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मुंबई गाथा दादर रेल्वे स्टेशन.. भाग ६ (Dadar Railway Station.. Mumbai Part 6)

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    हमें दिया गया था बोईसर, जो कि मुंबई से बाहर की ओर है, हमें थोड़ा मायूसी तो हुई कि काश मुंबई मिलता तो यहाँ घूमफ़िर लेते और मुंबई के आनंद ले लेते। पर काम तो काम है, और काम जब सीखना हो तो और भी बड़ा काम है।

    हम तीन लोग होटल की और जाने लगे उसमें वही वरिष्ठ जो हमें ट्रेन से लाये थे वही थे जो कि उस समय हमारे समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, फ़िर पूछा कि टैक्सी से चलेंगे या पैदल, तो हमने कह दिया नहीं इस बात तो पैदल ही जायेंगे। मुश्किल से ७-८ मिनिट में हम होटल पहुँच लिये, और फ़िर उनसे बोला फ़ालतू में ही सुबह टैक्सी में गये और पैसे टैक्सी में डाले, इस पर वे बोले “अरे ठीक है, वह तो कंपनी दे देगी”, हम चुप रहे क्योंकि हमें अभी बहुत कुछ पता नहीं था, और जब पता न हो तो चुपचाप रहना ही बेहतर होता है। तो सामने वाला जो भी जानकारी देता है हम उसे ग्रहण कर लेते हैं, और जब हमें थोड़ा जानकारी हो जाती है तो फ़िर हम उसके साथ बहस करने की स्थिती में होते हैं, और यह समझने लगते हैं कि हम ज्यादा समझदार हैं और सामने वाला बेबकूफ़,  यह एक मानवीय प्रवृत्ति है।

    होटल से समान लेकर फ़िर टैक्सी में चल दिये दादर रेल्वे स्टेशन, जहाँ से हमें लोकल ट्रेन से हमें मुंबई सेंट्रल जाना था और फ़िर वहाँ से बोईसर के लिये कोई पैसेन्जर ट्रेन मिलने वाली थी। दादर लोकल रेल्वे स्टेशन पहुँचे और वहाँ इतनी भीड़ देखकर दिमाग चकराने लगा, और लोकल में यात्रा करने का रोमांच भी था। सड़क के दोनों तरफ़ पटरियाँ लगी थीं और लोग अपना समान बेच रहे थे, भाव ताव कर रहे थे, शायद यहाँ बहुत कम दाम पर अच्छी चीजें मिल रही थीं।

    दादर स्टेशन के ओवर ब्रिज पर चढ़े तो हमने पूछा कि टिकिट तो लिया ही नहीं, तो वरिष्ठ दादर रेल्वे स्टेशन बोले कि टिकिट काऊँटर ब्रिज पर ही है, हमें घोर आश्चर्य हुआ, कि बताओ टिकिट काऊँटर ऊपर ब्रिज पर बनाने की क्या जरुरत थी, मुंबई में बहुत सी चीजॆं ऐसी मिलती हैं जो कि आपको आश्चर्य देती हैं। खैर अपना समान लेकर ऊपर ब्रिज पर पहुँचे तो देखा कि लंबी लाईन लगी हुई है, लोकल ट्रेन के टिकिट के लिये, और कम से कम २५ लोग तो होंगे, हमने वरिष्ठ को बोला कि अब क्या करें वो बोले कि कुछ नहीं लग जाओ लाईन में और टिकिट ले लो ३ मुंबई सेंट्रल के, हमने अपना संशय उनसे कहा कि इस लाईन में तो बहुत समय लग जायेगा कम से कम १ घंटे की लाईन तो है, (अब अपने को तो अपने उज्जैन रेल्वे स्टॆशन की टिकिट की लाईन का ही अनुभव था ना !!) तो वो बोले कि अरे नहीं अभी दस मिनिट में नंबर आ जायेगा। हम भी चुपचाप लाईन में लगे और घड़ी से समय देखने लगे तो देखा कि द्स मिनिट भी नहीं लगे मात्र ८ मिनिट में ही हमारा नंबर आ गया।

     टिकिट काऊँटर वाले की तेजी देखकर मन आनंद से भर गया और सोचने लगे कि काश ऐसे ही कर्मचारी हमारे उज्जैन में होते तो लाईन में घंटों न खड़ा होना पड़ता।

जारी..

मुंबई गाथा स्ट्राँग रूम और १० करोड़ नगद.. भाग ५ (Strong Room and Cash 10 Caror.. Mumbai Part 5)

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   थोड़ी ही देर में क्लाईंट के ऑफ़िस के सामने थे, जिसके यहाँ हमारी कंपनी का सॉफ़्टवेयर चलता था और भारत के हरेक हिस्से में वे लोग अपनी संपूर्ण प्रक्रिया को कंप्यूटरीकृत कर रहे थे, जिसमें हमारा काम था, उनका डाटा ठीक करना, माइग्रेशन करना और फ़िर अगर बैलेंस नहीं मिल रहे हैं तो बैलेंस मिलाना और सॉफ़्टवेयर उपयोग करने वाले कर्मचारियों को सिखाना।

    जब वहाँ अपने एक कक्ष में पहुँचे तो देखा कि पहले से ही वहाँ हमारी कंपनी के बहुत सारे लोग मौजूद हैं, जिसमें से कुछेक को पहचानते थे और कुछ का नाम सुना था, पर बहुत सारे चेहरे अनजाने थे, सबसे हमारा परिचय करवाया गया, लगा कि अभी तो जिंदगी में ऐसे ही पता नहीं कितने नये चेहरों से मिलना होगा, और उन चेहरों के साथ काम भी करना होगा। जिनमें बहुत सारे चेहरे दोस्त बनेंगे और कुछ से अपने संबंध ठीक से रहेंगे और कुछ से नहीं भी बनेगी।

    मेरी जिंदगी में यह एक नया अध्याय शुरु हो चुका था, जिसका अहसास संपूर्ण रुप से मुझे हो रहा था, जिंदगी कितनी करवटें बदलती है यह मैंने देखा है, परंतु यह मेरी जिंदगी की पहली करवट है यह मुझे पता चल रहा था।

    हमारे वरिष्ठ ने फ़िर पूरे स्टॉफ़ से परिचय करवाया और पूरी इमारत घुमाने लगे, हम सोचने लगे कि बताओ हम कहाँ गाँव में रहते थे, इसे कहते हैं शहर। ऐसे ही घूमते घूमते हम पहुँचे स्ट्राँग रूम, हमसे पूछा गया कि स्ट्राँग रूम का मतलब समझते हो, और इसका क्या उपयोग होता है, हमने स्ट्राँग रूम शब्द ही पहली बार सुना था और उसके बारे में पता भी नहीं था कि ये क्या चीज होती है। तब हमारे वरिष्ठ ने हमें बताया कि स्ट्राँग रूम उसे कहते हैं जहाँ कोई भी वित्तीय संस्थान अपनी नकदी और लॉकर्स रखता है, और इस स्ट्राँग रूम में सुरक्षाओं के कई स्तर होते हैं, जिससे यह सब चीजें सुरक्षित रहें। स्ट्राँग रूम की दीवारें पूरी तरह से सीमेंट कांक्रीट से बनी होती हैं, जिस सामग्री से सामान्यत: बीम और पिलर बनते हैं, जिससे स्ट्राँग रूम इतना मजबूत हो जाता है, और उस पर भी सुरक्षा के विभिन्न स्तर रहते हैं।

    हम स्ट्राँग रूम पहुँचे तो वहाँ का स्ट्राँग रूम बहुत ही बड़ा था, और वहाँ ढेर सारे रुपये थे, हमने अपनी जिंदगी में पहली बार इतनी नकदी एक साथ देखी थी, हमारे वरिष्ठ ने पूछा कि बताओ कितने रुपये होंगे, हम बोले कि अंदाजा नहीं लग रहा है, वे बोले ये कम से कम दस करोड़ रुपये हैं और यहाँ रोज दस से बारह करोड़ रुपयों का नकद में व्यवहार होता है। हम सबके चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित चमक थी कि आज हमने इतने सारे रुपये एक साथ देखे और हमारी जिंदगी का एक यादगार लमहा भी था।

    थोड़ी ही देर में हमारी कंपनी के डायरेक्टर आये तो वे बोले कि आप सब को अलग अलग जगह जाना है और हमारा सहयोग करना है, सबको क्लाईंट की शाखाएँ दे दी गईं। पूरा बॉम्बे जैसे मेरी नजरों के सामने ही था, नाम पुकारे जा रहे थे और सभी लोग अपने नाम आने का इंतजार करने के बाद अपने समूह में चले जाते और कब निकलना है और कैसे काम करना है, उस पर चर्चा करने लगते, यह सब चीजें हमारे लिये बिल्कुल नई थीं, पर हम हरेक चीज का मजा ले रहे थे और समझने की कोशिश कर रहे थे। फ़िर एक एक समूह डायरेक्टर के पास जाता और उनसे मंत्रणा करने के बाद, सबको मिलकर निकल जाता।

    इतनी दूर परदेस से आये इतने सारे लोग अपनी जिंदगी की शुरुआत दूर देस बॉम्बे में कर रहे थे, हम भी उनमें से एक थे, ऐसे ही पता नहीं कितने लोग अपने रंगीन सपने लिये बॉम्बे आ चुके होंगे और आज भी आ रहे हैं, मुंबई नगरी में है ही इतना आकर्षण, कि सबको अपनी ओर आकर्षित कर लेती है और अपनी संस्कृति में समाहित कर लेती है।

जारी…

मुंबई गाथा.. भाग ४ होटल में (In Hotel.. Mumbai Part 4)

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    शिवाजी पार्क दादर से गुजरते हुए बहुत ठंडी और ताजगी भरी हवा का अहसास हुआ, तो लगा कि पास ही कहीं समुंदर है, जो कि बहुत ही पास था दादर चौपाटी। शिवाजी पार्क से थोड़ा आगे जाते ही हमारा होटल था, जहाँ हमें ठहरना था। जब टैक्सी रुकी तो एकदम होटल से लड़के आये और हमारा समान हमारे कमरे में ले जाने लगे।

    उस होटल में कमरे बहुत ही कम खाली थे और पहले ही वहाँ बहुत सारे नये नियुक्ति वाले लोग आ चुके थे, तो हमारे वरिष्ठ ने कहा कि अभी और कोई कमरा खाली नहीं है, चलो मेरे कमरे में, पर हाल देखकर डरना मत, क्योंकि कम से कम १०-१२ लोग सो रहे होंगे और सुबह आठ बजते ही सब अपने अपने काम पर निकल लेंगे, उस समय प्रात: ६.३० बज रहे थे। हम कमरे में गये तो सुनकर पहले ही मन बना चुके थे पर देखकर कसमसाहट हो रही थी कि कहाँ फ़ँस गये, क्या और कोई होटल नहीं हो सकता था, और भी बहुत कुछ, तभी वरिष्ठ बोले कि अपना समान जहाँ जगह दिखती है वहाँ रखो और बिस्तर पर जगह बनाकर पसर लो, मैं तुम लोगों को लेने के लिये १० बजे आऊँगा तब तक तुम लोग नाश्ता करके तैयार रहना। और नाश्ता होटल की तरफ़ से है, तो अच्छे से दबाकर नाश्ता कर लेना।

    हमारा ध्यान सबसे पहले खिड़्की की ओर गया, खिड़की के बाहर दादर की मेन रोड थी और गाड़ीयाँ अपनी पूरी रफ़्तार से भागी जा रही थीं, सुबह का मौसम और समय बहुत सुकून देता है, शरीर में ताजगी और स्फ़ूर्ती भर देता है।

    हम लोगों ने भी बिस्तर पर थोड़ी थोड़ी जगह की और लेट गये क्योंकि फ़िर दिनभर आराम नहीं मिलने वाला था। पता नहीं कब झपकी लगी और जो साथी लोग सो रहे थे, तैयार होकर नाश्ता कर मुंबई की जिंदगी में विलीन होने लगे। थोड़े समय बाद हमें भी इस मुंबई में विलीन हो जाना था। थोड़ी ही देर में फ़िर हम केवल उतने दोस्त ही बचे जो उज्जैन से आये थे और हम लोग भी तैयार होने लगे, तैयार होकर फ़िर फ़ोन किया कि नाश्ता भेजिये। कॉन्टीनेन्टल नाश्ता था, अच्छे से दबाकर खाया। मुंबई का पहला दिन था और घर के बाहर भी, और नौकरी का भी पहला दिन था, मन में अजब सा उत्साह था, और गजब की स्फ़ूर्ती थी।

    हम लोग इसी उत्साह और स्फ़ूर्ती में जल्दी तैयार हो गये, और वरिष्ठ का इंतजार करने लगे, वे बिल्कुल १० बजे आये और हम लोगों को टैक्सी में साथ लेकर ऑफ़िस की ओर ले जाने लगे। वे बोले कि वैसे तो १० मिनिट चलकर भी जा सकते थे परंतु तुम सब लोग नये हो और मुंबई के अभ्यस्त नहीं हो इसलिये टैक्सी से ही चल रहे हैं।

जारी..

मुंबई गाथा.. भाग ३ ये है बॉम्बे मेरी जान (Bombay meri jaan.. Mumbai Part 3)

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टैक्सी मुंबई  जैसे ही बांद्रा में टैक्सी में बैठे तो टैक्सी ड्राईवर ने हमारा समान जितना डिक्की में आ सकता था उतना डिक्की में रखा और बाकी का ऊपर छत पर स्टैंड पर रखकर रस्सी से बांध दिया। हम लोग २ टैक्सी में थे और टैक्सी में अपनी जगहों पर विराजमान हो चुके थे। फ़िर ड्राईवर ने चलने से पहले टैक्सी का मीटर डाऊन किया, तो टन्न करके आवाज आई, ये आवाज भी जानी पहचानी लगी सब फ़िल्मों का कमाल था, कि अनजाने शहर में बहुत सी चीजें अपनी और जानी पहचानी सी लग रही थीं।

बांद्रा स्टेशन से बाहर निकले तो हमारे वरिष्ठ हमारे बिना बोले हमारी सारी जिज्ञासाओं को शांत कर रहे थे, मानो उन्होंने हमारे मन की बात पढ़ ली हो, कि हम मुंबई के बारे में जानने को उत्सुक हैं। हमारे वरिष्ठ भी इंदौर से ही थे पर वे मुंबई में लगभग २ वर्ष पहले से थे, और मुंबई के बारे में बहुत अच्छा जान चुके थे।

बांद्रा स्टेशन से बाहर निकलते ही झुग्गी झोपड़ियाँ दिख रही थीं, वे बोले कि यह स्लम एरिया है और अभी के दंगों से यह बहुत प्रभावित हुआ था, अब तो फ़िर भी ठीक लग रहा है। यहाँ स्लम में भी जिंदगी बहुत जद्दोजहद की होती है, इन लोगों को जीने के लिये बहुत संघर्ष करने पड़ते हैं। फ़िर मुंबई की सड़कें शुरु हो गईं, हमारे वरिष्ठ बता रहे थे परंतु पहली बार किसी भी शहर में जाओ, सब एकदम नया सा लगता है और एक बार में रास्ते याद भी नहीं होते। मुंबई की कोलतार से लिपटी सड़कों को देखते जा रहे थे, इतनी ऊँची ऊँची इमारतें पहली बार देख रहे थे, ऐसा लग रहा था मानो कि सच में नहीं हम मुंबई का आभासी चलचित्र देख रहे हों और अनुभव कर रहे हों, क्योंकि दिल अभी भी मानने को तैयार ही नहीं था कि अब हम मुंबई में हैं।

शिवाजी पार्क दादर     टैक्सी दादर शिवाजी पार्क की ओर दौड़ी जा रही थी, वहीं हमारा होटल था, हमारे वरिष्ठ बोले कि ये वही शिवाजी पार्क है जहाँ सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली खेला करते थे और अब भी कभी कभी खेलने आते हैं। हम तो बिल्कुल सपने में ही पहुँच गये कि वाह एक तो इतने सारे फ़िल्मी सितारे यहाँ रहते हैं और इतने बड़े बड़े खिलाड़ी भी यहाँ रहते हैं, मुंबई का ह्रदय कितना बड़ा है। मन में इच्छा हो रही थी कि अभी दौड़कर जाऊँ और शिवाजी पार्क में किसी नेट में ढूँढ़कर आऊँ कि शायद कहीं हमारे ये महान खिलाड़ी अभ्यास कर रहे हों।

दादर चौपाटी     शिवाजी पार्क के दूसरी तरफ़ दादर चौपाटी है, हमें पता नहीं था कि दादर चौपाटी क्या है बस हमें इतना बताया गया कि समुंदर का एक किनारा है, क्योंकि हमें तो यह पता था कि चौपाटी दो ही हैं, एक जूहु चौपाटी और गिरगाँव चौपाटी। हमें बताया गया कि शाम के समय दादर चौपाटी थोड़ा संभलकर जाना क्योंकि लहरें तेज होती हैं, पता नहीं कितना सच था, क्योंकि हम दादर चौपाटी जा ही नहीं पाये।

मन में गाना चल रहा था “ऐ दिल है मुश्किल जीना यहाँ, जरा बचके जरा हटके ये है बॉम्बे मेरी जान”, इस गाने को ध्यान से सुनियेगा इसमें बॉम्बे की एक एक खूबी को अच्छे से सम्मिलित किया गया है, जो लोग बम्बई में रहते हैं और जो रह चुके हैं या आ चुके हैं, वे इसे अच्छी तरह से समझेंगे।

जारी..

मुंबई गाथा.. भाग २ मायानगरी मुंबई में .. (Mayanagari Mumbai.. Mumbai Part 2)

    हमारे वरिष्ठ जो हमें लेने आने वाले थे, न हमने उनको देखा था और न ही उन्होंने हमें देखा था, और फ़िर ट्रेन का समय भी बहुत सुबह का था, तड़के ५.३० बजे तो हम भी समझ सकते हैं कि शायद उठने में देरी हो सकती है, मुंबई में वैसे भी एक जगह से दूसरी जगह जाने में बहुत समय लग जाता है।
    ट्रेन बांद्रा पहुँच चुकी थी और लगभग सारे यात्री प्लेटफ़ॉर्म से चले गये थे, हम सभी अपने डिब्बे के पास ही अपना समान प्लेटफ़ॉर्म पर रखकर इंतजार करने लगे, समय बीतता जा रहा था और हम लोगों की चिंता बड़ती ही जा रही थी। जाते जाते हमारे सहयात्री यह भी बोल गये थे कि कम से कम कहाँ जाना है वह पता तो लिया होता। हमें भी अपनी गलती का अहसास हुआ, पर अब क्या कर सकते थे, हम लोगों ने सोच लिया था कि अगर थोड़ी देर और नहीं आते हैं तो एस.टी.डी. से सीधे कंपनी के उसी व्यक्ति से बात करेंगे जिन्होंने हमें नियुक्ती दी थी।
फ़्लॉपी     थोड़ी ही देर में एक लंबा सा व्यक्ति, किसी को ढूँढ़ता हुआ सा लगा जो कि उसी समय प्लेटफ़ॉर्म पर प्रविष्ट हुआ था, और उनके हाथ में १.२ एम.बी. की फ़्लॉपी का डिब्बा था तो हमें लगा कि यह क्म्पयूटर/ सॉफ़्टवेयर से संबंधित ही कोई लगता है, हमने उनको कंपनी का नाम बोलकर पूछा तो वे मुस्करा दिये और बोले कि हाँ मैं आप लोगों को ही लेने आया हूँ। फ़िर वे बोले मैं इसीलिये १.२” फ़्लॉपी बॉक्स लाया क्योंकि इससे तुम लोग आसानी से पहचान पाते। और उन्होंने कहा कि “मुंबई में आपका स्वागत है”। हम खुश थे कि चलो आखिरकार सारे अंदेशे गलत निकले।
    हमने उनको कहा कि हमें लगा कि शायद हमसे गलती हो गई कि हम मुंबई का पता लेकर नहीं आये तो वे बोले अरे चिंता मत करो अब तुम आ गये हो, और हम तुम्हारे साथ हैं, अब यहाँ से सीधा होटल चलना है। फ़िर तैयार होकर १० बजे तक ऑफ़िस चलना है, हम बहुत सारे लोग होटल पर हैं और जल्दी चले जायेंगे, मैं तुम लोगों को लेने वापिस होटल पर आऊँगा तब तक हमारे सर भी आ जायेंगे, और कहाँ कैसे काम करना है वह भी बता देंगे।
    बांद्रा स्टेशन के बाहर निकले तो टैक्सी से हमें जाना था, वही टैक्सी जिसे आजतक रुपहले पर्दे पर देखते आ रहे थे, और आज वह हमारे सामने थी और हम उसमें बैठने का आनंद लेने वाले थे, कितनी ही फ़िल्मों में टैक्सी देखी थी, फ़िल्मों की बदौलत सब जाना पहचाना लग रहा था,  जो जीवन हम अभी तक रुपहले पर्दे पर देखते थे, हम उस जीवन का हिस्सा बनने जा रहे थे।
    टैक्सी, ऑटो, बेस्ट की बसें, डबल डॆकर बसें देखकर तो बस मन प्रफ़ुल्लित हो रहा था, सब सपने जैसा लग रहा था कि जैसे हम रुपहले पर्दे में घुस गये हों और सारी दुनिया हमें देख रही है।
जारी…

मुंबई गाथा.. भाग १ पहली बार मुंबई में .. (First time in Mumbai.. Mumbai Part 1)

    मुंबई मायानगरी है, बचपन से मुंबई के किस्से सुनते आ रहे थे, मुंबई ये है मुंबई वो है, वहाँ फ़िल्में बनती हैं, कुल मिलाकर बचपन की बातों ने जो छाप मन पर छोड़ी थी, उससे मुंबई को जानने की और जाने की उत्कंठा बहुत ही बड़ गयी थी।

उज्जैन रेल्वे स्टेशन     पहली बार मुंबई नौकरी के लिये ही सन १९९६ में आया था, फ़िल्मों में केवल नाम सुने थे, बांद्रा, अंधेरी, दादर, महालक्ष्मी, लोअरपरेल, मुंबई सेंट्रल, प्रभादेवी इत्यादि और मायानगरी में पहुँचकर तो बस जैसे हमारे पैर जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे, जब १९९६ में आये थे तब उज्जैन से अवन्तिका एक्सप्रैस से बांद्रा उतरे थे, हम बहुत सारे दोस्त एक साथ मुंबई आ रहे थे सबके मम्मी पापा ट्रेन पर छोड़ने आये थे और सब समझाईश दे रहे थे, समझदारी से काम लेना बहुत बड़ी जगह है, और भी बहुत सारे निर्देश जो कि अमूमन अभिभावकों द्वारा दिये जाते हैं। उस समय जिस कंपनी ने हमें नियुक्ती दी थी उसके बारे में ज्यादा पता नहीं था परंतु हाँ हमारे कुछ और दोस्त पहले से ही उस कंपनी में कार्य कर रहे थे।

    हमारे मन में भी गजब हलचल थी पहली बार मायानगरी मुंबई जो जा रहे थे, पहली बार जीवन में दरिया याने कि समुंदर के किनारे वाली नगरी में जो  जा रहे थे। हमारी मुंबई जाने की खुशी छिपाये नहीं छिप रही थी, हम बहुत खुश थे, और अपने पालकों द्वारा निर्देशित किये जा चुके थे, ट्रेन उज्जैन से रवाना हुई, उस समय ट्रेन बांद्रा तक आती थी, अब मुंबई सेंट्रल जाती है।
    ट्रेन में कुछ और सहयात्रियों से बातें हुईं, तो हमें थोड़ा सावधानी बरतने की सलाह दी गई कि मुंबई में तो लोग ऐसे ही बुलाते हैं फ़िर हाथ में घोड़ा देकर कहते हैं कि जाओ उसका गेम बजा दो और बस मुंबई में ऐसे ही चलता है। ये सब सुनकर हमारे सबके मन में थोड़ा भय भी घर कर गया था, परंतु हम इतने सारे दोस्त थे इसलिये हिम्मत बंधी हुई थी, और हम सबने आपस में तय भी कर लिया था कि अगर कुछ भी गड़बड़ लगी तो वापिस से आरक्षण करवाकर तुरंत वापसी उज्जैन कर लेंगे।

बांद्रा रेल्वे स्टेशन      हमारे एक वरिष्ठ जो कि पहले से ही मुंबई में थे, वे लेने आयेंगे यह पहले से ही तय था, सबसे बड़ी समस्या थी कि पहचानेंगे कैसे, हमने तय किया कि चाक से ट्रेन के डिब्बे पर नाम लिख देंगे अगर कोई हमें लेने आया और पहचान नहीं पाया,  मोबाईल फ़ोन तो थे नहीं कि झट से पूछ लिया कि हम यहाँ खड़े हैं…

(वैसे हमारे वरिष्ठ जब हमें लेने आये तो हम एक बार में ही पहचान गये बताईये कैसे पहचाना होगा… वे ऐसी क्या चीज साथ में लाये होंगे… कंपनी के नाम की नामपट्टिका नहीं थी..)
 
 

मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – ४ समाप्त (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 4)

भाग – १, भाग – २, भाग – ३

     काम निपटाने के बाद वापिस फ़ुटपाथों से होते हुए चर्चगेट स्टेशन की ओर जाने लगे, तो फ़ुटपाथों पर पटरी लगाकर बहुत से लोग बैठे हुए थे, सब अलग अलग तरह की चीजें बेच रहे थे, चीजें वहीं होती जिसे देखकर मन ललचा जाये या जिसकी जरुरत पड़ती रहती हो। और दाम भी इतना कम कि व्यक्ति सोच भी न पाये हाँ मोलभाव तो हर जगह होता है, उसमें महारत होना चाहिये। हम भी चाईनीज खिलौने वाले के पास रुके, बेटेलाल बहुत दिनों से कार की जिद कर रहे थे, कि एक कार और चाहिये, जी हाँ एक और कार क्योंकि एक रिमोट कंट्रोल कार (फ़रारी) पहले ही दिला चुके हैं, वहाँ एक टैंक के रुप वाली कार अच्छी लगी, नैनो भी थी, पर टैंक ज्यादा अच्छा लगा, वह अपने आप चारों तरफ़ अलटता पलटता भी था, दो बैटरी से चलता था, हमें बोला ८० रुपये, हमने कहा सही दाम लगा लो हमें लेना है, भाव नहीं पूछना है, वैसे हम भाव कम ही करते हैं, सामने वाला आदमी अपने आप ही ठीक दाम लगा ले तो भाव करने की जरुरत ही महसूस नहीं होती है। बस उसने हमें बोला कि आखिरी दाम ७० रुपये होगा, तो हम चुपचाप आगे निकल लिये, चर्चगेट स्टेशन के पास पहुँचे तो वहाँ खिलौने वाला एक और दिखा उससे पूछा कि कितना लोगे इस टैंक का वह हमें बोला ६० हम बोले कि ६० में दो सैल भी डालकर दे दो। उसने बिना ना नुकुर करे चुपचाप सैल डाले, गाड़ी चैक की और वापिस डब्बे में गाड़ी पैक करके हाथ में धर दी। हमने रकम चुकाई और चले लोकल पकड़ने के लिये।

     स्टेशन पर पहुँचे तो देखा कि ऑटोमेटिक टिकिट वेन्डिंग मशीन बंद पड़ी है, तो टिकिट खिड़की की और १० रुपये लेकर बढ़ लिये, एक बोरिवली का टिकिट लिया और १ रुपया वापिस जेब में रखकर मुड़े ही थे कि देखा कि सामने की तरफ़ दो टिकिट मशीनें लगी हुई थीं, हम रेल्वे प्रशासन को कोसते हुए लोकल की तरफ़ बड़ चले।

चर्चगेट     चारों प्लेटफ़ॉर्म पर बोरिवली की लोकल के बोर्ड लगे थे, दो बोर्ड पर स्लो थी और दो पर फ़ास्ट, हमने ४ नंबर प्लेटफ़ार्म वाली लोकल पकड़ी क्योंकि उस समय ६.४२ हो रहे थे और वह ६.५२ की फ़ास्ट लोकल थी, तो बैठने की जगह आराम से मिल जाती, और हम आराम से बैठ भी गये, पहले कूपे में ही, क्योंकि हमें कांदिवली उतरना था और वहाँ पुल पहले कूपे के पास में ही आता है। भूख भी लग रही थी, सोचा कि कोई भेलपुरी वाला आता होगा तो ले लेंगे, परंतु किस्मत कि कोई भेलपुरी वाला नहीं आया, और हम वहीं बैठे हुए सफ़र शुरु होने का इंतजार करने लगे। जैसे जैसे लोकल के जाने का समय नजदीक आता जा रहा था, वैसे ही भीड़ का दबाब बड़ने लगा।

चर्चगेट स्टेशन     बाहर मतलब प्लेटफ़ॉर्म पर और अंदर लोकल में भी लगातार २६/११ के मद्देनजर सतर्कता बरतने की सलाह दी जा रही थी, अगर कोई भी संदिग्ध वस्तु दिखे तो फ़ौरन वर्दी में गश्त कर रहे पुलिस अधिकारियों को जानकारी दें। इस तरह से आतंक के विरुद्ध सघन अभियान चलाया जा रहा था।

    हम फ़िर अपना कानकव्वा (हैंड्सफ़्री) मोबाईल में लगाकर एफ़.एम. चैनल सुनने लगे, साथ ही कुछ फ़ोन करने थे, जो करे पर लोकल में होने की वजह से आवाज साफ़ नहीं थी, आवाज कट रही थी, और काल ड्राप हो रही थी, हमने अपने मित्र को बोला कि बाद में काल करते हैं, हालांकि वह काल अभी तक नहीं कर पाये हैं, केवल आलस्य के कारण। लोकल ट्रेन में फ़ोन की आवाज इसलिये साफ़ नहीं आती है, क्योंकि हाई वोल्टेज वायर ट्रेन के पास होते हैं।

    तकरीबन ४५ मिनिट में हम कांदिवली पहुँच गये, फ़िर पुल पारकर बस स्थानक की ओर बड़ चले, वहाँ फ़िर लाईन लगी हुई थी, जाते ही २ मिनिट में बस आ गई, मुंबई में सबसे अच्छी बात है कि लोग अनुशासन से रहते हैं, और जो इसका पालन नहीं करता है, उसे सिखा दिया जाता है, और यह अनुशासन हर शहर के लिये जरुरी होता है। बस का टिकिट लिया ७ रुपये का और दूरी होगी मुश्किल से ३-४ किमी., कैसी विसंगती है कि लोकल में ९ रुपये में हम ३५ किमी. आ गये और बस में ७ रुपये में ३-४ किमी., फ़िर भी बेस्ट बोलती है कि किराया और बढ़ाना चाहिये। आखिरकार दिनभर की भागदौड़ के बाद घर पहुँच गये लगभग रात के ९.३० बजे।

मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – ३ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 3)

भाग – १, भाग – २

    लोकल आखिरकार चर्चगेट स्टेशन पर पहुँच ही गयी, पर लोकल से उतरना भी आसान नहीं है, क्योंकि मैं चर्चगेट पहुँचा था लगभग शाम के ५.४० बजे और शाम ५.०० बजे से रात ९-९.३० बजे तक वहाँ से बोरिवली या विरार के लिये आने वाले लोगों की भीड़ लगी रहती है, और जैसे ही लोकल रुकती है, वैसे ही सीट के लिये लोग लोकल में टूट पड़ते हैं, घमासान मच जाता है, उतरने वाले यात्री चुपचाप दुबके हुए खड़े होते हैं, जब भीड़ का वेग कम हो जाता है तब उतरते हैं, अगर कोई नया व्यक्ति मुंबई में आया होता है और उसे यह सब पता नहीं होता है तो या तो कोई बता देता है और वह चुपचाप वैसा ही करता है नहीं तो बेचारे का मुँह ही टूटता है, और लोगों की गाली अलग खाता है।

    चर्चगेट स्टेशन पर कोई गेट नहीं है बस स्टॆशन का नाम चर्चगेट है, हम बाहर निकल रहे थे, और भीड़ अपने पूरे वेग से लोकल पकड़ने की और प्लेटफ़ॉर्म की और बड़ रही थी, हमें भीड़ को चीरते हुए आगे बड़ना पड़ रहा था। फ़िर उल्टे हाथ की ओर का सबवे पकड़कर सीधे अहिल्याबाई होलकर बस स्थानक तक पहुँचे, इसी सबवे में सड़क की एक लड़ाई का शूट हुआ था, जिसमें संजय दत्त ४-५ गुंडों को मारते हैं।

    सबसे पहले हमने ५ रुपये का छोटा ग्लास गन्ने का रस पिया, लोग कहते हैं कि यह हाईजीनिक नहीं है, परंतु अगर मन हो तो वह कर ही लेना चाहिये, फ़िर बाद में जो होगा वो देखेंगे, परंतु अगर कुछ होना होता तो शायद बहुत सारे लोगों को हो गया होता। फ़िर अपने नोकिया ई ६३ पर गूगल मैप्स खोला और डी.एन.रोड जहाँ जाना था, रास्ता देखा और चल पड़े, वैसे तो फ़ोर्ट का पूरा एरिया पैदल कई बार नापा है, परंतु इस बार कई दिनों बाद जाना हुआ था, तो कहीं गलत रास्ते पर न पहुँच जायें इसलिये गूगल मैप की सहायता ले ही ली।

    बीच में २-३ सिग्नल भी थे जहाँ पर सिगनल लाल बत्ती होने तक लगातार वाहन अपनी पूरी रफ़्तार से चौराहे पार करते रहते हैं, और लाल बत्ती होते ही गजब की रफ़्तार से ब्रेक भी लगा देते हैं। यह देखना भी किसी रोमांच से कम नहीं होता है, बीच में ही फ़ैशन स्ट्रीट भी पड़ती है, जहाँ कम बजट में अच्छी चीजें मिल जाती हैं, मोल भाव करना ही होता है, बस आपको मोलभाव करने में महारत होनी चाहिये। फ़िर पहुँचे हुतात्मा चौक, जिसे शायद हार्निमेन सर्किल और फ़्लोरा फ़ाऊँटेन भी कहा जाता है, जहाँ चारों तरफ़ पुरानी इमारते दिखेंगी परंतु उसमें कार्यालय सारे अंतर्राष्ट्रीय बैंक या कंपनी के होंगे, बहुत सारी भारतीय कंपनियों के भी कार्यालय यहाँ हैं।

डबल डेकर बस     वैसे जितने खुले फ़ुटपाथ मुंबई के इस क्षैत्र में हैं उतने शायद ही कहीं और होंगे। यह फ़ुटपाथों का स्वर्ग है, यहाँ पैदल चलने का अपना अलग ही मजा है, पुरानी इमारतें देखते जाओ, चमकती सड़कों पर डबल डेकर बसें और पुरानी फ़िएट टैक्सी इसका सुखद अहसास बड़ा देती है। डी.एन. रोड पर पहुँचकर जहाँ हमें जाना था, वह इमारत देखते ही याद आ गई, और फ़िर हम अपना काम निपटाने चल दिये।

जारी…

मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – २ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 2)

    जब हमने टिकिट ले लिया और अपनी निगाहें उस टीवी स्क्रीन पर जमा रखी थीं फ़िर जब पुल पर आये तो वहाँ पर भी इंडिकेटर में हरेक प्लेटफ़ॉर्म के बारे में सूचना होती है, पहले हम २ नंबर प्लेटफ़ॉर्म की ओर रुख कर रहे थे, परंतु तभी देखा कि ४ नंबर पर फ़ास्ट आ रही है, तो उधर की तरफ़ दौड़ पड़े क्योंकि केवल १ मिनिट ही बचा था। समय से लोकल आ गई और चूँकि यह हम उल्टी तरफ़ जा रहे थे, इस तरफ़ के लिये भीड़ सुबह मिलती है तब लोकल में चढ़ना किसी युद्ध से कम नहीं होता है। मालाड़ से आगे वाली तरफ़ के कूपे में ही चढ़ लिये, जिससे चर्चगेट पर ज्यादा दूर नहीं चलना पड़े, बताओ चलने में भी मन में कितना आलस्य भरा होता है। पर आलस्य के साथ साथ समय की बचत भी कम से कम २-४ मिनिट की ही सही।
    मजे में खिड़की के पास की सीट पर बैठ गये और पहले कुछ जरुरी फ़ोन लगाये फ़िर अपने कानकव्वे को फ़ोन में लगाकर एफ़.एम. सुनने लगे।
    एफ़.एम. के भी १२ चैनल आते हैं, अब हम तो कभी कभी सुनने वाले हैं तो बस जहाँ गाना अच्छा होता रुक जाते या फ़िर जो बतौड़ कर रहा होता वहाँ, इस तरह से ५० मिनिट के सफ़र में जाने कितनी बार चैनल बदल डाले होंगे। एफ़.एम. के किसी चैनल पर ही एक रजनीकांत स्पेशल चुटकुला सुना –
    “बचपन में रजनीकांत मुंबई में खेलने आये थे, और अपना एक खिलौना यहीं भूल गये थे, जिसे लोग आजकल एस्सेल वर्ल्ड के नाम से जानते हैं”|
    वर्षों पहले जब हम दिल्ली में थे तब केवल एफ़.एम. का ही सहारा होता था और दिल्ली में उस समय २-३ एफ़.एम. के चैनल ही आते थे, पर आजकल १२ चैनल यहाँ मुंबई में हैं तो दिल्ली में भी कम तो नहीं होंगे।
    लोकल गोरेगाँव, जोगेश्वरी, अंधेरी, बांद्रा, दादर, मुंबई सेंट्रल, चर्चगेट रुकी। बीच के स्टेशन पर नहीं रुकी क्योंकि फ़ास्ट थी लगभग हर तीन छोटे स्टेशन के बाद एक बड़ा जंक्शन जैसे बड़ा स्टेशन आता है। अगर किसी छोटे स्टेशन पर उतरना हो तो स्लो लोकल पकड़ना होती है। बीच में चर्नी रोड़ और मरीन लाईन्स से दायीं तरफ़ दरिया दिखता है, फ़िर चर्चगेट आने वाला होता है तो वानखेड़े स्टेडियम दिखता है, उस दिन वहाँ वेल्डिंग का काम चल रहा था, प्रतीत होता था कि स्टेडियम का जीर्णोद्धार हो रहा है, ये तो बाद में पता चलेगा कि फ़ायदा अधिकारी का हुआ या जनता का।
जारी…

मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – १ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 1)

    किसी निजी कार्य की वजह से कई दिनों बाद वापिस मुंबई जाना हुआ, जी हाँ मुंबई जो कि माटुँगा रोड से कोलाबा तक कहलाता है (अगर मैं गलत हूँ तो सुधारियेगा)। मैं रहता हूँ कांदिवली में और कार्यालय है मालाड़ में, जो कि मुंबई महानगरी के उपनगर कहलाते हैं। जब बोरिवली या कांदिवली से लोकल ट्रेन में चढ़ेंगे तो पायेंगे कि कई लोग फ़ोन पर बात करते हुए कह रह होंगे कि आज मुंबई जा रहा हूँ। बाहर से आने वाला व्यक्ति तो बिल्कुल चकित ही होगा कि मुंबई में रहकर भी बोल रहे हैं, कि “मुंबई जा रहे हैं”, वैसे यहाँ अगर चर्चगेट, फ़ोर्ट, नरीमन पाईंट या कोलाबा की तरफ़ जा रहे हैं तो लोग यह भी कहते हुए पाये जाते हैं कि “टाऊन” जा रहा हूँ।
    कार्यालय से चर्चगेट का सफ़र सबसे पहले शुरु हुआ ऑटो से, हम उतरे मालाड़ एस.वी.रोड याने कि स्वामी विवेकानन्द रोड जो कि बोरिवली से शुरु होकर लोअर परेल तक है। और हमेशा इस पर जबरदस्त ट्रॉफ़िक रहता है, क्योंकि इस सड़क की चौड़ाई बहुत ही कम है और वाहनों का दबाब ज्यादा, हालांकि लिंक रोड और पश्चिम महामार्ग (Western Express High Way) से काफ़ी सहारा है, नहीं तो अगर एस.वी.रोड पर फ़ँस गये तो बस फ़िर तो गई भैंस पानी में।
    एस.वी.रोड पर ऑटो से उतरकर मालाड़ स्टेशन शार्टकट से निकले। बहुत कम ऑटो स्टेशन तक जाते हैं क्योंकि वहाँ ट्रॉफ़िक ज्यादा होता है, ऑटो में बैठने वाला भी सोचे कि इससे तो मैं पैदल ही चलकर चला जाता। टिकिट खिड़की पहले माले पर है, गोरेगाँव की तरफ़ वाली, कांदिवली की तरफ़ वाली टिकिट खिड़की के लिये चढ़ना नहीं पड़ता। अपने पर्स से रेल्वे का कार्ड निकाला और ऑटोमेटिक टिकिट वेन्डिंग मशीन पर जाकर अपना टिकिट लिया, चर्चगेट का। आमतौर पर लोकल के टिकिट के लिये लंबी लाईन होती है और कम से कम १५-२० मिनिट लगते ही हैं, अगर व्यक्ति किसी और शहर से आ रहा हो तो सोचेगा कि कम से कम २ घंटे लगेंगे परंतु यहाँ उतनी ही लंबी लाईन १५-२० मिनिट में निपट जाती है, रेल्वे टिकिट खिड़की पर बैठने वाले कर्मचारी अपने इस कार्य में सिद्धहस्त हैं। आजकल तो कंप्यूटर से टिकिट निकालते हैं, तो प्रिंटर को जितना समय लगता है प्रिंट निकालने में उतना ही, नहीं तो इसके पहले तो जब ये खिड़्कियाँ कम्प्यूटरीकृत नहीं हुई थीं, इससे भी जल्दी टिकिट मिलती थी, तब इतनी लाईन को मात्र १० मिनिट लगते थे, पहली बार कम्प्यूटरीकरण के कारण देरी देखी।
    प्लेटफ़ॉर्म नंबर २ और ४ पर चर्चगेट की और जाने वाली लोकल आती हैं, और जहाँ से आप टिकिट लेते हैं, वहीं पर टीवी स्क्रीन पर समय के साथ कौन से प्लेटफ़ार्म नंबर पर लोकल आने वाली है और फ़ास्ट है या स्लो, इतनी सब जानकारी वहाँ पर उपलब्ध होती है। इस जानकारी को देखकर आप अपना निर्णय एकदम ले सकते हैं।