ ही लिया “पिताजी, मैं क्यों नहीं राजकुमारों के साथ शिक्षा प्राप्त कर सकता हूँ ?”

“क्योंकि तुम क्षत्रिय नहीं हो, वत्स !” वो बोले।

“क्षत्रिय ! क्षत्रिय का क्या अर्थ है ?”

“जो राजकुल में जन्म लेता है, वह क्षत्रिय । तुमने एक सूतकुल में जन्म लिया है, वत्स !”

“कुल ! राजकुल में जन्म लेनेवालों के क्या सहस्त्र हाथ होते हैं ? उन्हीं को इतना महत्व क्यों ?”

“यह तुम नहीं समझ पाओगे। कल से नियमित रुप से इस शाला में आया करना । जो-जो शिक्षा दी जाये, वह ग्रहण करना ।“

हम लोग राजप्रसाद लौटे । शोण उसी तरह कक्ष में बैठा हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। उसके पास ही अमात्य वृषवर्मा खड़े थे।

“सूतराज क्या हुआ ? तुम्हारे पुत्र का नाम लिख गया न ?” अमात्य ने विश्वास के साथ पूछा।

“हाँ ।“ पिताजी ने इतना ही उत्तर दिया।

“ठीक है । जब किसी वस्तु की आपको आवश्यकता हो, उसकी सूचना बाहर के सेवक को दे दीजियेगा। मैं जाता हूँ अब।“ अमात्य चले गये।

    मेरा मन यों ही अभ्यासवश युवराज दुर्योधन और अर्जुन, महाराज धृतराष्ट्र और गुरुदेव द्रोण, विदुर और युधिष्ठिर – इनकी तुलना करने का प्रयत्न करने लगा। लेकिन उनमें से किसी की भी एक-दूसरे से तुलना नहीं हो पा रही थी। सबों का अपना स्वतन्त्र और एकदम भिन्न अस्तित्त्व दिखा। इस संसार में कितने प्रकार और कैसे-कैसे स्वाभाव के लोग हैं, भगवान जानें ! किसकी कल्पना से उनका निर्माण होता है ? किस लिए उनका निर्माण होता है ? इस जगत का वह चतुर कारीगर अन्तत: है कौन ? उसने इतने सारे नमूने किस उद्देश्य से बनाये हैं ? क्योंकि यहाँ एक-जैसा दूसरा दिखाई नहीं देता है, और दिखाई दे भी जाये तो वह उस-जैसा होता नहीं है। छि:, इन प्रश्नों का तर्कसंगत उत्तर शायद कोई कभी नहीं दे पायेगा।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १८

“यह मेरा पुत्र कर्ण है ।“ पिता जी ने गुरुवर्य द्रोण से निवेदन किया।

मुझको पूरा विश्वास था कि अब वे मुझसे मेरे कानों के कुण्डलों के सम्बन्ध में कुछ अवश्य पूछेंगे, लेकिन निर्विकार भाव से उन्होंने केवल इतना ही कहा, “तुम्हारा पुत्र, अधिरथ ? फ़िर इसको आज युद्धशाला में कैसे लाये हो ?”

“आपके चरणों में डालने के लिए ।“

“मेरे चरणों में किसलिए ?”

“युवराजों के साथ यदि इसको भी थोड़ी-सी युद्धविद्या की शिक्षा मिल जाये तो …”

“युवराजों के साथ ? अधिरथ, युद्धविद्या केवल क्षत्रियों का कर्तव्य है। तुम चाहो तो अपने पुत्र को युद्धशाला में भरती कर दो, लेकिन वह युवराजों के साथ शिक्षा कैसे पा सकता है ?”

      पिताजी का चेहरा क्षण-भर को निस्तेज हो गया। क्या कहें, यह थोड़ी देर तक उनकी समझ में नहीं आया, अन्त में वे जैसे-तैसे बोले, “गुरुदेव की जैसी आज्ञा ।“

      गुरुदेव को पुन: अभिवादन कर हम लोग लौटने लगे। मार्ग में युवराज अर्जुन लक्ष्य में से बाण निकालकर लौटता हुआ हमें मिला। मैंने उसको ध्यान से देखा। उसका बर्ण आकाश की तरह नीला था। हनु भाले की नोक की तरह सिकुड़्ती हुई थी। उस्की तेजस्वी आँखें दोनों कनपटियों की ओर संकुचित होती गयी थीं। उसकी नाक ऋजु और तीक्ष्ण थी। मस्तक थाल की तरह भव्य था। भौंहें सुन्दर थीं । उसका पूरा चेहरा ही विलक्षण सुन्दर था। घण्टे की तरह मधुर ध्वनि में उसने पिताजी से पूछा, “क्यों काका, चम्पानगरी से आज ही आये हो क्या ?”

“हाँ । अपने इस पुत्र कर्ण को लेकर आया हूँ।“

      अर्जुन ने मेरी ओर देखा। मेरी आँखों की अपेक्षा वह शायद मेरे कानों के कुण्डल को ही अधिक आश्चर्य से देख रहा था । वह मुझसे कुछ पूछने ही जा रहा था कि इतने में ही आकाश से एक कुण्डली-सी हम दोनों के बीच में आकर सर्र से गिरी। आकाश से गिरने के कारण सुन्न होकर वह सर्प थोड़ी देर तक वैसा ही पड़ा रहा और फ़िर जिधर अवसर मिला उधर ही दौड़ने लगा। विद्युत गति से युवराज अर्जुन ने हाथ में लगा बाण धनुष पर चढ़ा लिया और वह द्रुतगति से दौड़ते हुए सर्प पर निशाना लगाने लगा। इतने में ही चबूतरे से कोई चिल्लाया, “अर्जुन ! हाथ नीचे कर !” उस आवाज में अद्भुत शक्ति थी। युवराज अर्जुन ने एकदम हाथ नीचे कर लिया, मानो अग्नि का चटका लग गया हो। तीर की गति से भागता हुआ वह सर्प क्षण-भर में ही अखाड़े के पाषाण-प्राचीर में कहीं अदृश्य हो गया। चबूतरे पर से पुन: आवाज गूँजी, “युवराज, उस तुच्छ सर्प को मारने से पहले अपने भीतर के सर्प को मार डालो। क्रोध का सर्प बड़ा भयानक होता है। दुर्बल पर हाथ मत उठाओ।“

     उस चबूतरे पर गुरुदेव द्रोण थे । एक युवक शीघ्रता से अर्जुन के पास आया और अर्जुन की पीठ पर हाथ रखकर उसने अत्यन्त मधुर स्वर में पूछा, “एकदम ही धनुष कैसे उठा लिया, पार्थ ?”

ये थे युवराज युधिष्ठिर ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १७

      उस अखाड़े में एक ऊँचा और लम्बा-चौड़ा लक्ष्यभेद करने का चबूतरा था। वह चबूतरा ऐसा था कि उसको कहीं से भी देखो, वह अखाड़े के ठीक बीच में दिखाई देता था। उस चबूतरे पर पुष्पों से सज्जित भिन्न-भिन्न आकारों के धनुष रखे हुए थे। एक ओर बाणों के असंख्य तूणीर रखे हुए थे। सामने की ओर अनेक लक्ष्य रखे हुए थे। उस चबूतरे पर साँवले रंग का एक युवक वीरासन लगाकर दायें पैर के पंजे पर शरीर का जोर दिय हुए बैठा था। हाथ में लगे धनुष की प्रत्यंचा उसने कान तक खींच ली थी। एक आँख बन्द कर दूसरी आँख की पुतली उसने बाण की नोंक की सीध में स्थिर कर रखी थी। उसके पास ही ढीले-ढाले वस्त्र पहने हुए, शुभ्र दाढ़ीवाले, सिर के बालों एकत्र बाँधे हुए एक लम्बे वृद्ध खड़े थे। उनकी मुद्रा नदी की तह की तरह शान्त थी। उस साँवले युवक के प्रत्यंचा पर रखे हाथ को उन्होंने सीधा किया। वे उसको कुछ समझाने लगे। युवक ध्यानपूर्वक उनकी बातें सुन रहा था।

    पिताजी ने उस युवक की ओर उँगली से संकेत कर कहा, “वत्स, यही है वह पाण्डुपुत्र धनुर्धर अर्जुन ! और उसको जो सूचनाएँ दे रहे हैं, वे ही हैं पूजनीय गुरुदेव द्रोण !”

    धनुर्धर अर्जुन ! भले ही जो हो – लेकिन क्या वह इससे अधिक प्रभावशाली वीरासन नहीं कर सकता है ? – यह विचार मेरे मेन में कौंध गया ।

    गुरुदेव द्रो़ण वास्तव में अशोक वृक्ष की तरह भव्य लग रहे थे। उनकी देह पर शुभ्र वस्त्र उनके लम्बे शरीर के अनुरुप ही शोभीत हो रहे थे।

    हम अखाड़े के रास्ते चबूतरे की ओर चलने लगे। मुझको ऐसा अनुभव होने लगा जैसे आस-पास की क्रीड़ाक्षेत्रों को देखकर मेरे शरीर की उष्णता यों ही अपने-आप बढ़ने लगी हो। मेरी इच्छाअ हुई कि मैं भी भीतर उतरुँ और चक्कर काटता हुआ तेजी से गदा और खड़्ग के प्रहार प्रतिपक्षी पर करुँ। इन उच्छ्श्रंखल घोड़ों को झुकाकर इअतना पिदाऊँ कि ये मुँह से झाग निकाल पड़ें। हाथी की सूँड पकड़कर उसे नचाऊँ और फ़िर उसको थकाकर अन्त में उसकी पीठ पर चढ़ जाऊँ। चबूतरे पर बैठे उस युवक को उसकी भुजा पकड़कर उठाऊँ और प्रभावशाली वीरासन कैसे लगाया जाता है, यह एक बार अच्छी तरह उसको बता दूँ। कुश्ती के अखाड़े में जंगली भैंसे की तरह यों ही चक्कर काटनेवाले उस उद्द्ण्ड भीम से कुश्ती लड़कर उसका मद भी दूर कर दूँ।

    हम धनुर्विद्या के उस ऊँचे चबूतरे के पास आये। ऊपर बैठे हुए युवराज अर्जुन ने एक बाण छोड़ा। सामने दूरस्थित लकड़ी के लक्ष्य में वह सर्र से घुस गया। गुरुवर्य द्रोण ने उसकी पीठ पर एकदम थाप मारी और वे आनन्द से गरज उठे, “साधुवाद अर्जुन ! लेकिन पास जाकर यह देखो कि तुम्हारा वह सूचीपर्ण बाण लक्ष्य में कितना घुसा है ?” युवराज अर्जुन आज्ञाकारी की भाँति उठा और दृढ़ता से पैर रखता हुआ लक्ष्य की दिशा में चला गया। इतने में पिताजी आगे बढ़े । चबूतरे के नीचे ही खड़े रहकर उन्होंने अभिवादन किया। बड़े आदर से झुककर मैंने उनको अभिवादन किया। पिताजी की इच्छा थी कि उन गुरुवर्य की देखरेख में ही मेरा युद्ध-शास्त्र का अध्ययन हो।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १६

     अन्धे राजा को इतना वैभव दिया पर देखने की शक्ति छीन ली – यह क्रूर व्यवस्था करनेवाला दैव अन्धा नहीं था क्या ? सौ पुत्र और इस अमित राज्य-वैभव के स्वामी इस राजा को भाग्यवान कहा जाये या .…. क्योंकि यह सब देखने के लिये आँखें नहीं हैं – इसलिये उसे अभागा कहा जाये ? अपने सौ पुत्रों को यह अन्धा पिता कैसे पहचानता होगा ? और सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह थी कि आँखें ने होने पर भी इतने विशाल साम्राज्य पर ये शासन कैसे करते होंगे ? छि:, कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं कि उनका उत्तर ही नहीं दिया जा सकता ।

     बहुत देर चलने के बाद हम एक विशाल लौह-महाद्वार के पास आये। उसके दोनों ओर काले रंग के पाषाणों के प्राचीर दूर तक संकुचित होते चले गये थे। महाद्वार की भव्य कमान पर त्रिकोणी भगवा ध्वज फ़ड़फ़ड़ा रहा था। द्वारपालों ने हमको देखते ही अभिवादन किया। हम झुककर भीतर गये। वह कुरुओं की युद्धशाला थी।

     भीतर चारों ओर बड़े-बड़े कक्ष थे और बीचोंबीच एक योजन घेरे का एक विशाल अखाड़ा था। उसके अनेक खण्ड कर दिये गये थे। एक ओर मल्ली के लिए अखाड़ा था। यहाँ लाल रंग की बारीक मिट्टी गोलाकार फ़ैली हुई थी। उसमें अनेक मल्ल-युवकों की जोड़ियाँ एक-दूसरे पर दाँव-प्रति-दाँव चलाती हुई लड़ रही थीं। उस अखाड़े के मध्य भाग में हष्ट-पुष्ट गौरवर्णी युवक ताल ठोंकता हुआ गोलाकार नाचता दिखाई दिया उसके पास जाने का साहस किसी में नहीं था। हाथ उठाकर वह सारे अखाड़े में थय-थय नाच रहा था।

      “कर्ण उस युवराज भीम को देख ! वह अखाड़े में सबको चुनौती देता हुआ घूम रहा है ।“ उसकी ओर उँगली से संकेत करते हुए पिताजी बोले।

      दूसरी ओर अश्वारोहण के लिए स्थान रिक्त छोड़ दिया गया था। घोड़े पंक्ति में दौड़ सकें, इसलिए उस स्थान में रेखाएँ खींची हुई थीं। दौड़ते समय बार-बार रुकावट डालने के लिये स्थान-स्थान पर खन्दकें खुदी हुई थीं। कुछ खन्दकें पानी से भरी हुई थीं। स्थान-स्थान पर ऊँची दीवारें खड़ी की गयीं थीं। अनेक युवक उन सब रुकावटों को खेल-खेल में पार करके अश्वों को अभ्यास कराते हुए दिखाई दिये।

     पूर्व की ओर खड्गों का अभ्यास करने के लिए एक क्रीड़ा-क्षेत्र बनाया गया था। उसके किनारे पर छड़ें लगी थीं। उस छड़ों पर विविध आकार के कवच और छोटी-बड़ी ढालें टँगी हुई थीं। अनेक योद्धा खड्गों से अभ्यास कर रहे थे। क्रोध से तमतमाते हुए एक-दूसरे पर टूट रहे थे। खड्गों की झनझनाहट गूँज रही थी।

     पश्चिम की ओर चैसे ही आकार का एक गोलाकर क्रीड़ांगण था। उसमॆं कुछ युवक गदाएँ घुमाकर उनका अभ्यास कर रहे थे। गर्जना करते हुए चक्कर काट रहे थे। उस विशाल स्थान पर शूल, तोमर, शतघ्री आदि के लिए छोटे बड़े बहुत से क्रीड़ा-क्षेत्र बनाये गये थे। चारों ओर पाषाण-निर्मित कक्ष अनेक प्रकार के शस्त्रास्तों से ठसाठस भरे हुए थे।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १५

हम नगर से युद्धशाला की ओर चले। मैंने पिताजी से पूछा, “महाराज की आँखों को क्या हो गया है ?”

“वे अन्धे हैं, वत्स । और इसीलिए उनकी पत्नी राजमाता गान्धारी देवी भी समदु:खी होने के लिए आँखों पर पट्टी बाँधकर रहती हैं, जिससे कि यह संसार दिखाई न दे।“

“राजमाता गान्धारी देवी ?”

“हाँ ! युवराज दुर्योधन की माता। उनके निन्यानबे पुत्र और हैं । युद्धशाला में उन सबको तुम अभी देखोगे ही। महाराज पाण्डु के पुत्र पाण्डव भी तुमको इस समय देखने को मिलेंगे।“

“पाण्डव ?”

“हाँ ! इस राज्य के वास्तविक उत्तराधिकारी करुअवराज महाराज पाण्डु थे लेकिन उनकी अकाल-मृत्यु हो जाने के कारण यह राज्य उनके भाई महाराज धृतराष्ट्र को मिला। उन महाराज पाण्डु के पाँच पुत्र हैं, उन्हीं को नगरजन पाण्डव कहते हैं।“

“इसका अर्थ यह है कि कुरुवंश में कुल एक सौ पाँच युवराज हैं। पाँच पाण्डव और सौ धार्तराष्ट्र।“ मेरे मन में यह उत्सुकता जाग्रत हुई कि इतने युवराज आपस में कैसा व्यवहार करते होंगे !

“और दो महाराज और एक पितामह – पितामह भीष्म ।“ पिताजी बोले ।

“दो महाराज ? कौन-से ?”

“एक महाराज धृतराष्ट्र और दूसरे विदुर ।“

“विदुर महाराज कैसे हुए ? थोड़ी देर पहले तो आपने उनसे गुरुदेव कहा था ?”

“हाँ वत्स, गुरुदेव विदुर महाराज धृतराष्ट्र के भाई हैं, लेकिन उन्होंने राजसंन्यास ग्रहण कर लिया है ।“

“संन्यास ! संन्यास क्या होता है ?”

“संन्यास का अर्थ यह है कि इन्होंने सबका त्याग कर दिया है। यह राज्य, यह राजप्रासाद, यह वैभव- किसी पर भी उन्होंने अपना अधिकार नहीं जताया।“

“फ़िर वे यहाँ क्यों रहते हैं ?”

“अपने अन्धे भाई की राज्य-व्यव्स्था लँगड़ी न हो जाये, इसलिए । उनके प्रत्येक शब्द का यहाँ सम्मान होता है। उसी प्रकार पाण्डवों की माता-राजमाता कुन्तीदेवी का भी मान है।“

“राजमाता कुन्तीदेवी !” मैं कुछ प्रश्न करने जा ही रहा था कि इतने में ही पास के कुंज से एक कोकिल जोर से कुहू-कुहू करता हुआ अशोक के वृक्ष पर से सर्र से उड़ा और हमारे सिर के ऊपर से गुजर गया। मैंने उसकी ओर देखा। मुझको भगदत्त की याद आयी। उसने एक बार कहा था कि, “सप्तस्वरों में तान लेनेवाला कोकिल मादा कौआ के घोंसले में पलता रहता है, क्योंकि उसकी माँ ही उसको जन्म देकर मादा कौआ के घोंसले में रख आती है।“ कितना पागल है भगदत्त ! अरे, कोकिल कहाँ पलता है, यह जानकर क्या करना है ? उचित समय आते ही चतुर्दिक वातावरण को मुग्ध कर देनेवाली उसकी आवाज सुनाई देती है, यही पर्याप्त है ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ११

    शोण हाथ उठाकर “भैया रुक जा ! भैया रुक जा ऽऽऽ – “ कहता हुआ रथ के पीछे दौड़ने लगा। माँ ने आगे बड़कर तत्क्षण उसको पकड़ लिया । मैंने सन्तोष की साँस ली। रथ आगे दौड़ने लगा । लेकिन शोण फ़िर माँ के हाथों से छूट गया था। दूर अन्तर पर उसकी छोटी-सी आकृति आगे बढ़ती हुई दिखाई दे रही थी। उत्तरीय सँवारता हुआ एक हाथ उठाये वह अब भी दौड़ रहा था।

    हम लोग नगरी की सीमा तक आ पहुँचे। मैंने सोचा था कि शोण हारकर अन्त में वापस लौट जायेगा। लेकिन हाथ उठाकर वह अब भी दौड़ रहा था। मैंने पिताजी को रथ रोकने को कहा। हमको रुकते देख वह और जोर से दौड़ने लगा। परन्तु भोले-भाले बालक-जैसे लगने वाले शोण में भी कितना बड़ा साहस था ! वह मेरे साथ आना चाहता था, इसलिए वह सब कुछ भूलकर दौड़ लगा रहा था। कितना हठी था वह ! हठी क्यों, कितना स्वाभाविक और निश्छल प्रेम था उसका मुझपर ! थोड़ी देर में ही वह हाँफ़ता हुआ हमारे पास आ गया।

    उसकी किशोर मुखाकृति स्वेद से तर हो गयी थी। वह बहुत थक गया था, लेकिन उस स्थिति में भी तत्क्षण आगे बढ़कर वह तेजी से उछलकर रथ में कूद पड़ा। रुआँसा होकर, हाँफ़ने के कारण टूटे-फ़ूटे शब्दों में, वह बोला, “मुझको छोड़कर जा रहा है ? क्यों रे भैया ? तू जायेगा तो…तो मैं भी तेरे साथ ही चलूँगा; वापस नहीं जाऊँगा मैं? मुझको शोण जैसा स्नेही भाई मिला था।

    नगरी के आस-पास के परिचित स्थल पीछे छूटने लगे। अगल-बगल की घनी वनराजि में चम्पानगरी अदृश्य होने लगी। मेरा बचपन भी अदृश्य होने लगा। आस-पास की वह हरियाली, जिस पर मेरे बचपन के चिह्न अंकित थे, क्षण-प्रतिक्षण मेरी आँखों से ओझल होने लगी।

    दो दिन पहले जिस पठार पर हमने राजसभा का खेल रचा था, नगरी के बाहर का वह पठार सामने आया। उस पर मध्य भाग में वह काल पाषाण एकाकी खड़ा-खड़ा तप रहा था। मुझको राजा के रुप में मान देनेवाला पाषाण का वह कल्पित सिंहासन – महाराज वसुसेन का वह सिंहासन – मुझको मौन भाषा में विदा करने लगा। हाथ उठाकर मैंने उसको और चम्पानगरी को वन्दन किया। मेरा जीवन बचपन की हरियाली छोड़कर दौड़ने लगा – चम्पानगरी से हस्तिनापुर की ओर ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – १०

     दूसरे दिन पिताजी ने मुझको हस्तिनापुर चलने के लिए तैयार रहने को कहा। मैं उनकी आज्ञानुसार आवश्यक एक-एक वस्तु एकत्रित करने लगा। मन में अनेक विचारों का जमघट लगा हुआ था। अब चम्पानगर छोड़ना पड़ेगा। यहाँ के आकाश से स्पर्धा करनेवाले किंशुक, सप्तपर्ण, डण्डणी, मधूक, पाटल और खादिर के वृक्ष अब मुझसे अलग होनेवाले थे। यहाँ के पत्ररथ, श्येन, कोकिल, क्रौंच, कपोत आदि पक्षियों से अब मैं बहुत दूर जानेवाला था।

    ऐसी बहुत सी बातें कर्ण सोचने लगा और हस्तिनापुर के बारे में सोचने लगा कि वह कैसा होगा –

    कैसा होगा वह हस्तिनापुर ! सुनते हैं, वहाँ बड़े-बड़े प्रासाद हैं। प्रचण्ड व्यायामशालाएँ, अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से ठसाठस भरी हुई शस्त्रशालाएँ, हिनहिनाते हुए विशालकाय घोड़ों की पंक्तियों से भरी हुई अश्वशालाएँ, सप्तवर्ण बृक्ष की तरह आकाश के गर्भ में जिनके कलश विराजमान हैं, ऐसे भव्य मन्दिर वहाँ हैं। और द्वार की किवाड़ों की तरह जिनके वक्षस्थल हैं, जिनकी भुजाएँऔर जंघाएँ शक्तिशाली हैं, ऐसे असंख्य योद्धाओं से वह हस्तिनापुर भरा हुआ है। सुनते हैं कि वह कुरुकुल के राजाओं की राजधानी है ! किस दिशा मॆं होगी वह ?

     विचारों में लीन मैं, अपना समान रथ में रखता जा रहा था, शोण भी मेरी मदद कर रहा था, परंतु उसे अब भी यह पता नहीं था कि आज मैं भी जा रहा हूँ। “आज मैं तुझको छोड़कर जाऊँगा” यह बात उससे कैसे कहूँ, यही मेरी समझ में नहीं आ रहा था। जब जाने की तैयारी हो गई तो द्वार पर खड़ी राधामाता को झुककर वन्दन किया उसने मुझे ऊपर उठाते हुए मेरे मस्तक को आघ्राण किया। मुझको ह्र्दय से लगाकर शोक से अवसन्न हो बोली, “एक बात ध्यान रखना वसु ! गंगा के पानी में कभी गहराई में मत जाना !” उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी । मेरे रक्त की एक-एक बूँद उन आँसुओं से अत्यन्त प्रेम से कह रही थी, “मात ! तुम्हारे इस उपदेश का मूल्य मैं कैसे सँभालकर रखूँ ? केवल इतना ही कहता हूँ कि साक्षात मृतु के आने पर भी तेरा वसु सत्य से तिल-भर भी कभी विचलित नहीं होगा !”

    उसे कुछ याद आ गया, पुन: पर्णकुटी में गय़ी, और मेरे हाथ पर एक चाँदी की एक छोटी-सी पेटी रख दी। अत्यन्त दुख-भरे स्वर में वह बोली, “वसु, जब-जब तुझको मेरी याद आये, तब-तब तू इस पेटी का दर्शन किया करना । मेरे स्थान पर इसी को देखना ! यह तुम्हारी माँ ही है, यह समझकर इसको सँभालकर रखना !”

     मैंने पेटी उत्तरीय में अच्छी तरह बाँध ली। माता को फ़िर एक बार वन्दन किया। उसने काँपते हाथ से दही की कुछ बूँदे मेरी हथेली पर डालीं। मैंने उनको ग्रहण किया। एकबार उस सम्पूर्ण पर्णकुटी पर दृष्टि डालकर मैंने उसको आँखों में भर लिया। पिताजी ने मुझसे रथ में बैठने को कहा।

     जैसे ही रथ में मैं बैठा, शोण ने पिताजी से पूछा, “भैया कहाँ जा रहा है ?” अब तक उसकी आँखों में आकुलता थी। वे अब रुआँसी हो गयी थीं।

    “मेरे साथ हस्तिनापुर जा रहा है। तू भीतर जा ।” पिताजी ने घोड़ों की वल्गाएँ अपने हाथ में लेकर एकदम उनकी पीठ पर जोर से कशाघात करते हुए कहा । घोड़े एकदम तेजी से उछले और तेजी से दौड़ने लगे।