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शेविंग के बिना बहुत कुछ खोना पड़ जाता है (Better to Shave)

    आमतौर पर शेविंग करना भी एक शगल होता है, कोई रोज शेविंग करता है और कोई एक दिन छोड़कर, कुछ लोग मंगलवार, गुरूवार और शनिवार को शेविंग नहीं करते हैं । शेविंग करने से चेहरा अच्छा लगने लगता है और अपना आत्मविश्वास भी चरम पर होता है। केवल शेविंग करने से ही कुछ नहीं होता उसके बाद और पहले भी बहुत सारी क्रियाएँ होती हैं, जो शेविंग के कार्यक्रम को सम्पूर्ण करती हैं।
    शेविंग न करने से कुछ बड़े बड़े नुक्सान भी हो जाते हैं, यहाँ एक किस्सा बयान करना जरूरी है, जो कि हमारे सामने हमारे ही कार्यालय में हमने घटित होते देखा हुआ है। एक प्रोग्रामर था जो कि जबरदस्त प्रोग्रामिंग करता था, केवल उनका रहन सहन और बात करने के सलीका उनकी लिये नकारात्मक था, पर कई बार बात करने के बाद हमने सोचा कि चलो इन्हें कुछ सिखाया जा सकता है और हमने ओर हमारे कुछ सहकर्मियों ने उन्हें कपड़े पहनने के सलीकों के बारे में समझाया और उन्होंने सीख भी लिया।
    पर केवल कपड़े पहनने से कुछ नहीं होता, समस्या जस की तस थी क्योंकि वे रोज शेविंग करके नहीं आते थे, कहते थे कि शेविंग अपने से रोज नहीं होती है, केवल आलस्य के प्रमाद में वे रोज बेतरतीब कार्यालय आते थे, उनका काम जबरदस्त था, जब वर्ष के आखिर में रेटिंग की बारी आई तो हर किसी को अच्छे मूल्यांक मिलने की उम्मीद होती है, उनकी टीम को भी उनके अच्छे मूल्यांक की उम्मीद थी, पर जब मूल्यांक उन्हें बताये गये तो वे सामान्य थे जबकि काम में उनकी दक्षता बहुत अच्छी थी, तो उनके प्रबंधन ने उन्हें बोला कि  जाओ पहले अपना चेहरा शीशे में देखकर आओ, तो उसे मजाक लगा। परंतु प्रबंधन ने उन्हें कहा कि यह मजाक नहीं है, तो वह प्रोग्रामर शीशे में चेहरा देखकर आया तो प्रबंधन ने उनसे पूछा कि आपने शीशे में क्या देखा, वह बोला कि कुछ खास नहीं, तब प्रबंधन ने कहा कि आपका सब कुछ ठीक है, एक बात को छोड़कर कि आप आकर्षक नहीं दिखते हैं, आप कभी कभी शेविंग करते हैं, जो कि कंपनी की कार्यशर्तों की प्रमुख शर्तों में एक है, इसलिये आपको साधारण मूल्यांक दिया गया है।
   उस प्रोग्रामर को बाद में शेविंग का महत्व पता लगा और उसे शेविंग न करने का बहुत बड़ा जुर्माना भी अपने कैरियर के एक वर्ष में अच्छे मूल्यांक न मिलने के रूप में सहना पड़ा।
This post is a part of #WillYouShave activity at BlogAdda in association with Gillette
उस प्रोग्रामर ने तत्काल ही फ्लिपकार्ट से शेविंग किट के रूप में कुछ चीजें मँगवा लीं।

बेटेलाल के साथ छुट्टियों का जादुई अहसास (Magic of my kid on vacations)

    बच्चों केसाथ छुट्टियों पर जाना ही बेहद सुकूनभरा अहसास होता है, और बच्चे छुट्टियों कोअपनी शैतानी और असीमित ऊर्जा से छुट्टियों को यादगार बना देते हैं। बच्चों को कितना भी बोलो पर वे कहीं पर भी और कभी भी चुपचाप नहीं बैठ सकते, पता नहीं उनकी इस असीमित ऊर्जा को स्रोत क्या होता है। बच्चे अपनी मस्ती से छुट्टियों में जादू भर देते हैं और ये यादें हमेशा अंतर्मन में ऐसे रहती हैं कि अभी ही उन्होंने मस्ती की हो। बच्चे वे सब कर लेते हैं, जो हम बड़े झिझक के कारण नहीं कर पाते हैं।
    मैंने कुछ दिनों के लिये छुट्टियों पर गोवा जाने का कार्यक्रम बनाया था, तो हमारे बेटेलाल ने पहले ही अपनी सूचि बनाना शुरू कर दी थी, कि गोवा से क्या क्या लाना है और अपने दोस्तों के साथ मिलकर नेट पर ढ़ूंढ़ते थे कि कहाँ कहाँ घूमना है, कहाँ खाना अच्छा है और कैसे घूमना है। पूरे प्लेन में केवल यही उत्साहीलाल लग रहे थे, कि जैसे गोवा केवल इनके घूमने के लिये ही बनाया हो, और बाकी सब तो झक मारने जा रहे हैं। बेटेलाल की छुट्टियों का उत्साह देखते ही बनता था। मुझसे कैमरे से फोटो खींचना, वीडियो बनाना सब सीख लिया था।
Calangute beach Goa
Evening Snaks at Marriott Goa
Fort Aguada in Goa

 

Goa Marriott Swimming pull
Harsh at Marriott Room Goa

 

on the wall of Marriott of Goa
    गोवा हम रिसॉर्ट में पहुँचे तो वहाँ के स्वागत को देखकर ही अचंभित थे, और जब हमें गोवा की वाईन के बारे में जानकारी दी जा रही थी तो एक बंदा ट्रे में बीयर लेकर आया तो सबसे पहले बीयर हाथ में लेकर चीयर्स करने लगे कि मैं भी बड़ों की कोल्डड्रिंक पियूंगा, तो बेयरे ने कहा कि आप के लिये दूसरी बोतल है आप यह वाली मत लें, तब जाकर हमारी साँसों में साँस आई।
    जब हमें कमरा दिखाया जा रहा था, तो कहने लगे कि हम यहीं रहते हैं, यहाँ कितना अच्छा लग रहा है, तरणताल में पड़े रहो और समुँदर का नजारा देखते रहो, और बेटेलाल कोई भी ट्यूब लेकर तरणताल में मौज करने के लिये उतर पड़ते, हम बाहर से ही देखते रहते तो एक दिन बोले अब अंदर आकर तो देखो कितना मजा आता है, हम तरणताल में उतरे तो वाकई अनुभव मजेदार था।
    अगले दिन समुद्रतट पर घूमने गये थे, तो बेटेलाल बहुत उत्साहित थे, हालांकि मुँबई में रहने के दौरान कई बार समुद्रतट के मजे ले चुके थे, पर हमें बोले कि गोवा की तो बात ही कुछ और है, और कपड़े उतार कर निकर में ही रेत और पानी के मध्य मस्ती के आलम को जबरदस्त माहौल बनाया और कुछ ही देर में अपने ही हमउम्र बच्चों के साथ वहाँ मस्ती का आनंद उठाने लगे। हमने कभी ऐसी मस्ती का माहौल नहीं देखा था, बेटेलाल हमसे उनके साथ आने की जिद करने लगे तो हम भी उनकी मस्ती में सारोबार हो, रेत और समुँदर के पानी में डूब लिये ।
    बेटेलाल को तो बस हर जगह कैसे मजे लें, इसमें विशेषज्ञता हासिल है। और उनकी इसी मस्ती से भारी पल भी मस्ती के रंग में रंग जाते हैं। यह यात्रा और अनुभव क्लबमहिन्द्रा के टैडी
ट्रैवलॉग
के लिये लिखा गया है।

दोस्तों के साथ दोस्तों में विशेषण के साथ बात किये बने आत्मीयता नहीं आती (Communication between friends is important for friendship)

    दोस्तों के साथ कॉलेज के दिनों के बिताये दिन कुछ अलग ही होते हैं, कोई किसी की बात का बुरा नहीं मानता और फिर बाद में भले ही कोई कितना बड़ा आदमी बन जाये पर कॉलेज के दिनों के साथियों से तो पुराने अंदाज और पुराने तरीके से ही बात की जाती है। कुछ लोग बदल जाते हैं और वे लोग दोस्त कहलाने के लायक नहीं होते, उनसे हाथभर की दूरी बनाये रखे जाना चाहिये कि जिससे वक्त पड़ने पर उनको गले लगाने की जगह, लप्पड़ या लात रसीद की जा सके। जिससे उनको उनका पूरा खानदान याद आ जाये ।
    जब भी बातें करते हैं तो माँ बहन और गद्दी के विशेषणों के बिना बात ही नहीं होती है, पर दोस्तों से बात करने का मजा भी तब ही है और जब तक विशेषण न हो, लगता ही नहीं कि पक्के दोस्त हैं, यकीन मानिये जितनी ज्यादी नंगाई दोस्तों के साथ हो, उतनी ही पक्की दोस्ती होती है। फुल ऑन देसी हिन्दी भासा में पता नहीं कहाँ कहाँ के किस्से कहानी कहते थे। और पता नहीं कभी मालवी भाषा तो कभी निमाड़ी भाषा और कभी भोपाली जुमलों का इस्तेमाल विशेषण के रूप में किया जाता, उन सबमें विशेष रस आता था, आज भी उन्हीं दोस्तों के साथ उन विशेषणों के द्वारा विशेष रस का आनंद लिया जाता है, बस अब अंतराल कम नहीं बहुत कम हो गया है।
    भोपाली विशेषणों में तो आनंद ही कुछ और है, कई बार तो प्योर भोपाली विशेषणों के लिये आज भी पुराने घनिष्ठ दोस्तों को फोन लगाकर पान खिलवाकर वे विशेषण सुनने के आनंद ही कुछ और होते हैं, एक हमारे मित्र थे वे तो साली, भाभी और पता नहीं कहाँ कहाँ के रिश्तों के साथ रस लेकर किस्से कहानियों को जोड़ देते थे। आज भी कई बार कहीं कोई अपना कॉलेजियाना यार मिल जाता है तो पता नहीं कहाँ से पुराने जुमले जुबान पर से फिसल पड़ते हैं, और पुराने दिनों की यादें वीडियो बनकर नंगी आँखों में उभर आती है, सारी की सारी वीडियो फिल्म बनकर सामने हमारी मुख गंगा से बह निकलती है। और वीडियो भी देसी जबान में बोला जाता है तो आज भी हम लोग हँस के चार हो जाते हैं।
    जीवन के इन चार दिनों में वैसे ही रिश्तों की बागडोर सँभालना मुश्किल होता है और अगर जीवन में कहीं न कहीं हलकट अंग्रेजी भाषा में कहें चीप न बनें तो आप जीवन के आनंद में सारोबार हो ही नहीं सकते । आत्मीयता भी तभी आती है, जब दोस्तों के बीच कोई दुराव छुपाव नहीं हो, बस दोस्ती के बीच में कुछ और न लाया जाये और अपने दोस्त के लिये हमेशा एक आवाज पर खड़ा हो जाया जाये तो इससे बेहतरीन बात और कोई हो ही नहीं सकती है।

अब आप नहीं बोलोगे तो मोंटू बोलेगा (Ab Montu Bolega)

सीन 1 – सब्जीमंडी में
    सुबह का सुहाना दिन शुरू ही हुआ था, और हम सब्जी लेने पहँच गये सब्जीमंडी, वहाँ जाकर सुबह सुबह हरी हरी ताजी सब्जियाँ देखकर मन प्रसन्न हो गया, सब्जी वाले बोरों में से सब्जियाँ निकाल रहे थे, और साथ ही उनकी फालतू की बची हुई डंडियाँ अपने ठेले के पास फेंकते जा रहे थे, हमने कहा भई ये कचरा ऐसे क्यों फेंक रहे हो, तो जवाब मिला कि और क्या करें, फिर ऐसे ही कचरे को कचरा साफ करने वाला ठेले में भरकर ले जायेगा, एकदम हममें मोंटू की आत्मा घुस गई, क्योंकि सामान्यत: हम कुछ भी कहने से बचते हैं, हमने कहा पता है तुम लोगों की इसी आदत के कारण लोग मॉल में सब्जी खरीदने जाते हैं, सब्जीमंडी जाना बंद कर दिया है, लोगों को सब्जीमंडी आना पसंद नहीं है क्योंकि तुम लोग ही इसे स्वच्छ नहीं रखते हो, क्या तुम लोग इस अतिरिक्त कचरे को ठीक ढ़ंग से ठिकाने नहीं लगा सकते हो, जिससे कि लोग वापिस से सब्जीमंडी में आना शुरू कर दें, क्यों नहीं आप लोग अपने पास एक बड़ा बंद ढक्कन का कचरे का डिब्बा नहीं रखते हैं, जिससे गंदगी तो कम से कम अपने पैर नहीं पसारेगी और लोगों को स्वच्छता मिलेगी, जिससे लोग सब्जीमंडी में आना शुरू हो जायेंगे, आपका भी धंधा अच्छा चलेगा और लोगों को भी फायदा होगा, उन्हें बात जँची और जब हम अगले सप्ताह सब्जीमंडी में गये तो कहीं भी गंदगी नहीं मिली, और देखा कि लोग भी अब धीरे धीरे सब्जीमंडी की ओर आने लगे हैं । तो देखा मोंटू के बोलने का कमाल !!
सीन – 2 – ट्रेन में
    काफी दिनों बाद में किसी लंबी यात्रा पर निकला। रात का समय था, लंबा सुहाना सफर शुरू ही हुआ था, कि रात्रीभोजन का समय हो चुका था, लोग अपने साथ लाया खाना या फिर पेंट्री से मँगाया गया खाना आनंदमय तरीके से खा रहे थे, मैंने सोचा कि यह संपूर्ण सामाजिक दृश्य है, किसी कूपे में कोई मिन्नत कर करके अपना खाना किसी और को भी खिला रहा है, तो कोई शांत बैठा खा रहा है और किसी कूपे में सब खाना खा रहे हैं, परंतु किसी को किसी से कोई वास्ता ही नहीं है, पर ट्रेन में बैठे हरेक व्यक्ति में एक समानता है, सब कचरा खिड़की से बाहर फेंककर हमारे भारत को अस्वच्छ कर रहे हैं, तभी मेरे अंदर मोंटू की आत्मा घुस आयी और लोगों से कहा कि आप खाना खाकर भारत को अस्वच्छ क्यों कर रहे हैं, तो लोगों का जवाब था कि उन्हें या तो पता ही नहीं है कि कचरे का करना क्या है और अगर पता भी है तो आलस के मारे कोई कचरे के डब्बे तक जाना नहीं चाहते, मैंने पूछा कि क्या आप घर पर भी जहाँ खा रहे होते हैं तो पास की खिड़की से बचा हुआ खाना ऐसे ही फेंक देते हैं, लोग वाकई समझ रहे थे और कचरे के डब्बे की ओर बड़ रहे थे।
    मोंटू स्ट्रेप्सिल का एक कैम्पेन है जिसके लिये यह पोस्ट लिखी गई है, मोंटू हमारे भीतर के अच्छे आदमी को बोलने को कहा गया है, कहीं भी कुछ गलत होते देखें तो एकदम से मोंटू #AbMontuBolega बन जायें, चुप न रहें। http://www.abmontubolega.com/ पर इस कैम्पेन के बारे में ज्यादा जानकारी ले सकते हैं, आप मोंटू के इस कैम्पेन में Strepsils के Facebook और Twitter पेज पर भी अधिक जानकारी ले सकते हैं।

स्पर्श की संवेदनशीलता (BringBackTheTouch)

    पहले हम लोग एक साथ बड़ा परिवार होता था, पर अब आजकल किसी न किसी कारण से परिवार छोटे होने शुरू हो गये हैं, पहले परिवार में माता पिता का भी एक अहम रोल होता था, परंतु आजकल हम लोग अलग छोटे परिवार होते हैं, और अपनी छोटी छोटी बातों पर ही झगड़ पड़ते हैं, पर पहले परिवार एक साथ रहने पर समझदारी से सारी बातों का निराकरण हो जाता था, छोटे झगड़े बड़ा रूप नहीं लेते थे।
    केशव और कला एक ऐसे ही जोड़े की कहानी है, जब तक वे संयुक्त परिवार के साथ रहे, तब तक जादुई तरीके से उनका जीवन सुखमय था, वे आपस में अंतर्मन तक जुड़े हुए थे। परंतु केशव को अच्छे कैरियर के लिये भारत से दूर विदेशी धरती पर जाना पड़ा, केशव और कला दोनों ही बहुत खुश थे, आखिरकार भारत से बाहर जाने का हर भारतीय दंपत्ति का सपना होता है, जो उनके लिये साकार हो गया था।
    यह पहली बार था जब वे संयुक्त परिवार से एकल परिवार में होकर रहने का अनुभव करने जा रहे थे, पहले पहल दोनों को बहुत मजा आया, परंतु जैसे जैसे दिन निकलते गये, केशव की व्यस्तता बड़ती गई, और कला घर में अकेले गुमसुम सी रहने लगी, केशव भले ही शाम को घर पर होता था, पर हमेशा ही काम में व्यस्त और यही आलम सुबह का भी था। ना ढंग से नाश्ता करना और ना ही भोजन, कला भी क्या बोलती, कई बार बोलने की कोशिश की परंतु, कुछ न कुछ कला को हमेशा बोलने से रोक लेता और कला रोज की भांति अपने में सिमटना शुरू हो जाती।
    हर चीज को किसी एक बिंदु तक ही सहन किया जा सकता है, वैसे ही कला का एकांत था, वह दिन कला और केशव के लिये मानो परीक्षा की घड़ी बनकर आया था, कला केशव के ऑफिस से आते ही उस पर टूट पड़ी, बिफर पड़ी, आखिर मेरे लिये समय कब है, क्या मैं यहाँ केवल और केवल कठपुतली बनकर रहने आई हूँ, मैं भी इंसान हूँ मुझे भी तवज्जो चाहिये, मुझे भी तुमसे बात करने के लिये तुम चाहिये, इस खुली हुई दुनिया में मैं अपने आप को कैद पाती हूँ और घुटन महसूस करती हूँ। केशव कला की बातों को बुत के माफिक खड़ा सुनता रहा, और उसे अपनी गलती का अहसास हुआ, आखिरकार कला का एक एक शब्द सच था, ना उसके पास बात करने का समय था और ना ही कला को कला की बातें महसूस करने के लिये वक्त था।


    कला केशव के सामने फफक फफक कर रो रही थी, केशव धीमे धीमे कला के नजदीक गया और कला को अपनी बाँहों में भरकर गालों से गालों को सटाकर कह रहा था, बस कला मुझे समझ आ गया है कि मैं कहाँ गलत हूँ । अब आज से मेरा समय तुम्हारा हुआ, केशव के स्पर्श से कला का गुस्सा और अकेलापन क्षण भर में काफूर हो गया, स्पर्श के स्पंदन को कला और केशव दोनों ही महसूस कर रहे थे, कला और केशव दोनों ने आगे से अपना समय आपस में बिताने का निश्चय किया।

    ठंड में स्पर्श को बेहतरीन बनाने के लिये पैराशूट का एडवांस बॉडी लोशन बटर स्मूथ वाला उपयोग कीजिये, अमेजन पर यह ऑनलाईन उपलब्ध है ।
    यह कहानी #BringBackTheTouch http://www.pblskin.com/ के लिये हमने लिखी है । स्पर्श को आपस में महसूस करिये, जीवन में नई ऊर्जा मिलेगी।
इस वीडियो में निम्रत और पराम्ब्रता को स्पर्श की संवेदनशीलता को दर्शाते हुए देखिये, आपको स्पर्श के महत्वत्ता पता चलेगी – Watch the video to witness Nimrat and Parambrata #BringBackTheTouch.

शौचालय नारी गरिमा के अनुरूप हों (Hygienic Toilets for Women and Family)

    भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र है, जहाँ पर हम अधिकतर हमारे वेद पुराणों में लिखी बातों का अध्ययन कर उन पर विश्वास कर बंद आँखों से अनुगमन करते हैं, पर जहाँ हमारी सामाजिक आलस्यपन की बात आती है वहाँ ये सब बातें गौण हो जाती हैं । हम वहाँ पर किसी न किसी कारण को प्रमुख बनाकर हालात से भागने की कोशिश करते हैं, जैसे कि भारतीय संस्कृति में कहा जाता है नारी सर्वत्र पूज्यते, परंतु घर और बाहर दोनों जगह हम जानते हैं कि नारी के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है।
    शौच और शौचालय भारत की प्राथमिक समस्याओं में से एक हैं, घर में चूल्हा करने के लिये रसोईघर जरूर होगा, किंतु अन्न पचाने के बाद अवशिष्टों को निकालने के लिये घर में शौचालय नहीं मिलते हैं, मूलत: यह समस्या गाँवों में बहुत ज्यादा है, परंतु शहरों में भी कम नहीं है। शौच करने के लिये नारी को एक सुरक्षित और साफ स्थान चाहिये होता है, जहाँ वह गरिमा के साथ शौच जा सके । आजकल समाचार पत्रों में इस तरह की कई खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि खुले में शौच करने कई युवती से अशोभनीय हरकत की गई, और यह समस्या खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार एवं झारखंड में बहुत ज्यादा है।
    जिस तरह पुरुष घर में नारी को पर्दे में रखना चाहता है, उसी तरह से क्यों नहीं नारी की गरिमा के अनुरूप घर में शौचालय बनवाने में कतराता है, शौचालय बनवाने के फायदे ज्यादा हैं और नुक्सान तो हालांकि है ही नहीं। शौचालय घर में होने से नारी गरिमा बची रहेगी, घर की शौचालय खुद ही साफ करने से तरह तरह के संक्रामक और डायरिया जैसे भयानक रोगों से बचाव होगा। इन रोगों के होने से भारत में दो लाख से भी ज्यादा 5 वर्ष से छोटे बच्चों का मौत हर वर्ष होती है, इन संक्रामक रोगों और बीमारियों पर भी पानी की तरह पैसा बहाना पड़ता है, तो बेहतर है कि खुले में शौच से होने वाले संक्रमण से बचाव के लिये वह पैसा शौचालय बनाने में खर्च किया जाये।
    शौचालय बनाते समय ध्यान रखें कि शौचालय पानी के स्त्रोत जैसे नदी, तालाब या कुएँ से कम से कम 20 मीटर दूर हों, जिससे शौच के अवशिष्ट जल से पीने के पानी दूषित न हो, जितनी बीमारियाँ खुले में शौच जाने पर होती हैं, उससे भी खतरनाक बीमारियाँ अवशिष्ट जल के पीने के पानी के दूषित होने पर होती हैं, शौचालय के अवशिष्ट को अगर सही तरह से उपयोग किया जाये तो इन अवशिष्टों से खाद बनाई जा सकती है, शौच के अवशिष्ट को खाद बनाने की प्रक्रिया में एक वर्ष तक का समय लगता है, जिससे हम इस प्राकृतिक खाद का उपयोग कृषि कार्यों में कर सकते हैं, यह खाद आजकल बाजार में आ रही रासायनिक खादों से बहुत अच्छी है।
    शौचालय बनवाना हमारे सामाजिक उन्नति और चेतना का भी परिचायक है, इससे न केवल नारी गरिमा को ठेस लगने से रोका जा सकेगा अपितु घर में शौचालय राष्ट्र के स्वच्छता के लिये भी एक बड़ा योगदान होगा।
    डोमेक्म ने महाराष्ट्र और उड़ीसा के गाँवों को खुले में शौच के लिये कदम उठाया है, और इसमें आप भी योगदान कर सकते हैं, आपके एक क्लिक से डोमेक्स 5 रू. का योगदान देगा, डोमेक्स की साईट पर जाकर “Contribute Tab” पर क्लिक करके ज्यादा से ज्यादा योगदान करवाने में मदद करें ।
    You can bring about the change in the lives of millions of kids, thereby showing your support for the Domex Initiative. All you need to do is “click” on the “Contribute Tab” on www.domex.in and Domex will contribute Rs.5 on your behalf to eradicate open defecation, thereby helping kids like Babli live a dignified life.

बोझ खींचने वाला मानव ज्यादा मूल्यवान लगता है

    पहाड़गंज या पुरानी दिल्ली में पार्किंग की जगह ढ़ूंढना बेहद दुष्कर कार्य की श्रेणी में आता है, यह दिल्ली का एक ऐसा क्षैत्र है जहाँ जाकर एक एक इंच की कीमत पता चलती है, यहाँ सड़क का वह इंच सार्वजनिक हो या निजी पर जगह कोई खाली नहीं है, खैर हमें अब इन सबसे जूझते हुए लगभग 3 महीने हो चुके हैं तो अब इतनी तकलीफ नहीं होती है, पार्किंग कैसे और कहाँ करनी है यह बखूबी आ गया है।
    सदर जाना हमेशा हमारे एजेन्डे में होता है । 3 टूटी, 6 टूटी, 12 टूटी और सदर बाजार पता नहीं क्यों इतना अच्छा लगता है, वहाँ की गलियों में भटकना अच्छा लगता है, जो भाषा, चेहरे और व्यवहार वहाँ देखने को मिलता है वह मन मोह लेने वाला होता है। यह अलग बात है कि आप पहाड़गंज से सदर बाजार तक
पैदल भी जा सकते हैं पर चरमराये हुए यातायात में यह भी संभव नहीं है, मजबूरन केवल एक ही रास्ता बचता है वह है या तो रिक्शा लो या फिर बैटरी वाला रिक्शा। जाते समय हमें कभी बैटरी वाला रिक्शा नहीं मिलता क्योंकि पुलिस उन्हें परेशान करती है।
    हमें मानवचलित रिक्शे पर बैठना होता है, मानवचलित रिक्शे पर बैठकर हर बार अपराधबोध होता है, हम आज भी इस युग में ढोने की प्रथा के साक्षी हैं और सबसे खराब बात कि उसका उपयोग कर रहे हैं, पर फिर रिक्शे को चलाने वाले मानव को देखकर यह शर्म कहीं चली जाती है, क्योंकि अगर हम अगर उसके रिक्शे में नहीं बैठेंगे तो वह ढोने वाला मानव क्या खायेगा और अपने परिवार का कैसे ख्याल रखेगा, पता नहीं जीवन की किन परिस्थितियों से लड़ाई लड़ रहा है, हम कहीं न कहीं उसके जीवन की लड़ाई में सहयोगी होना चाहते हैं, और इन मानवों में खास बात यह है कि ये ज्यादा फालतू के पैसे नहीं लेंगे, क्योंकि इन्हें पता है कि कोई भी उन्हें दुत्कार सकते हैं या फिर ज्यादा पैसे माँगने की उनकी हैसियत नहीं समझते हैं। लोग इनके बँधे बँधाये पैसों में भी मोलभाव करने लगते हैं तो ठीक नहीं लगता है, उस समय मुझे बैठने वाले व्यक्ति से ज्याद वह बोझ खींचने वाला मानव ज्यादा मूल्यवान लगता है।
    हमने एक आदत अपनी रखी हुई है कि जो भी बोझा खींचता है, या कोई ऐसा कार्य करते हैं जो कि पढ़े लिखे लोगों की मानसिकता में हेय की श्रेणी में आते हैं, हम वहाँ कभी मोलभाव नहीं करते हैं, क्योंकि इन लोगों में लूट की भावना न के बराबर होती है और छल कपट आजकल कहाँ नहीं है, तो इनके बीच भी कुछ लोग ऐसे हैं परंतु उनका प्रतिशत बहुत ही कम होती है, कम प्रतिशत वालों के छल कपट के कारण बड़े अनुपात के लोगों का साथ न देने को मन नहीं मानता है, और हम हमेशा ही उनकी मदद को तत्पर होते हैं, क्योंक बोलने में कहीं कोई झूठ नहीं, जो मन की बात होती है वे कह देते हैं, उन्हें इससे कोई मतलब नहीं कि सामने वाला कितना बड़ा आदमी है, वे तो सबको सर्वधर्म भाव से सेवा देते हैं, बस यही सोचकर मैं अपने आप में और साथवालों में कभी आपराधिक बोध नहीं आने देता हूँ।
    मन में यह भी आता है कि जैसे हम मानसिक बोझा ढ़ोते हैं वैसे ही ये लोग शारीरिक श्रम कर रहे हैं, तो जो जिस बात में सक्षम है वह वही कर पायेगा, जैसे हमें भी बोझा उठाते हुए बरसों हो गये हैं, वैसे ही उन्हें भी बरसों हो गये हैं। जैसे हमें बोझा उठाते हुए पता नहीं चलता है, थकान नहीं होती है, बस अपना काम करते जाते हैं, हाँ बस किसी दूसरे को हमें देखकर ऐसा लगता है कि यह कितना काम करता है, तो वह भी अपनी एक मानसिक अवस्था होती है। वैसे ही उन मानवचलित रिक्शों या समाज के सबसे अच्छे कार्य करने वालों को भी इसी चीज का अनुभव होता होगा।
    ब्लॉग पोस्ट में और भी बहुत कुछ लिखना चाहता था, परंतु एक मानवीय स्वभाव कहीं भीतर से उमड़कर भावों की प्रधानता में शब्दों के रूप में बह गया, बाजार के चरित्र और वहाँ के स्वभाव के बारे में जल्दी ही बात करेंगे ।

स्वच्छ भारत अभियान गाँधी जी के आदर्श या खिलाफ

    गाँधीजी का सपना था कि हमारा स्वच्छ भारत हो, पर शायद ऐसे नहीं जैसे कि आज सरकारी मशीनरी ने किया है। कि पहले राजनेताओं की सफाई करने के लिये कचरा फैलाया और बाद में उनसे झाड़ू लगवाई जैसे कि वाकई सभी जगह सफाई की गई है। वैसे प्रधानमंत्री जी तो केवल सांकेतिक रूप से ही अभियान की शुरुआत कर सकते थे परंतु आज तो सभी लोगों को सांकेतिक रूप से ही सफाई करते देखा।
    गाँधी जी जहाँ एक एक लाईन लिखने के लिये छोटी से छोटी जगह का उपयोग करते थे, कागज के छोटे से छोटे टुकड़े पर लिखकर बचत करते थे, पोस्टकार्ड की पूरी जगह का उपयोग करते थे, और आज गाँधी जी की आत्मा भी उनकी याद के पूरे पेज के विज्ञापनों को देखकर रो रही होगी, वे कागज बचाने पर जोर देते थे, और सरकारी मशीनरी कागज भी बर्बाद कर रही है और गाँधी जयंती के नाम पर करोड़ों रुपये भी फूँक रही है। गाँधी जी फालतू के रुपयों को खर्च करना भी बर्बादी समझते थे, मगर हमारे ये आधुनिक अनुयायी उनकी बातों को समझने की कोशिश ही नहीं करते हैं, केवल और केवल स्वच्छ भारत के लिये झाड़ूगिरी का सहारा लिया, और धरातल पर शायद हम सब जानते हैं कि कैसी स्वच्छता हुई है, वास्तविक चेहरा कुछ और ही है।
     सरकारी लोगों के लिये एक जैसी एक ही ब्रांड की इतनी सारी झाड़ुएँ खरीदी गईं, कल वे ही धूल में ही लिपटीं कहीं कोने में पड़ी सड़ रही होंगी, और अब अगली बार तब ही निकलेंगी जब फिर ऐसे ही किसी सफाई अभियान की शुरूआत होगी। थोड़े दिनों बाद स्वच्छता के नाम पर हुए खर्चों पर कोई बड़ा घोटाला निकल आये तो भी कोई बड़ी बात नहीं होगी। कल दिल्ली में केवल दिखावे के लिये जगह जगह स्वच्छता अभियान के बैनर और फूलों से भारत स्वरूपी गाँधीजी के बोर्ड लगे हुए थे, काश कि ये पैसा हमारे सफाईकर्मियों के लिये नये उपकरणों में खर्च किया जाता और भारत की जनता को एक अच्छा संदेश दिया जाता।
    काश कि साथ ही भारत की जनता को संदेश दिया जाता कि मन को भी स्वच्छ रखना जरूरी है, और उसी से सारे अपराधों की रोकथाम है। हमें सबसे पहले नजरों कि गंदगी की स्वच्छता पर जोर देना चाहिये, जिससे बालात्कार जैसे संगीन अपराधों पर अंकुश लगाया जा सके। केवल झाड़ूबाजी करने से कुछ नहीं होगा, जब तक हम अपनी गंदगी फैलाने की आदतें नहीं सुधारेंगे, तब तक ऐसी किसी झाड़ूबाजी का कोई असर नहीं होगा। हम पश्चिम की नकल करने में माहिर हैं, पर केवल उन्हीं चीजों की नकल करते हैं, जो हमें अच्छी लगती हैं, हम पश्चिम के अनुशासन की पता नहीं कब नकल करेंगे, कब उनके जैसे कर्मचारियों के लिये सारी सुविधाएँ देंगे।

स्वच्छ भारत तभी होगा जब हम खुद तन मन से स्वच्छ होंगे ।

इसे आशा नहीं निराशा होना चाहिए (Wrong Treatment of Typhoid)

    हमारे बेटेलाल बहुत दिनों से बीमार थे हमने कई डॉक्टरों को दिखाया जिसमे एक डॉक्टर के क्लीनिक का नाम आशा मल्टीस्पेशिलिटी था उन्होंने सीधे ही टाइफाइड बताकर स्लाईन चढ़ा दीं और हमें कहा कि आपके बेटेलाल को टाइफाइड है जब ब्लड कल्चर और बाकी के टेस्ट करवाए तो प्राथमिक रूप से पता चला की टाईफाई नेगेटिव है फिर हमने कहा गया कि आप मलेरिया की दवाई शुरु करिए हमने उन्हें मना कर दिया हमने कहा जब रिपोर्ट में कुछ आया ही नहीं है, मलेरिया की निगेटिव है तो फिर हम क्यों मलेरिया की दवाई शुरु करें हमने यह पहला डॉक्टर देखा जो कि खुद ही फोन करके हमें रिपोर्ट के बारे में बता रहा था
 
    पर डॉक्टर हमें कहते रहे की टाइफाइड के लक्षण हैं हमने सोचा डाक्टर अपने व्यवसाय में पूर्णत: निष्पक्ष होता है और भगवान समान होता है तो हमने कोई प्रश्न नहीं किया और उनका अंधानुरण किया लेकिन एक दिन शाम को चार बजे डॉक्टर का फोन आया कि ब्लड कल्चर की फाइनल रिपोर्ट आ गई है और उसमें टाइफाइड पॉजिटिव आया है तो आप एकदम अभी से बेटेलाल को अस्पताल में भर्ती करवा दीजिए क्यूंकि बहुत ही सीवियर इंफेक्शन आया है।
 
    हम घबराए हुए ऑफिस से घर आए और बीच में से रिपोर्ट कलेक्ट करते हुए आए उस रिपोर्ट को हमने आपने कुछ डॉक्टर मित्रों  को whatsapp किया और
उनसे पूछा कि क्या वाकई टाइफाइड पॉजिटिव है तो हमारे सारे मित्रोँ ने कहा ब्लड कल्चर की फाइनल रिपोर्ट में
 टाइफाइड का नामोनिशान नहीं है केवल वायरल इंफेक्शन हे तो कहीं किसी अस्पताल में भर्ती करवाने की जरुरत नहीं है बेटेलाल को जो खाने की इच्छा हो वो खिलाओ और उनका ध्यान रखो आशा मल्टीस्पेशलिटी क्लीनिक के बाद हमने एक तीसरे डॉक्टर को भी दिखाया जो कि हमें बहुत अच्छे लगे उन्होंने हमें कहा कि केवल एंटीबायोटिक्स चालू रखें बाकी सब ठीक है और इन रिपोर्ट को तो कचरे के डब्बे में डाल दें कुछ डॉक्टरों ने हमारे प्रोफेशन को बदनाम करके रखा हे उनमें से यह एक डॉक्टर है आगे से इस तरह के डॉक्टर से बच्चों को और अपने को दूर रखें
    अब हमारे बेटेलाल बिल्कुल ठीक हैं आज से फिर से  स्कूल जाना शुरु किया है अबहुत ही अच्छा महसूस कर रहे हैं उनके शरीर का तापमान भी साधारण है जो कि पिछले 12 दिन 103 रहा अब हमें भी थोड़ी राहत महसूस हुई है बस एक ही सवाल मन में है कि कोई भी प्रोफेशनल केवल पैसों के लिए क्या अपने ग्राहकों को धोखा दे सकता है और ऐसे लोगों की दुकान कितने दिन चला सकती है ।

भारत में गरीब और अमीरों के लिये कानून की सजा अलग अलग क्यों है ? (Why difference

    आज सुबह ही कहीं पढ़ रहा था कि न्यूजीलैंड के धुरंधर क्रिकेटर क्रिस कैनर्स जब से मैच फिक्सिंग के मामले में फँसे हैं तो उनकी आर्थिक हालात खराब है और उनका सामाजिक रूतबा भी अब सितारों वाला नहीं रहा, आजकल क्रिस ट्रक चलाकर और बस अड्डों को साफ करके अपनी आजीविका चला रहे हैं और वैसा ही मामला अगर भारत में देखा जाये तो दो सितारे खिलाड़ियों पर मैच फिक्सिंग के आरोप लगे थे, अब उनमें से एक सांसद हैं और दूसरे क्रिकेट मैचों की कमेंट्री करते हैं, उन्हें ना आर्थिक नुक्सान हुआ और न ही उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा मिट्टी में मिली, जबकि क्रिस और भारत के उन दो खिलाड़ियों का अपराध एक ही था ।
     अभी हाल ही में कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए सेना से कहा है कि आपने लगभग 50 अफसरों को आर्मी कोटे की पिस्तौल को बाजार में बेचने पर केवल रू. 500 का जुर्माना लगाया है, तो हम उस गरीब आदमी को क्या जबाब दें तो केवल रू. 10 चुराने के लिये जेल की हवा खाता है, और जुर्म साबित होने के बाद सजा भी भुगतता है, क्या सेना के अफसरों का जुर्म ज्यादा संगीन नहीं है, और सजा बहुत ही मामूली नहीं है ?
    दो बड़े जुर्म मुझे यह याद दिलाते हैं कि जुर्म राजनीति के प्रश्रय में ही होता है और दोनों का आपस में भाईचारा है, दोनों एक दुसरे के बिना नहीं रह सकते हैं, अगर इन दोनों में से कोई एक परेशान होता है तो वे जनता के सामने ही आपस में सहयोग करते हैं, और हमारे भारत की बेचारी जनता केवल इसलिये देखती रहती है क्योंकि उनके पास देखने के अलावा और कोई चारा नहीं है, कानून व्यवस्था को पालन कराने वाले लोग भी इन लोगों के साथ काम करते हुए देखे जा सकते हैं, चारों और कानून टूट रहे हैं, और इसमें सभी की मिलीभगत है ।
    पहला – उज्जैन के महाविद्यालय में म.प्र. पर शासन करने वाले राजनैतिक दल की छात्र इकाई के कुछ लोग एक प्रोफेसर की हत्या कर देते हैं, और बहुत हो हल्ला मचता है, वैसे तो प्रशासन कुछ करने में रूचि नहीं रख रहा था, पर जब राष्ट्रीय स्तर के मुख्य धारा के मीडिया हाऊसों ने चिल्लाना शुरू किया तो शासन ने कड़ाई बरतते हुए दिखावे का ढ़ोंग किया और सबको 2-3 वर्ष तक जेल के अंदर रखा और बाहर गवाहों ओर सबूतों को कमजोर किया जाता रहा और आखिरकार वे संदेह के लाभ में बरी हो गये, दीगर बात यह है कि इसी बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री इन सबसे मिलने जेल गये, आज इनमें से कई सरकारी सहायता प्राप्त महकमों मे उच्च पदों पर आसीन हैं, जो कि उनकी छबि के अनुरूप तो कतई नहीं है।
     दूसरा – कुछ लड़के मिलकर एक पहलवान टाईप दादा की हत्या कर देते हैं, और सब फरार हो जाते हैं, सारे लड़के अभिजात्य वर्ग के परिवारों से हैं और उन सबके परिवार में उनके पिता एक राजनैतिक दल से सारोकार रखते हैं, पास के एक गाँव से दो बस भरकर इन लड़कों को और इनको परिवार को सबक सिखाने के लिये आते हैं और ये गाँव वाले इतने सभ्य कि पड़ौसियों को कुछ भी नहीं कहा, बस उन हत्यारे लड़कों को पीटने और मारने के उद्देश्य से आये थे, और उनके घर में घुसकर घर का सामान बाहर फेंक देते हैं, और पड़ोसियों के पूछने पर कहते हैं कि अगर हमने ये आज नहीं किया तो फिर इनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा, क्योंकि शासन, पुलिस सब इनकी जेब में है, ये लड़के ही आगे चलकर हमारे नेता बन जायेंगे, तो उन सारे लड़कों मे जनता के डर के मारे खुद को पुलिस के हवाले कर दिया, और वे सब 1-2 साल में बरी हो गये, सारे लड़के आज राजनेता हैं, कोई भी प्रशासन संबंधित कार्य करवाना हो, ये लोग चुटकी में काम करवाने वाले सफेदपोश दलाल हो गये हैं।
    यहाँ बस हारा तो केवल कानून, मैं जानता हूँ कि ऐसे कई किस्से हैं और मैं लिखना भी चाहता हूँ, पर लिखने का भी कोई फायदा नहीं, क्योंकि कानून अपने दायरे में रहकर काम करता है और ये लोग बिना दायरे के । कब ये कानून अमीरों और गरीबों के लिये एक होगा, इसके लिये राजनैतिक इच्छशक्ति की दरकार है, पर ये राजनेता ऐसा होने नहीं देंगे क्योंकि इनकी असली ताकत तो कानून तोड़ना और तोड़ने वालों से ही है।