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कभी कभी चैट से भी खुशियाँ दिल को बाग बाग कर देती हैं ।

    जिंदगी मुश्किल का दूसरा नाम है और जो मुश्किलों का सामना डटकर करते हैं, वे अपने आप में हरफ़नमौला होते हैं। सहनशीलता जिनमें होती है वे एक ना एक दिन अपने लक्ष्य पर जरूर पहुँचते हैं, सफ़लता उनके कदम चूमती है। मुश्किलों से घबराकर जो जीवन के सामने अपने हथियार डाल दे वे बुजदिल होते हैं। अगर मुश्किलें जीवन में नहीं होंगी तो जीवन बोझिल हो जायेगा और जीवन जीने का आनन्द नहीं आयेगा।

    हमारे एक बेहद करीबी मित्र पिछले कुछ वर्षों से इसी तरह की परिस्थितियों से गुजर रहे थे, दो दिन पहले फ़ेसबुक पर रात्रि को उनका मैसेज आया – “भाई परेशान करना है, कर लूँ क्या ?”, वैसे दोस्त जो कि कार्पोरेट दुनिया में होते हैं, यही उनकी एक खासियत होती है बोलकर परेशान करते हैं, और अगर अभी समय नहीं है तो समय बता दो तब परेशान करता हूँ। हमने झट से चैट पर कहा “अरे साब आपके लिये तो हम हमेशा फ़्री हैं”। जबाब मिला “एक गुड न्यूज दे रहे हैं आपको !!” आज हमने अपनी तत्काल कंपनी में पेपर डाल दिया है, पेपर को त्यागपत्र हिन्दी में कहा जाता है। हमने झट से कहा “वाह !! बधाई, तो आपको आखिरकार नई राह मिल ही गई”।

    हमारे मित्र का जबाब था “कोशिश की है”, हमने कहा “भगवान सबकी सुनता है बस आपको इंतजार करवाया “, उन्होंने कहा “घर की राह मिल गई है, अब बस बहुत हुआ अब वापिस जायेंगे”। जो अपने परिवार से नौकरी के लिये दूर रह रहे होते हैं, वे इस बात को शायद अच्छी तरह से समझ पायेंगे। हमने कहा “हृदय से हमारी बधाई स्वीकारें”। हमारे मित्र ने बताया कि हमें शाम से यह बात बताने की बहुत इच्छा थी, हमें बहुत अच्छा लगा। और हमने कहा “भाई वैसे भी कमीने बोलने वाले दोस्त बहुत कम हैं”।

    हमने पूछा कि फ़िर तो आपको कल जब नई राह मिली तो नींद सुकून से आई होगी, उन्होंने चैट पर जबाब दिया नहीं सब कुछ आज हुआ है तो पता नहीं आज की रात कैसे कटेगी, नींद आयेगी या नहीं। दिल खुशियों से लबालब हुआ जा रहा था, हमने चैट पर लिखा “आपकी जिंदगी में हर रोज ऐसे ही खुशियों की बौछार हो”, हमारे मित्र कहते हैं “सरकार इतनी खुशियों को बटोरने की आदत नहीं है, सँभाल नहीं पाते हैं, थोड़ी सी खुशी में ही खुश हैं”।  हमने कहा ऐसे भी खुशियाँ कभी कभी आती हैं इसलिये जब भी खुशी मिले बौरा लेना चाहिये”।

    ऐसे ही अपने करीबी को जब खुशी मिलती है तो हम भी उसकी खुशी में झूम उठते हैं और उसको भी बौरा लेने की सलाह देते हैं।

वीडियो चैटिंग ब्लैकबैरी प्लेबुक से (Video Chat for Blackberry Playbook via AIM & AOL)

कल से वीडियो चैटिंग के लिये लगे हुए थे, कैसे कम्प्य़ूटर और ब्लैकबैरी प्लेबुक के मध्य वीडियो चैटिंग हो, इसके लिये ऐसे सॉफ़्टवेयर उत्पाद की जरूरत महसूस हो रही थी जिसमें किसी भी डिवाइस पर सॉफ़्टवेयर संस्थापित न करना पड़े। इसमें आज हमें सफ़लता भी मिली ।
www.aim.com

aim

इसमें बिना संस्थापन के भी सीधे वेबसाईट से वीडियो चैटिंग की जा सकती है, हालांकि हमें जो महसूस हुआ वह यह है कि इसमें थोड़ा आडियो का लफ़ड़ा है, पर वीडियो बिल्कुल साफ़ है। पर इसमें पंजीकरण जरूरी है, या तो आप AIM में पंजीकरण करें या फ़िर Facebook से भी लॉगिन कर सकते हैं।

इसके पहले हमने AOL की ही एक और सेवा है जिसमें वेबपेज से सीधे वीडियो कान्फ़्रेंसिंग की जा सकती है, उसका भी उपयोग किया था, पर हमें अब लगा कि AOL की ही सेवा है और उसमें भी हमने यही ऑडियो की समस्या का सामना किया था, पर उसमें भी वीडियो बढ़िया था।

www.aol.com/av की सबसे अच्छी बात यह लगी कि इसमें आपको वेबसाईट पर पंजीकरण करवाना जरूरी नहीं है, केवल एक बक्से पर टिक मारना है कि आप १३ वर्ष के ऊपर हैं और फ़िर अपने कैमरा और माईक की सैटिंग चुन लीजिये। सीधे वीडियो चैट शुरू हो जायेगा।

aolav

इस वीडियो चैट में AOL आपको एक जादुई लिंक देगा जिसे आपको उन लोगों को देनी होगी जिनसे आप वीडियो चैटिंग करनी होगी, यह पूर्णतया सुरक्षित है, और इसमें अधिकतम ३ लोग वीडियो चैट कर सकते हैं। आप यहाँ AIM और Facebook वालों को भी बुला सकते हैं।

वीडियो क्वालिटी जबरदस्त है, ऑडियो क्वालिटी हमें ठीक नहीं लगी।

अब चूँकि ब्लैकबैरी प्लैबुक में एक वीडियो चैट का सॉफ़्टवेयर उत्पाद जरूर दे रखा है, परंतु यह सॉफ़्टवेयर केवल ब्लैकबैरी से ब्लैकबैरी के मध्य ही वीडियो चैटिंग कर सकता है। हमने Skype भी ढूँढ़ा परंतु Skype कंपनी ने ब्लैकबैरी के लिये उत्पाद बनाना बंद कर दिया है और जो उपलब्ध था वह भी अपनी साईट से हटा दिया है, जबसे Skype ने Facebook के साथ वीडियो चैटिंग शुरू की है।

अभी वीडियो चैटिंग के लिये खोज जारी है, जब तक कि ब्लैकबैरी प्लेबुक के लिये कोई अच्छा सा वीडियो चैट नहीं मिल जाता है। नहीं तो आखिर में खुद ही बैठकर कोड लिखना पड़ेगा और वीडियो चैट बनाना पड़ेगा Sad smile

कम उम्र में मानसिक तनाव के कारण बड़ रहीं शारीरिक समस्याएँ

इस भागती दौड़ती दुनिया में तनाव बड़ता ही जा रहा है, कुछ शारीरिक समस्याएँ वर्षों पहले कुछ उम्र के बाद होती थीं याने कि लगभग ५० वर्ष के बाद होती थीं । अब वे शारीरिक समस्याएँ तेजी से कम उम्र की अवस्था में होने लगी हैं।

सब कहते हैं कि स्वस्थ्य जीवन जीना चाहिये, सबकी इच्छा स्वस्थ्य जीवन जीने की होती है, परंतु या तो समय पास ना होने की लाचारी होती है या फ़िर आराम तलबी के कारण पसीना नहीं बहाने देने की लाचारी होती है।

HeartAttackमानसिक तनाव

ये शारीरिक समस्याएँ मानसिक तनाव की वजह से घर कर रही हैं, आजकल नौकरी में इतना तनाव होता है कि व्यक्ति पल पल केवल अपनी व्यवसायिक समस्याओं को निपटाने में ही दिमाग में उलझा होता है, और इसी उलझन में उधेड़बुन में कब  यह तनाव उसके शरीर को लक्ष्य करने लगता है, उसे पता ही नहीं चलता है।

दो तीन दिन पहले ही पता चला कि लगभग ४० वर्षीय एक सहकर्मी को पहले दिल में ब्लॉकेज की समस्या हुई और फ़िर वे कोमा में चले गये और अगले ही दिन वे नहीं बचे। इस व्यवसायिक तनाव के कारण सीधे दिल पर भार पड़ रहा है। सहकर्मी की मौत से हृदय विचलित हो गया है।

हृदयघातमानसिक तनाव १

ऐसे ही कुछ महीनों पूर्व एक आई.टी. कंपनी के २९ वर्षीय कर्मचारी भी तनाव का शिकार हो चुके हैं। भारत की नंबर १ सॉफ़्टवेयर उत्पाद कंपनी में कार्य करने वाले इस २९ वर्षीय युवा को तो दिल का दौरा मोटर साईकिल से अपने ऑफ़िस जाते वक्त ही पड़ गया। और उनकी मौके पर ही मौत हो गई।

हमें तो तनाव के कारण गई जिंदगियों में कुछ की ही जानकारी है, कुछ जिंदगियाँ जो कि मौत से गले मिल लेती हैं और उनके बारे में किसी को कुछ पता ही नहीं चलता है। शायद कंपनियों में तनाव कम करना होगा या फ़िर तनाव को कैसे व्यवस्थित किया जाये और कैसे खत्म किया जाये, इसके बारे में जागरूकता फ़ैलानी होगी।

हमारे विद्यालयों और महाविदयालयों में बच्चों को केवल शिक्षा दी जाती है, पर शायद यही वे जगहें हैं जहाँ बच्चों को मानसिक स्तर पर मजबूत किया जा सकता है और जो लोग अब कार्य कर रहे हैं, उन्हें नियमित वर्कशाप लगाकर मानसिक स्तर पर मजबूत किया जाना चाहिये। जिससे कंपनियों को अच्छे मानसिक मजबूती वाले लोग तो मिलेंगे ही, साथ ही कंपनी की श्रम उत्पादकता भी बढ़ेगी।

नोट : – चित्र गूगल से साभार।

तीन निबंध बच्चों के लिये (बालश्रमिकों से छिनता बचपन, एक दिन जब में विकलांगों के शिविर में गया और देश में हजारों अन्नाओं की जरूरत है ।)

बालश्रमिकों से छिनता बचपन
आजकल बाल श्रम कानून की खुलेआम धज्जियां उड़ती दिखाई देती हैं। जिसमें बाल श्रमिकों का बचपन छिनता जा रहा है। पेट की आग शांत करने के लिए बच्चे झूठे बर्तन धो रहे होते हैं। लेकिन बाल श्रमिक को बचाने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया जा रहा है।
सड़क के किनारे स्थित लाइन होटल, ढाबा व घरों में बाल श्रमिक काम करते देखे जा सकते हैं। ये बच्चे पढ़ लिखकर कुछ कर सके इस दिशा में प्रयास किया जाना जरूरी है। इसके लिए समाज के सभी तबकों को प्रयास करना होगा।
काम करने वाले बाल श्रमिकों की मजबूरी है कि अगर वे काम नहीं करेंगे तो वे भूखे रह जायेंगे और उनके ऊपर आश्रित  छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई भी बंद हो जायेगी। अगर किसी भी बाल श्रमिक से बात की जाये तो पता चलता है उनका भी पढ़ने का मन करता है। लेकिन गरीबी के चलते काम करना पड़ रहा है।
बाल श्रमिकों को आठ घंटे से ज्यादा काम करना पड़ता है उसके बाद भी मालिक की झिड़कियां सुननी पड़ती हैं। अधिकांश होटलों पर बाल श्रमिक ही काम करते हैं।
जबकि बच्चों के भविष्य निर्माण के लिए सरकार अनेक योजनाएं चला रही है लेकिन ये योजनाएं बाल श्रमिकों के लिए निरर्थक साबित होती दिख रही हैं। सरकार ने बच्चों को शिक्षा पाने का अधिकार कानून बनाया है।
बाल श्रम अधिनियम तो बनाया गया किंतु उसका कठोरता से पालन करने की आवश्यकता है। बाल श्रमिकों की संख्या आज भी लगातार बढ़ रही है क्योंकि लोगों को भय नहीं है। कानून का प्रभावी कार्यान्वयन के साथ ही बाल श्रमिकों की आजीविका एवं शिक्षा के समुचित प्रबंध होना चाहिये।
एक दिन जब में विकलांगों के शिविर में गया
बीईएमएल ले आऊट के स्थानीय बालाजी मंदिर के पास प्रांगण में गणेश चतुर्थी के उपलक्ष्य में मंदिर समिति और रहवासी संघ द्वारा विकलांगों के लिये शिविर का आयोजन किया गया।
सुबह दस बजे से शाम पाँच बजे तक विकलांग शिविर का समय रखा गया था। वहाँ विभिन्न प्रकार के काऊँटर लगे हुए थे, जिसमें हाथ, पैर कान और आँख के काऊँटर प्रमुख थे।
शिविर का उद्घाटन रहवासी संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता ने किया और सभी विकलांगों को चिकित्सकों का परिचय करवाया गया।
उद्घाटन के बाद सभी मरीज संबंधित काऊँटर के पास जाकर अपनी चिकित्सकीय जाँच करवाने के लिये चले गये।
जिसमें चिकित्सकों ने तकरीबन 135 चयनित मरीजों की जांच कर उन्हें विकलांग उपकरणों का वितरण किया गया। इस शिविर में कृत्रिम अंग कान की मशीन, पेट बैल्ट, हाथ, पैर, कैलीपर, बैसाखी इत्यादि वितरित किये गए।
देश में हजारों अन्नाओं की जरूरत है
किसन बापट बाबूराव हज़ारे अन्ना हजारे का पूरा नाम है। अन्ना हजारे एक भारतीय समाजसेवी हैं। अधिकांश लोग उन्हें अन्ना हज़ारे के नाम से जानते हैं। सन् १९९२ में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। सूचना के अधिकार के लिये कार्य करने वालों में वे प्रमुख थे। जन लोकपाल विधेयक को पारित कराने के लिये अन्ना ने १६ अगस्त २०११ से आमरण अनशन आरम्भ किया था।
अन्ना शुरू से ही भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ते रहे और अन्ना को महाराष्ट्र में जीत भी हासिल हुई, अन्ना ने भ्रष्टाचार और काले धन के मुद्दे पर दिल्ली में हुंकार भरी, पूरा देश अन्ना के साथ खड़ा हो गया। अन्ना ने माँग की संसद में जन लोकपाल विधेयक पेश किया जाये जिससे भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ना आसान हो, और भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाना आसान हो।
आज हर जगह भ्रष्टाचार हो रहा है, इस भ्रष्टाचार को हटाने के लिये एक नहीं हमें हजारों अन्ना हजारे की जरूरत है। जो कि पूरे ताकत और जोश के साथ भ्रष्टाचार को हटाने का संकल्प लें और भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फ़ेंके। हमारा प्यारा भारत भ्रष्टाचारियों के हाथ से निकलकर ईमानदार हाथों में जाये। जिससे भारत जल्दी ही विकासशील राष्ट्र से विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में शामिल हो जाये।

 

पैसे पेड़ पर उगते हैं पता बता रहे हमारे बेटे लाल…

जब हम घर पर रहते हैं तो बेटेलाल को हम ही सुबह उठाते हैं, और कुछ संवाद भी हो जाते हैं, कुछ दिनों पहले महाराज अपनी एक किताब गुमा आये और अब बोल रहे हैं कि पैसे दे दीजिये हम नई किताब खरीद लायेंगे। अपनी आदत के अनुसार हमने कह दिया “पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं” और अब तो यह हमारे प्रधानमंत्री जी ने भी पुष्ट कर दिया है।

हमने कहा बेटेलाल पहले जाकर अपनी किताब ढूँढ़ो जैसे डायरी गुमी थी और बाद में मिल गई वैसे ही वह भी मिल जायेगी, चिंता मत करो। पर ये महाराज आश्वस्त हैं नहीं मिलेगी। तभी हमने फ़िर से बोला बेटा पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं, तो हम तो इसके लिये पैसे नहीं देने वाले हैं।

पैसे का पेड़

हमें तभी बेटेलाल का जबाब मिला “हमें कुछ नहीं पता, हमें तो किताब लेनी है, और पैसे चाहिये!!!”, हमने फ़िर से कहा बेटा पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं, कहते हैं – “पैसे पेड़ पर उगते हैं”, हमने कहा फ़िर पता बताओ हम अभी वहीं से पैसे तोड़ लाते हैं और प्रधानमंत्री जी को भी बता देते हैं, बेटेलाल पूछते हैं कि ये प्रधानमंत्री जी कहाँ रहते हैं, हमने कहा दिल्ली में रहते हैं, बेटेलाल कहते हैं “उईई मैं तो इतनी दूर नहीं जा रहा उनको बताने कि पैसे का पेड़ कहाँ है”, हमने कहा अच्छा हमें तो बता दो।

बेटेलाल कहते हैं “वो पेड़ यहाँ बैंगलोर में थोड़े ही है, वह तो जयपुर में है, जयपुर में कांदिवली गाँव है, हमने कहा ओय्ये कांदिवली तो मुँबई में है, तो बेटेलाल कहते हैं अच्छा जयपुर की जगहों के नाम बताओ, हमने कहा हमें भी पता नहीं तो कहते हैं कि पुर्रपुर्रपुरम में है।

खैर यह संवाद तो इतना ही रहा, पर इतने संवाद में यह बात समझ में आ गई कि बेटेलाल को भी पता है कि पैसे का पेड़ नहीं है और कहीं उगते भी नहीं है, उनके लिये तो डैडी ही पैसे का पेड़ हैं, बस डैडी को हिलाओ और पैसे गिरने लगेंगे । मैं भी बेटे की मासूमियत भरी बातों को कहीं और से जोड़कर देखने लगा और अब सोच रहा हूँ कि काश मैं भी बच्चों जैसा पावन पवित्र मन वाला होता और इन बातों को यहीं खत्म कर कहीं किसी और काम में व्यस्त हो जाता ।

पापा प्लीज आज मत जाओ और आज यहीं रहो

    हमारे एक मित्र हैं जो कि आजकल नौकरी के कारण परिवार के साथ अलग रह रहे हैं। उनकी एक प्यारी सी बिटिया है जो कि लगभग ५ वर्ष की होगी। बिटिया अपने पापा को बहुत याद करती है। हमारे मित्र को अधिकतर व्यापारिक यात्राओं पर ही रहना होता है जिस कारण से परिवार को आजकल ज्यादा समय नहीं दे पा रहे हैं। इसके पहले करीब तीन  वर्ष अपने परिवार के साथ ही भारत के बाहर रहे और वे तीन वर्ष बिटिया के जन्म के बाद के हैं, बिटिया का लगाव मम्मी से ज्यादा पापा के प्रति ज्यादा है।

    यह भी एक नैसर्गिक विषय है कि बिटिया पापा के करीब रहती है और बेटा मम्मी के करीब रहता है। इस विषय के बारे में शायद जितनी बात की जाये उतनी कम है, क्योंकि इसके प्रति सबके अपनी अपनी विचारधाराएँ हैं, जो कि इस विषय को प्रभावित करती हैं।

    तो हमारे मित्र अकेले भारत के बाहर जा रहे थे, मजबूरी यह थी कि परिवार को साथ लेकर नहीं जा पा रहे थे, क्योंकि व्यापारिक यात्राओं के साथ यही मजबूरी है जहाँ पर १ दिन से लेकर ३० दिन की यात्राएँ होती हैं और बहुत जल्दी जल्दी होती हैं। जिससे परिवार को साथ लेकर जाना लगभग असंभव हो जाता है। बाहर जाने के पहले परिवार से मिलने अपने गृहनगर गये तो बिटिया ने पापा को पकड़ लिया और कहा पापा आज आप मुझे अपने से चिपका कर सुलाना और छोड़कर मत जाना। पापा की मजबूरी यह थी कि पापा केवल ६-७ घंटे के लिये घर पर परिवार से मिलने जा पाये थे। पापा ने सबसे पहले घर पर जाकर बता दिया था कि मैं केवल ६-७ घंटे के लिये ही आ पा रहा हूँ।

    बिटिया पापा को एकटक देखे जा रही थी, फ़िर पापा के पास बड़े प्यार से आई और बोली पापा प्लीज आज मत जाओ और आज यहीं रहो, पर पापा ने अपनी मजबूरी बताई फ़िर भी बिटिया जिद पर अड़ी रही, पापा प्लीज आज रूक जाओ। फ़िर थोड़ी देर बाद पापा की गोदी में आकर बिटिया बैठ गई और पापा को प्यार करने लगी कभी गालों पर चूमती कभी हाथों को चूमती कभी माथे को चूमती। इस आस में बिटिया पापा को प्यार करती रही कि शायद पापा रुक जायें और उसकी आस पूरी हो जाये।

    पर पापा भी मजबूरी के हाथों अपने बिटिया का यह छोटा सा अरमान पूरा नहीं कर पा रहे थे, पापा का भी हृदय द्रवित हो रहा था, हृदय को कठोर कर पापा अपने गंतव्य के लिये निकल पड़े। सबकुछ अपने परिवार के लिये करना पड़ता है जिसके लिये इन छोटी छोटी बातों को पापा पूरी नहीं कर पाते हैं।

    यह केवल हमारे मित्र का ही हाल नहीं है, ऐसे बहुत सारे पापा, बेटे और बेटियाँ हैं जो कि इस जुदाई को महसूस कर रहे हैं, पापा अपने बच्चों का प्यार उनका बचपना खो रहे हैं और बच्चे बचपन में अपने पापा का प्यार नहीं पा रहे हैं। कहीं ना कहीं पापा और बच्चों में कहीं कुछ अधूरापन आ रहा है, वहीं रिश्ते में भी गरमाहट कम हो रही है, बच्चे तो छोटे हैं, वो तो कुछ समझ ही नहीं पा रहे हैं परंतु पापा मजबूरी में अपने बच्चों से दूर अपने काम में व्यस्त हैं। परिवार के साथ रहना और नौकरी करना दोनों ही जरूरी हैं, पर अगर इनमें से एक चीज को चुनना हो तो बहुत मुश्किल होता है ।

तश्तरी में खाना ना छोड़ क्या पेट पर अत्याचार कर लें ?

    आज सुबह नाश्ता करने गये थे तो ऐसे ही बात चल रही थी, एक मित्र ने कहा कि फ़लाना व्यक्ति नाश्ते में या खाने की तश्तरी में कुछ भी छोड़ना पसंद नहीं करते और यहाँ तक कि अपने टिफ़िन में भी कुछ छोड़ते नहीं हैं। वैसे हमने इस प्रकार के कई लोग देखे हैं जो इन साहब की तरह ही होते हैं जो कि अपने तश्तरी में कुछ छोड़ना पसंद नहीं करते। शायद कुछ लोग अपनी लुगाई के डर से नहीं छोड़ते, नहीं तो घर में महासंग्राम हो जायेगा, “अच्छा तो अब हमारे हाथ का खाना भी ठीक नहीं लगता जो तश्तरी में खाना छोड़ा जा रहा है।”

    हमारा मत थोड़ा अलग है, हम सोचते हैं कि तश्तरी में खाना छोड़ना, न छोड़ना अपने अपने व्यक्तिगत विचार हैं, जिस पर किसी और व्यक्ति का अपने विचार थोपना ठीक नहीं है। अब अगर कोई किसी होटल में खा रहा है और खाने का समान ज्यादा है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि खाते नहीं बने फ़िर भी बस भकोस लिया जाये । छोड़ने से होटल वाला किसी गरीब को भी नहीं देने वाला है, क्योंकि वह तो फ़ेंकेगा ही।

    जो लोग ऐसे उपदेश देते हैं, वे कहते हैं कि हम अन्न की कीमत जानते हैं, भई अन्न की कीमत तो हम भी जानते हैं, परंतु वे खुद ही सोचें क्या व्यवहारिकता में यह संभव है। हम तो सोचते हैं कि रोजमर्रा के व्यवहार में यह संभव नहीं है। आदमी कितना ही गरीब हो वह इज्जत की रोटी खाना चाहता है, जो आदमी ये खाना खाता भी होगा, क्या कभी उसके मन को पढ़ने की कोशिश की है, कि वो किस दर्द से गुजर रहा होगा। अगर पढ़ने की कोशिश की होती और आपका मन उसकी मदद करने को होगा तो आप कम से कम उसे खाना नहीं देंगे उसे किसी और तरह से मदद कर देंगे, जैसे कि कोई छोटा काम दे दें, मेहनत के पैसे कमाने से उसे भी खुशी होगी।

    हाँ कुछ ढीट होते हैं जो कि काम करना ही नहीं चाहते और मुफ़्त में ही माल खाना चाहते हैं, तो मैं कहता हूँ कि अगर हम ऐसे ही उन लोगों के लिये सोचते रहेंगे तो वो लोग भी कभी सुधरने वाले नहीं हैं। बल्कि हम उन लोगों को बढ़ावा ही दे रहे हैं।

    हाँ आप अगर बफ़ेट में खा रहे हैं तो आप खाना उतना ले सकते हैं जितना आप खा सकते हैं, परंतु अगर कहीं पूरी प्लेट ही आपको ऑर्डर करनी है तो यह संभव नहीं है कि आप पूरा खा लें और अपने पेट पर अत्याचार करें। मैं तो खाने की तश्तरी में छोड़ना या ना छोड़ने के बारे में ज्यादा सोचता नहीं, क्योंकि यह निजता है और हम अपनी निजता का उल्लंघन नहीं होने देना चाहते, सबके अपने व्यक्तिगत विचार होते हैं, उनका सम्मान करना चाहिये।

    पेट पर अत्याचार (हमारे मित्र विनित जी द्वारा बहुतायत में उपयोग किया जाने वाला वाक्य है ।)

विचारों के प्रस्फ़ुटन से एक नई सृष्टि का निर्माण होता है।

    कई बार सोचा इस क्षितिज से दूर कहीं चला जाऊँ और कुछ विशेष अपने लिये सबके लिये कुछ कर जाऊँ, परंतु ये जो दिमाग है ना मंदगति से चलता है, इसे पता ही नहीं है कि कब द्रुतगति से चलना है और कब मंदगति से चलना है। दिमाग के रफ़्तार की चाबी पता नहीं कहाँ है। और ये भी नहीं पता कि मंदगति से एकदम द्रुतगति पर कैसे ले जाया जाये।

    विचारसप्ताहांत में पाँचसितारा होटल में अकेला कमरे में दिनभर दिमाग दौड़ाने की कोशिश करता हूँ, परंतु दिमाग भी वातानुकुलन से प्रभावित हो चुका है और एक अजीब तरह का अहसास दिमाग में कुलबुलाने लगता है। शायद दिमाग इस होटल के कमरे की दीवारों की मजबूती देखना चाहता हो, हजारों विचार छिटक के इधर उधर निकल पड़ते हैं, दीवारों से टकराकर नष्ट होने की कोशिश करते हैं परंतु एक विचार के टूटने से चार नये खड़े हो जाते हैं। ज्यादा हो जाता है तो खिड़की के पास जाकर बाहर को देख लेता हूँ, सोचता हूँ कि शायद कुछ विचार इस खिड़की से बाहर गिर पड़ें और यह कमरा थोड़ा भारहीन हो जाये।

    खिड़की के पास जाकर शीतलता का अहसास कम हो जाता है और तपन लगने लगती है, जब शीतलता से तपन में जाते हैं तो तपन अच्छी लगती है और ऐसे ही जब तपन से शीतलता में आते हैं तो शीतलता अच्छी लगती है। मानव को कौन समझ पाया है, पता नहीं जब मानव फ़ैसला लेता है तो वह दिमाग से लेता है या दिल से लेता है।

    मानव को अपने आप को समझने की प्रवृत्ति ही मानव को अपने अंदर के प्रकाश की और धकेलती है, उसे समझने की कोशिश में ही मानव बाहरी ज्ञान को भूल अंतरतम में झांकने की कोशिश करता है, कभी यह कोशिश नाकाम होती है तो कभी यह कोशिश सफ़ल होती है।

    रफ़्तार की भी अपनी गति होती है और स्थिरता के स्थिर में भी एक गति होती है, शून्य में कुछ भी नहीं है, जब विचार अपने पूर्ण वेगों से प्रस्फ़ुटित होते हैं, पूर्ण आवेग में आते हैं तो विचार अंगारित हो जाते हैं और विचारों के प्रस्फ़ुटन से एक नई सृष्टि का निर्माण होता है। कई बार गति आवेग और वेग सब जाने पहचाने से लगते हैं, अपने से लगते हैं। किंतु यह भी सर्वथा सार्वभौमिक सत्य है ‘गति, आवेग और वेग’ कभी किसी की साँखल से नहीं बँधा है। सब पूर्व नियत है, सब पूर्व नियोजित है।

ओलम्पिक खेलों में भारत का स्थान एवं प्रदर्शन 2012(Performance of India in Olympics Games 2012)

    भारत ओलम्पिक खेलों की पदक तालिका में 55 वें स्थान पर रहा। 2012 के ओलम्पिक में हमें प्राप्त 6 पदक – दो रजत और चार कांस्य – अब तक के हमारे इतिहास में सर्वाधिक हैं। यदि कोई चाहे तो इस तथ्य से भी राहत महसूस कर सकता है कि 2008 में बीजिंग ओलम्पिक में प्राप्त पदकों से यह दुगुने हैं। इस उपलब्धि पर मैं भी अन्य भारतीयों की तरह प्रसन्नता महसूस कर रहा हूँ।
   अत: लंदन में इन सभी 6 पदकों – विजय कुमार को शूटिंग में रजत, फ्री स्टाइल कुश्ती में रजत जीतने वाले सुशील कुमार, शूटिंग में गगन नारंग द्वारा कांस्य, महिला बॉक्सिंग में कांस्य जीतने वाली एम सी मेरीकॉम (मणिपुरी मां जो राष्ट्र की प्रशंसा का पात्र इसलिए बनी कि उसने दिखा दिया कि वह स्वर्ण पदक जीतने की क्षमता रखती है), योगेश्वर दत्त द्वारा कुश्ती में कास्य, और महिला बैडमिंटन सिंग्लस में 22 वर्षीया हैदराबाद की साइना नेहवाल जिसने अपनी प्रतिभा, साहस और दृढ़ इरादे से करोड़ों भारतीयों का दिल जीता, द्वारा कांस्य पदक – जीतने वालों को मेरी हार्दिक बधाई। साइना ने प्रदर्शित किया कि वह बैडमिंटन में चीन के एकाधिकार को चुनौती देने की निश्चित रूप से क्षमता रखती है।
लंदन में दिए गए कुल 962 पदकों में से भारत केवल 0.06 प्रतिशत ही जीत पाया। वस्तुत: अब तक के हुए ओलम्पिक खेलों में भारत मात्र 26 पदक ही जीत पाया है।

 

इमिग्रेशन, १२० की रफ़्तार, अलग तरह की कारें और रमादान महीना– जेद्दाह यात्रा भाग–४ (Immigration, Speed of 120Km, Different type of Cars and Ramadan Month Jeddah Travel–4)

जेद्दाह पहुँचने के उपरांत कई बार जो कठिन प्रक्रिया लगती है वह है इमिग्रेशन, बस इधर से उधर लाईन में दौड़ते रहो, शायद यह प्रक्रिया सभी देशों में एक जैसी होती है, इसलिये किसी को कोसने से कोई फ़ायदा नहीं था, खैर हमें ज्यादा देर नहीं लगी, ज्यादा से ज्यादा आधा घंटा वह भी लाईन के कारण लगा, वरना हमारे एक सहकर्मी को तो एक बार ७-८ घंटे लग गये थे, उनके पासपोर्ट या वीजा संबंधित कोई जानकारी इमिग्रेशन के सिस्टम में नहीं मिल रही थी, और उन्होंने किसी और संबंधित विभाग को सूचित कर दिया था। इमिग्रेशन के बाद बाहर निकले और जहाँ रुकने वाले थे वहाँ से हमारे नाम की तख्ती लिये टैक्सी ड्राईवर खड़ा हुआ था।

जेद्दाह एयरपोर्ट छोटा है तो कहीं  भी ज्यादा चलना नहीं पड़ता है, बस वैसे ही टैक्सी तक जल्दी से पहुँच गये। टैक्सी कौन सी कंपनी के द्वारा बनाई गई थी, वह तो हम भूल गये, परंतु थी बड़ी लंबी चौड़ी, सऊदी में एक बात है कि कारें एक से एक देखने को मिलती हैं, लंबी, चौड़ी, छोटी और बड़ी बड़ी कारें और कई कारों के तो हमें ब्रांड भी पता नहीं होते, और अगर ब्रांड सुने भी होते हैं तो पहली बार वहीं देख रहे होते हैं ।

एयरपोर्ट से होटल करीबन २५ किमी है और ये दूरी लगभग २० मिनिट में पूरी कर ली गई, कारों की औसत रफ़्तार ११० किमी होती है, और रजिस्टर्ड कंपनियों की टैक्सियाँ इससे ज्यादा रफ़्तार पर नहीं जाते, हमें बताया गया कि लोग तो इस रोड पर २०० किमी की रफ़्तार पर भी चलते हैं, जैसे कि जेद्दाह से दुबई सड़क मार्ग से लगभग ११०० किमी की दूरी पर है और अधिकतर लोग ६-७ घंटे में यह मार्ग तय कर लेते हैं।

Marriot Jeddah 1. jpegMarriot Jeddah

चित्र गूगल से साभार

होटल आकर चेकइन किया और अपनी थकान के मारे और अपनी ऊर्जा संग्रहण के लिये बिस्तर पर निढ़ाल होकर गिर पड़े। इसी दिन से ही रमादान के पवित्र महीने की शुरूआत हुई थी।  होटल के ग्रांऊँड फ़्लोर पर ही होटल ने ओपन रेस्टोरेंट की शुरूआत की हुई थी, जिसमें कि इफ़्तार और सेहरी के लिये लोग अपनी टेबल बुक करवा कर आते थे।

रमादान का माह उन लोगों के लिये बहुत कठिन होता है जो कि इसके आदी नहीं होते हैं, जैसे कि हम लोग थे, क्योंकि रमादान के महीने में शाम ७ बजे इफ़्तार होता है और सुबह ३.३० बजे तक सेहरी होती है। सऊदी की पूरी जिंदगी दिन की जगह रात की हो जाती है। दिनभर सड़क पर भी कोई ट्राफ़िक नहीं होता पर हाँ शाम ७ बजे के बाद ट्राफ़िक बढ़ जाता है और ट्राफ़िक का दबाब सुबह ४ बजे तक बना रहता है, हम रात को ९ बजे के लगभग सड़क के पार जाते थे तो वह सड़क पार करने में ही हमें १५-२० मिनिट लग जाते थे, क्योंकि ट्राफ़िक का घनत्व ज्यादा और रफ़्तार भी १२० किमी के लगभग होती थी, और चार लेन को पार करना भी इतना आसान नहीं होता था, क्योंकि किस लेन में कौन तेज रफ़्तार से आयेगा, पता ही नहीं चलता था| 120 की रफ़्तार हमें बहुत ज्यादा लगती थी, पर शायद जो गाड़ी में बैठते हैं उन्हें रोमांच का अनुभव होता है, हमने भी यह रोमांच जेद्दाह में लिया। बैंगलोर में तो ८० की रफ़्तार पर चलना भी संभव नहीं हो पाता।

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