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शिक्षा काल की दोस्ती भविष्य में..

    गुरू द्रोण और द्रुपद दोनों ने एक साथ महर्षि अग्निवेश के आश्रम में धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की, तब दोनों अच्छे मित्र हुए..

    उस समय द्रुपद ने द्रोण से कहा था .. “प्रिय द्रोण, तुम मेरे अत्यंत प्रिय मित्र हो, जब मैं आने पिता की राजगद्दी पर बैठूंगा, उस समय मेरे राज्य का तुम भी उपभोग करना । मेरे भोग, वैभव और सुख सब पर तुम्हारा अधिकार होगा।”

    धनहीन अवस्था में द्रोण जब द्रुपद के पास मदद की आस लेकर गये तब द्रुपद राजगद्दी पर आसीन हो चुके थे, तब द्रुपद ने द्रोण से घृणापूर्वक कहा “आश्रम का जीवन समाप्त हो चुका। गुरू आश्रम में बहुत विद्यार्थी साथ रहते, खेलते और शिक्षा प्राप्त करते हैं। मगर दरिद्र धनवान का, मूर्ख विद्वान का और कायर शूरवीर का मित्र नहीं हो सकता ।”

    उपरोक्त कथा से दोस्ती के एक और रूप का पता चलता है । जिसमें दोस्ती नाम मात्र की नहीं है, दोस्त जो राजा बन चुका है उसका घमंड दिखाई पड़ता है। और इस तरह की दोस्ती आजकल बहुतायत में देखी जा सकती है, खासकर पढ़े लिये नौजवान पीढ़ी में ।

    दोस्ती के ऐसे रूप युग युग से देखने में आ रहे हैं, आज भी देखने में आते हैं, दोस्ती जो शिक्षा के काल में पल्लवित होती है वह धीरे धीरे भौतिक वस्तुओं और पद की भेंट चढ़ जाती है। यहाँ दोस्ती केवल तभी रह सकती है जबकि मित्रों के बीच आपस में बहुत प्रेम हो, भौतिक वस्तुओं और पद की लालसा ना हो। आपस का फ़ायदा एक अलग बात है, परामर्श भी एक अलग बात है, परंतु केवल फ़ायदे के लिये मित्रता बनाये रखना शायद बहुत दुष्कर होता है।

    हमारे आज भी ऐसे मित्र हैं जो बचपन से हैं और इन सब चीजों से दूर हैं, इसे खुशनसीबी ही कही जायेगी। आज भी उनके बीच जाकर मन प्रसन्न हो जाता है। दोस्ती निभाना बहुत कठिन और तोड़ना बहुत आसान होता है।

    दोस्तों में आपस में जो तालमेल होता है वह शायद ही कहीं देखने को मिलता है, दोस्तों को हमारी अधिकतर गुप्त बातें पता होती हैं, हमारे सुख दुख में सबसे पहले दोस्त ही खड़े होते हैं, रिश्तेदार बाद में आते हैं।

    जो द्रुपद जैसे दोस्त होते हैं ऐसे लोगों का वाकई में दोस्त ना होना अच्छा है। परंतु कुछ बहुत अच्छे दोस्ती के उदाहरण भी हैं जैसे कृष्ण और सुदामा । कृष्ण जी ने खुद अपने हाथों से सुदामा जी के पैर धोये थे और इतना सम्मान दिया कि सुदामा व्याकुल हो उठे थे।

और उसका घर का सपना, सपना ही रह गया

     एक किस्सा बताते हैं, एक बार नौकरीशुदा आदमी ने सोचा चलो अपने गृहनगर में नये फ़्लैट बन रहे हैं, और अपनी पहुँच में हैं तो क्यों ना उसमें एक फ़्लैट ले लिया जाये, पता लगाया गया बंदा भारत के दूसरे कोने में रहता था, उसने अपने पापा को कहा कि आप इसके बारे में पता कीजिये, पापा ने कहा कि उसका एक दलाल है जो कि अपने वो किराने वाली दुकान वाले का भाई ही है, और वह कह रहा है कि १० लाख में मिल जायेगा, और पूरे १० लाख पर लोन भी हो जायेगा और उसने १ बीएचके ५०,००० रूपये देकर पापा के मार्फ़त फ़्लैट बुक करवा लिया ।

सपनोम का घर

     जब वह बंदा एक महीने बाद अपने गृहनगर गया तो जब उसने दलाल और बिल्डर से बात की तो पता चला कि लोन तो केवल ७.६५ लाख पर ही होगा, बाकी तो ब्लैक में देना है, मतलब कि लगभग २.३५ लाख जेब से लगाने होंगे, बंदे ने कहा कि मेरे पास तो केवल १० लाख का २०% याने कि २ लाख रूपये हैं, और एक पैसा ऊपर देने के लिये नहीं है, और आपने बुक करवाते समय पूरी जानकारी नहीं दी। तो बिल्डर और दलाल दोनों ने कहा कि आप चिंता मत करो आपको २.३५ लाख का पर्सनल लोन दिलवा देंगे, बंदे ने कहा भई गृहऋण का ब्याज होता है १० % और पर्सनल लोन का ब्याज होता है १५-१६%, ये ऊपर का ५-६% कौन भुगतने वाला है, मैं तो यह ऊपर का ब्याज नहीं दूँगा, तो दलाल और बिल्डर दोनों भड़क गये कि एक तो हम आपको ऋण दिलवा रहे हैं और आप नाटक कर रहे हैं ।

सपनो का घरहोमलोन

     उस बंदे की अपने गृहनगर में बहुत सी बैंकों में अच्छी पहचान भी थी और बैंक वालों से दोस्ती भी थी, जब वह अपने बैंक के मैनेजर दोस्तों से मिला तो पता चला कि अभी तक इस बिल्डर को किसी भी राष्ट्रीयकृत और निजी बैंक ने एनओसी नहीं दी है, और उन्होंने बताया कि बिल्डर ऐसे ही प्रोजेक्ट के नाम पर पैसा बाजार से उठाते हैं और बैंक से ऋण दिलवा कर लोगों को फ़ँसवा देते हैं, फ़िर २-३ फ़्लोर बनाकर बिल्डिंग बनाना बंद कर देते हैं और अधिकतर ऋण की किश्तें जो कि बैंक से उन्हें लेनी होती हैं, वे इस प्रकार रखते हैं कि २-३ फ़्लोर तक ही उनके पास सारी रकम आ जाये। एक बार सारी रकम आ जाती है तो ये लोग भाग लेते हैं और जनता को अच्छा खासा चूना लगा देते हैं। इस तरह के बहुत सारे केस हो चुके हैं, और जनता को पता ही नहीं चल पाता है।

     मैनेजर मित्र की बातें अक्षरश: सत्य थीं, क्योंकि बैंक से ऋण लेने का फ़्लो बिल्डर ने दिया था वह बिल्कुल वैसा ही था केवल २ फ़्लोर बनने के पहले ही वह सारा पैसा बैंक से लेता, और भाग लेता ।

     अब उस बंदे ने निश्चय किया कि वह इस फ़्लैट को नहीं लेगा और अपने पैसे उन्हें वापिस करने के लिये कहेगा जो कि उसने बुकिंग के नाम पर दिये थे, परंतु उन्होंने पैसे देने से मना कर दिया और कहा कि आप अपनी तरफ़ से कैंसिल कर रहे हैं, इसलिये एक भी पैसा वापिस नहीं मिला । हालांकि उस बंदे के भी अच्छे कॉन्टेक्ट्स थे परंतु उसने सोचा कि यह केस लीगल तरीके से ही लड़ा जाये, क्योंकि उसके अभिभावक उसके गृहनगर में अकेले रहते थे।

     तब उसने अपने कुछ ब्लॉगर मित्रों की सहायता से मार्गदर्शन प्राप्त किया और बिल्डर और दलाल की शिकायत कलेक्टर और एस.पी. ऑफ़िस में की, जब वह बंदा कलेक्टर से मिलने गया तो कलेक्टर ने कहा कि अगर हमें भी आज फ़्लैट खरीदना है तो ब्लैक में पैसा देना ही होगा, बंदे को कलेक्टर की बात सुनकर बहुत आघात लगा। फ़िर भी वह कलेक्टर और एसपी ऑफ़िस में अपने आवेदन पर आवक लेकर आ गया और फ़िर वह तो वापिस अपनी नौकरी के लिये चला गया, उसने अपने पापा को फ़िर एक सप्ताह बाद कहा कि फ़िर से उसी आवेदन की फ़ोटोकॉपी करवाकर उस पर फ़िर से आवक ले आये और उस पर लिख दे Reminder 1 फ़िर Reminder 2 भी भिजवाया और एक सप्ताह बाद ही तहसीलदार की कोर्ट से नोटिस आ गया।

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     तहसीलदार की कोर्ट में वादी तरफ़ से कोई उपस्थित नहीं हुआ परंतु दलाल खुद से आगे होकर आया और कहा कोर्ट के बाहर ही सैटलमेंट कर लेते हैं, और आधे रूपये में कोर्ट के बाहर सैटलमेंट कर लिया, वह भी इसलिये कि अभिभावकों को परेशानी होती। नहीं तो उसे उसके पूरे पैसे वापिस जरूर मिल जाते, परंतु कुछ चीजें होती हैं जो पैसे से बढ़ कर होती हैं।

     उस बंदे ने २५ हजार केवल यह समझकर सीखने के लिये खर्च कर दिये कि फ़्लैट लेने के पहले क्या चीजें जरूरी हैं और जरूरी चीजें पहले ही पता कर ली जायें, जब पैसा एक नंबर में कमाया जाता है तो फ़िर २ नंबर में क्यों दिया जाये। खैर उसका घर का सपना, सपना ही रह गया ।

घर बैठे वेद की शिक्षा

     “धर्मो रक्षति रक्षत:” अर्थात धर्म की रक्षा से ही सबकी रक्षा होती है, अगर हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म हमारी रक्षा करेगा ।

     वेदों को बहुत करीब से जानने की बहुत ही तीक्ष्ण इच्छा थी, और वेदों को पढ़ना कहाँ से शुरू किया जाये बहुत देखा, बहुत सोचा, फ़िर कल्याण के दो माह पहले के अंक में वेदों के ऊपर बहुत ही सार रूप मेंimage एक अच्छा लेख पढ़ा। तो हमने ऋगवेद पढ़ना शुरू किया, परंतु ऋचाओं की संस्कृत इतनी कठिन है, या यूँ कह सकते हैं कि इस मूढ़ को समझ नहीं आईं, तो सोचा पहले संस्कृत व्याकरण ठीक की जाये और उसके बाद वेदों का पाठ किया जाये, क्योंकि अनुवाद में असली अर्थ समझ नहीं आता है, अनुवाद तो किसी व्यक्ति द्वारा किया गया उस ऋचा का अनुमोदन है, जो समझने में भी कठिन होता है। तो अब पाणिनी व्याकरण पढ़ने की शुरूआत की, हमारे पास एक किताब रखी थी “कारक प्रकरणम”, अभी व्याकरण ठीक करने की शुरूआत यहीं से की है, हालांकि यह ठीक नहीं है, हमारी एक पुरानी किताब शायद उज्जैन में रखी है, तो उसका अभाव खल रहा है। अब साथ में “चरक संहिता” भी पढ़नी शुरू की, “चरक-संहिता” की संस्कृत भी कठिन है परंतु फ़िर भी बहुत कुछ समझ में आ रहा है, हिन्दी अनुवाद से काफ़ी मदद मिल रही है।

image    इसी बीच वेदों के लिये उपयुक्त स्थान ढूँढ़ते रहे और अभी भी ढूँढ़ रहे हैं, क्योंकि वेदों में लिखा है कि वेद केवल गुरू की वाणी से ही समझे जा सकते हैं, पढ़कर नहीं समझे जा सकते हैं। फ़िर हमें ध्यान आया कि हम यत्र तत्र सर्वत्र ढूँढ़ मचा रहे हैं, और हमने उज्जैन को तो भुला ही दिया, क्योंकि वहाँ संस्कृत के बड़े बड़े प्रतिष्ठान उपस्थित हैं, जो भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाने का दुष्कर कार्य कर रहे हैं ।

    हमें इसी बीच एक अच्छा पाठ्यक्रम मिल गया, वह है “घर बैठे वेद की शिक्षा”, यह पाठ्यक्रम महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन द्वारा संचालित है। इस पाठ्यक्रम में पत्राचार से लगभग ५० पाठ भेजे जायेंगे, और हर पाठ के बाद एक प्रश्नोत्तरी संलग्न है, इस पाठ्यक्रम की अवधि २ वर्ष की है, जिसमें हर छ: माह में १२ पाठ और अंतिम छ: माह में १४ पाठ भेजे जायेंगे, शिक्षा संस्था वेदो के प्रचार के लिये यह पाठ्यक्रम चला रहा है, इसलिये इसका शुल्क भी नाममात्र २५० रूपये प्रतिवर्ष ही रखा गया है। हर छ: माह में भेजे गये पाठों की प्रश्नोत्तरी भरकर वापिस महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेद विद्या प्रतिष्ठान, उज्जैन को अपने खर्चे से डाक द्वारा भेजनी होगी। यह पाठ्यक्रम हिन्दी एवं अग्रेजी दोनों भाषाओं में उपलब्ध है।

    पाठ्यक्रम में वेदों के बारे में जानकारी, संहिता उद्धरण, ब्राह्मणा, अरण्यका और उपनिषदों को हिन्दी एवं अंग्रेजी में विस्तार से दिया जायेगा ।

    ज्यादा जानकारी के लिये आप यहाँ लिख सकते हैं –

माननीय सचिव महोदय

महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान,

प्राधिकरण भवन, द्वितीय माला, भरतपुरी, उज्जैन – ४५६०१० (म.प्र.)

ईमेल – [email protected]

    हमने ईमेल किया था, और प्रतिष्ठान की तरफ़ से तत्परता से ईमेल आ गया था। तो क्या विचार है अब घर बैठे वेदों को समझ लिया जाये।

सारे वेद ऑनलाईन आप यहाँ पढ़ सकते हैं http://www.sanskritweb.net/

फ़ोटो – महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान की वेबसाईट से लिये गये हैं

मुँबई से बैंगलोर तक भाषा का सफ़र एवं अनुभव..

    करीबन ढ़ाई वर्ष पहल मुँबई से बैंगलोर आये थे तो हम सभी को भाषा की समस्या का सामना करना पड़ा, हालांकि यहाँ अधिकतर लोग हिन्दी समझ भी लेते हैं और बोल भी लेते हैं, परंतु कुछ लोग ऐसे हैं जो हिन्दी समझते हुए जानते हुए भी हिन्दी में संवाद स्थापित नहीं करते हैं, वे लोग हमेशा कन्नड़ का ही उपयोग करते हैं, कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हिन्दीभाषी जरूर हैं परंतु दिन रात इंपोर्टेड अंग्रेजी भाषा का उपयोग करते हैं, इसी में संवाद करते हैं।

    जब मुँबई गया था तब लगता था कि सारे लोग अंग्रेजी ही बोलते हैं, परंतु बैंगलोर में आकर अपना भ्रम टूट गया । कम से कम मुँबई में हिन्दी भाषा अच्छे से सुनने को मिल जाती थी, यहाँ भी मिलती है परंतु बहुत ही कम लोग उपयोग करते हैं। यहाँ के स्थानीय लोग हिन्दी भाषा का उपयोग मजबूरी में करते हैं क्योंकि आज बैंगलोर में लगभग ८०% लोग जो कि सॉफ़्टवेयर कंपनियों में हैं वे हिन्दी भाषी हैं, अगर स्थानीय लोग हिन्दी नहीं समझेंगे तो उनकी रोजी रोटी की समस्या हो जायेगी।

    अधिकतर दुकानदार हिन्दी अच्छी समझ लेते हैं और बोल भी लेते हैं, जब वे अपनी टूटी फ़ूटी हिन्दी में बोलते हैं तो अच्छा लगता है, रोष नहीं होता कि हिन्दी गलत बोल रहे हैं, खुशी होती है कि सीख रहे हैं, और सीखना हमेशा गलत से ही प्रारंभ होता है। हमने भी कन्नड़ के थोड़े बहुत संवाद सीख लिये हैं, जिससे थोड़ा आराम हो गया है। हम सुबह सुबह जब दूध लेने जाते हैं तो अगर बड़ा नोट देते हैं और कहते हैं “भैया, छुट्टा देना” बाद में अहसास होता है कि पता नहीं यह समझेगा भी कि नहीं, परंतु समझ लेता है तो अब आदत ही बन गई है।

    जब बैंगलोर आये थे, तो हमारे बेटेलाल बहुत ही हतप्रभ थे और कहते थे कि “डैडी ये कैसे इतनी प्रवाह में कन्नड़ बोल लेते हैं”, हमने कहा “जैसे आप हिन्दी प्रवाह में बोल लेते हैं, समझ लेते हैं, वैसे ही इनकी कन्नड़ मातॄभाषा है, ये बचपन से कन्नड़ के बीच ही पले हैं”, बेटेलाल की समझ में आ गया। पर बेटेलाल ने कभी कन्नड़ सीखने की कोशिश नहीं की। पहले एक महीना चुपचाप निकाला, हिन्दी में बात करने की कोशिश की परंतु नाकाम, छोटे बच्चे अधिकतर जो स्थानीय थे, वे या तो कन्नड़ समझते थे या फ़िर अंग्रेजी समझते थे। बेटेलाल को अंग्रेजी से इतना प्रेम था नहीं, क्योंकि मुँबई में हिन्दी से अच्छे से काम चल जाता था, और यहाँ बैंगलोर में आकर फ़ँस गये, कई बार बोले “डैडी चलो वापिस मुँबई चलते हैं, यहाँ बैंगलोर में अच्छा नहीं लग रहा ।” हमने कहा देखो बिना कोशिश के कुछ नहीं होगा। बस तो अगले दिन से ही फ़र्राटेदार अंग्रेजी शुरू हो गई।

    अब बेटेलाल का काम तो निकल पड़ा, अब समस्या आई तब जब घर के आसपास कुछ दोस्त बनें, वो भी स्थानीय पहले वे हिन्दी में बात करने से इंकार करते थे, परंतु उनके अभिभावकों ने समझाया कि इनकी हिन्दी अच्छी है, हिन्दी में बात करो और हिन्दी सीखो। पर हमारे बेटेलाल अपने दोस्तों से हिन्दी में संवाद करने को तैयार ही नहीं होते हैं, वे उनसे अंग्रेजी में ही बात करते हैं। खैर इसका हल हमने निकाला कि हम हिन्दी में बात करेंगे।

    कभी कभार अगर गलती से अंग्रेजी में घर पर बेटेलाल को कुछ बोल भी दिया तो सीधे बोलते हैं “डैडी, मैं बाहर तो अंग्रेजी ही बोलता हूँ, कम से कम घर में तो हिन्दी में बात करो, नहीं तो मैं हिन्दी भूल जाऊँगा तो क्या आपको अच्छा लगेगा ?”

    खैर अब बैंगलोर में मेरे लिये वह नयापन नहीं रह गया, अब यहाँ के अभ्यस्त हो गये हैं, जहाँ भी काम होते हैं अब पता चल गया है कि हिन्दी अधिकतर उपयोग होती है, और अगर हिन्दी ना समझ में आये तो अंग्रेजी से तो काम हो ही जायेगा ।

गीता के श्लोक की बातें सरल हैं, परंतु व्यवहार में बहुत कठिन

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥ २७ ॥
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः ।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥ २८ ॥

अर्थात समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौंहों के मध्य में केन्द्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है। जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है।

    आज यह श्लोक सुन रहा था और इस पर ध्यान कर रहा था, मनन करने के दौरान यही समझ में आया, हैं तो ये दो ही श्लोक परंतु जीवन का सार हैं, व्यक्ति अपने जीवन में पता नहीं किस किस के पीछे भागता रहता है, मोह में गृसित रहता है, किसी को डराता है, किसी से डरता है जबकि उसे पता नहीं है कि सभी प्राणी मात्र कृष्ण की इच्छा से इस लोक में भ्रमण कर रहे हैं।

    यहाँ इस श्लोक की हरेक चीज इतनी कठिन है, पहले कहा गया इन्द्रियविषयों को बाहर करें, और आज की दुनिया में सारे कार्य इन्द्रियविषयों में लिप्त हो कर ही होते हैं, हर पल इन्द्रियसुख में ही बीत रहा है, यहाँ इन्द्रियों पर विजय की बात कही गई है, इन्द्रियों के लिये जो सुख ढूँढ रहे हैं, वह निकाल कर फ़ेंक दें, त्यक्त दें, त्याग दें।

    दूसरा कहा गया है भौंहों के मध्य में केन्द्रित करके, आजकल आँखें स्थिर करना बहुत कठिन कार्य हो गया है, केन्द्रित कोई नहीं हो पाता, हमेशा आँखें सुख ही तलाशती रहती हैं, यूँ कह लें कि आँखों को लत लग गई है तो यह भी गलत नहीं होगा, संकल्प नहीं रह गया है, हम आजकल अपने आप से ही सबसे ज्यादा झूठ बोलते हैं ।

    तीसरी बात कही गई है, प्राण और अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर – आजकल मानव अगर दो मिनिट भी वायु को नथुनों के भीतर रोक ले तो उसकी जान पर बन आती है, स्वच्छ वायु के लिये तो तरस गये हैं, प्रदूषण अंदर लेने की इतनी बुरी आदत हो गई है, जो कि हम खुद नहीं लेते, यह न चाहते हुए भी हमारे अंदर वायु के रूप में धकेला जाता है।

    चौथी बात कही गई है मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके – मन तो हमेशा अपने सात घोड़ों के साथ पता नहीं कहाँ कहाँ घूमता रहता है, इन्द्रियाँ भी मन के इन घोड़ों के साथ साथ व्यक्त होती रहती हैं और बुद्धि का विनाश हो गया है, हमेशा भौतिक जगत के बारे में ही सोचते रहते हैं, मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करना अब कोई साधारण बात नहीं रही, इसीलिये पता नहीं कितनी धर्म की दुकानें, आश्रम यह सब सिखा रहे हैं, यह खुद से करने वाला अभ्यास है, जब श्रीकृष्ण भगवान खुद ही बता रहे हैं तो किसी और धर्म की दुकान में जाने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है, गीता जी के अध्याय पाँच यही तो सिखाया गया है, हाँ कठिन अवश्य है, पर अगर मन में श्रद्धा हो और अटल विश्वास हो तो यह कठिन भी नहीं है।

    यहाँ कहा गया है कि मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है, जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है। हमारा तो मन बुद्धि यह सोचकर ही अकुला रही है कि अगर मानव इस अवस्था में पहुँच जाये तो उसके आनंद की कल्पना कम से कम इस लोक का मनुष्य तो नहीं कर सकता, हाँ हमारे यहाँ सब उसे शायद पागल जरूर कहेंगे।

चाँद पूर्ण रूप में

चाँद जब रोटी सा गोल होता है,

पूर्ण श्वेत, अपने पूर्ण रूप में,

उसकी आभा और निखर आती है,

मिलते तो रोज हैं छत पर,

पर देखना तुम्हें केवल इसी दिन होता है,

काश की चाँद हर हफ़्ते पूर्ण हो,

महीने में एक बार तुम्हें देखना,

फ़िर दो पखवाड़े उसी सुरमई तस्वीर को,

सीने से चिपकाकर सोता हूँ,

तुम्हारी यादों में रहता हूँ,

तुम्हारे सपने बुनता हूँ,

तुमसे मिलने के लिये बेताब रहता हूँ,

कभी ऐसा लगता है चाँद,

तुम जल्दी आ जाते हो,

पर एक बात कहूँ,

अब मैं बहुत बैचेनी से इंतजार करता हूँ,

तुम मेरी जिंदगी का हिस्सा जो बन चुके हो..

रिश्तों की गर्माहट

    जब से मानव सभ्यता इस दुनिया में आई है शायद तभी से रिश्ते भी अस्तित्व में हैं, रिश्ते मतलब कि एक दूसरे से किसी भी प्रकार से जुड़ना, रिश्ता कैसा भी हो, रिश्ते में गर्माहट बहुत जरूरी है। रिश्ते भी कई प्रकार के हैं, खून के रिश्ते याने कि रिश्तेदार, दोस्त जो साथ पढ़ते हैं या काम करते हैं, मानसिक दोस्त जो फ़ेसबुक या ब्लॉग के कारण दोस्त बने।

    जब से घर के बाहर हूँ तो रिश्तेदारी और दोस्ती में जाना वाकई बहुत कम होता है, पर जब भी जाता हूँ तो मिलने में कसर भी नहीं छोड़ते, यथासंभव सभी से मिलकर आते हैं, कभी भी ऐसा नहीं लगता कि हम वर्षों के बाद मिल रहे हैं, बातें में भी कभी इन चीजों का जिक्र नहीं होता।

     हाँ पर जैसे जैसे उम्र के साथ परिपक्व हो रहे हैं, वह परिपक्वता वहाँ नहीं दिखती, क्योंकि हमारी उम्र तो वहाँ ठहरी हुई है, इतनी आत्मीयता से मिलना और बातचीत होना, आज की भागती दौड़ती दुनिया में दिल को बहुत सुकून देता है।

    मानसिक दोस्तों से कभी भी चैटिंग करें या फ़ोन पर बात करें, उनसे बात करके कभी ऐसा लगता ही नहीं है कि हम इनसे कभी मिले नहीं हैं, हमें ऐसा लगता है कि संबंध कुछ ज्यादा ही प्रगाढ़ है, हम उनसे इतने सहजता से बतियाते हैं जैसे हम पता नहीं कितने दिन साथ गुजारे हों।

    इस बार जो कुछ साक्षात अनुभव हुआ वह यह था कि मैं अपनी बहन से लगभग ८ वर्ष बाद मिल पाया और पहले हमारी बातें किसी और विषय पर केंद्रित होती थी, और अब बातों का विषय स्वाभाविक रूप से बदल गया था, हम दोनों को ही आश्चर्य हो रहा था, कि वक्त के साथ साथ हमारी सोच भी बदलती जाती है, परंतु रिश्तों की गर्माहट बरकरार है, इतन वर्षों बाद मिलकर हम अंतरतम तक भीग लिये।

बचपन की परिपक्वता..

    परिवार गर्मी की छुट्टियों में घर गया हुआ है, यही दिन होते हैं जब हम अकेले होते हैं और बेटेलाल अपने दादा दादी और नाना नानी का भरपूर स्नेह पाते हैं। बेटेलाल सुबह से रात तक अपने हमउम्र दोस्तों के साथ खेलने में व्यस्त होते हैं, वहाँ उनकी भरपूर मंडली है, और यहाँ बैंगलोर में गिनेचुने एक या दो और वे भी किसी ना किसी गतिविधि मॆं व्यस्त होते हैं । अभी बेटेलाल का क्रिकेट प्रेम सर चढ़कर बोल रहा है, शाम पाँच बजे से जो गली क्रिकेट शुरू होता है तो अँधेरा होने तक चलता रहता है। बचपन में तो हम इतना खेलने के बाद खाना खाने के बाद स्ट्रीट लाईट की रोशनी में खेलते थे। पर भला हो नगर निगम का कि उसने हमारे घर के आसपास बड़ी स्ट्रीट लाईट नहीं लगाई है।

Harsh Rastogi

क्षिप्रा नदी में शाम के समय नाव के मजे लेते हुए बेटेलाल

    यही दिन होते हैं बच्चों के मजे के जब गर्मी की छुट्टियों में मौज होती है और दोस्तों में कोई भेदभाव नहीं होता कि तू किसका बेटा है, क्या करता है और भी पता नहीं क्या क्या… आजकल बड़े शहरों में हमने देखा है कि  दोस्त भी हैसियत देखकर बनाते हैं, बड़ा अजीब लगता है यह सामाजिक बदलाव, जो कि कहीं ना कहीं बच्चों के लिये खालीपन भरता है।

    बेटेलाल के साथ क्रिकेट खेलने वालों में उनका एक साथी जो कि उनके साथ रोज ही खेलता था, एक शाम एक दुर्घटना में नहीं रहा, मेरे बेटे ने मुझे फ़ोन पर बताया – “डैडी, वह हमारे साथ खेलता था, और रात नौ बजे वो जो बिल्डिंग बन रही है उसकी तीसरी मंजिल से उसका पैर फ़िसल गया और नीचे गिर गया, मेरे दोस्त ने बताया कि जब वह गिरा तो उसके सिर के पास बहुत सारा खून बह रहा था और उसके पापा मम्मी एकदम अस्पताल ले गये, पर डैडी वह नहीं बचा, उसकी डैथ हो गई” और फ़िर वह चुप हो गया ।

    फ़िर थोड़े अंतराल के बाद बोला “डैडी, अब मैं आपकी बातें माना करूँगा, मैं ध्यान से सड़क पार करूँगा, ध्यान से खेलूँगा, आप बिल्कुल चिंता मत करना” उस रात बेटेलाल मम्मी का हाथ पकड़कर सोये और थोड़ी थोड़ी देर में सहम रहे थे, बेटेलाल के मन पर दोस्त की मौत का बहुत असर हुआ था।

    इतनी छोटी उम्र में दोस्त की मौत ने हमारे बेटे को पता नहीं कहाँ से इतनी परिपक्वता दे दी, बेटा एकदम से बड़ा हो गया। बेटे को किसी को खोने का मतलब समझ में आ रहा है, जो कल तक उससे हाथ मिलाकर खेलता था, आज वह उसे कहीं दिखाई नहीं दे रहा और वह अब कभी नहीं आयेगा।

वर्षा ऋतु – बच्चों के लिये निबंध

    भारत में वर्षा ऋतु एक महत्वपूर्ण ऋतु है। यह ऋतु आषाढ़, श्रावण और भादो मास में मुख्य रूप में विराजमान रहती है। वर्षा ऋतु हमें भीषण गर्मी से राहत दिलाती है। यह मौसम भारतीय किसानों के लिये बहुत हितकारी है।    फ़सलों के लिये पानी मिलता है तथा सूख गये कुएँ तालाब नदियाँ आदि फ़िर से भर जाते हैं। इस मौसम में ग्रामवासियों को सुख भी प्राप्त होता है और दुख भी। गाँवों में बरसात का पानी भर जाता है। अधिक वर्षा से फ़सलें खराब हो जाती हैं। बाढ़ आने से शहर और गाँव दोनों में ही बहुत हानि होती है। मच्छर-मक्खियों का प्रकोप बढ़ जाता है।वर्षा ऋतु
इस मौसम में छोटे-छोटे जीव-जंतु जो गर्मी के मारे जमीन के नीचे छिप जाते हैं, बाहर निकल जाते हैं। मेंढ़क की टर्र-टर्र की आवाज सुनाई पड़ने लगती है। आकाश में प्राय: बादल छाये रहते हैं।

वित्तगुरु वित्तीय जानकारियाँ हिन्दी भाषा में

वर्षा ऋतु का आनंद लेने के लिये लोग पिकनिक मनाते हैं। गाँवों में सावन के झूलों पर युवतियाँ झूलती हैं। वर्षा ऋतु में ही रक्षा बंधन, तीज आदि त्योहार आते हैं। इस ऋतु में अनेक बीमारियाँ भी फ़ैल जाती हैं।

आधुनिक श्रम में पिछड़ते कर्मचारी

    प्रदेश की मुख्य सहकारी बैंक (अपेक्स बैंक) में KYC के कारण जाना हुआ, अब हमारे पिताजी चूँकि बात कर रहे थे, इसलिये हमने आगे रहकर बात करना उचित नहीं समझा। KYC के लिये जब पिताजी बात करके कर्मचारीआये तो उसने साफ़ मना कर दिया और कहा कि अगले महीने आईये, उन्होंने जोर दिया तो उसने मैनेजर के केबिन की ओर इशारा कर दिया । हम चल दिये पिताजी के साथ, उनका भी वही जबाब था, कि अगले महीने आईये अभी KYC नहीं हो पायेगा । अब हम आगे आये और हमने कहा KYC अभी लेने में क्या समस्या है, तो उनका पारा चढ़ गया, फ़िर हम चुप हो गये, क्योंकि पिताजी इस बैंक के बहुत पुराने ग्राहक हैं। फ़िर से हमने कहा अच्छा अभी आप KYC नहीं ले रहे हैं तो कम से कम KYC का फ़ॉर्म तो दे दीजिये, तब जाकर उन्होंने चपरासी को घंटी बजाकर बुलाया और अहसान कर देने वाले अंदाज में कहा कि इन्हें KYC का फ़ॉर्म दे दीजिये । हमारी इच्छा तो हो रही थी कि इन मैनेजर साहब को अच्छे से बैंकिंग के नियम और कानून सिखा दिये जायें, परंतु फ़िर भी चुप रहे.. सोचा हम तो इनको नियम सिखा जायेंगे, फ़िर ये पीछे पिता जी को पता नहीं कौन कौन से नियम बताकर तंग करेंगे।

    वहीं पीछे सारा लिपिक स्टॉफ़ कंप्यूटर से मगजमारी कर रहा था और उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था, हरेक लिपिक और अधिकारी के साथ एक जवान लड़का बैठा था जो कि उनके बैकअप जैसा काम कर रहा था, क्षमता प्रदर्शनअधिकारी और क्लर्क तो केवल कुर्सी पर बैठे थे और वे स्टूल पर बैठे लड़के उनका काम कर रहे थे और उनको समझाते जा रहे थे कि हो क्या रहा है। आज की इस तरह की स्थिती देखकर उन पढ़े लिखे बेरोजगार नौजवानों की याद आई जो इधर उधर मारे मारे फ़िर रहे हैं, उनमें ये सारे स्किल डेवलप किये जा सकते हैं, परंतु उनको कोई मौका नहीं मिल रहा है क्योंकि इन अधिकारियों और लिपिकों को भी तो नहीं हटाया जा सकता है, संस्थाओं को भी थोड़ा स्ट्रिक्ट बनना होगा, जिससे ऐसे कर्मचारियों के स्किल डेवलप किये जा सकें और उन्हें अच्छी तरह से उपयोग में लिया जा सके । नहीं तो इस तरह के मानवीय श्रम की आवश्यकता वाकई में अब नहीं है, कहने में अच्छा नहीं लगता परंतु बेहतर है कि अगर ये लोग जिस तरह का कार्य करने के लिये रखे गये हैं और नहीं कर पा रहे हैं तो ऐसे लोगों के प्रति संस्था को अच्छे स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम समय समय पर चलाने चाहिये।

    निकालना कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि जो आधारभूत स्किल्स उनके विकासपास हैं वह हम नई पीढ़ी में नहीं मिल सकते, उनसे केवल तकनीकी दक्षता की उम्मीद की जा सकती है, पर जो आधारभूत स्किल्स हैं, वे अनुभव और कठोर परिश्रम से ही प्राप्त किये जा सकते हैं । संस्थाओं को अपने कर्मचारियों के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रम और भी परिष्कृत करने की आवश्यकता है।

    अब डाकघर की १,५५,००० शाखाएँ कोर बैंकिंग से जुड़ने वाली हैं, यह परियोजना शुरू हो चुकी है, और यह विभिन्न क्षैत्रों में शुरू भी हो चुकी है। अब देखना यह है कि डाकघर स्किल डेवलपमेंट की समस्या से कैसे निपटेगा ।