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उच्च रक्ताचाप, चाय बिस्किट, चाय की नाट और पेट पर अत्याचार

    रोज की दिनचर्या बदलती जा रही है सुबह की सैर और दवाईयाँ जीवनचर्या में शामिल हो गई है। बिना मसाले की सब्जियाँ, बिना घी की रोटी, अचार बंद, पापड़ बंद, मिठाईयाँ बंद, नमकीन बंद, तला हुआ बंद सब कुछ बंद, ये डॉक्टर है या क्या, सब कुछ बंद कर दिया, अब न खाने में स्वाद है और न ही खाने की इच्छा होती है, हम भी पक्के हैं कार्य के दिनों में यह सब पालन करते हैं और बाकी के दो दिन जमकर यही सब उड़ा लेते हैं।

    अगर बाकी के दो दिन भी पूरा वही खाना खा लिया तो बस समझो कि अपन तो बहुत ही जल्दी सन्यासी होने वाले हैं, अरे जब कुछ खाना ही नहीं है तो नौकरी किसलिये करनी है, मजा में अपने शहर में जाकर ताजी हवा में रहें, इस महानगरी की दौड़ा दौड़ी से तो निजात मिलेगी।

    दिनभर में चाय ४-५ आ जाती है पर अब हम २ पर टिक गये हैं, और चाय वाले समय अपनी सीट से गायब होने में ही अपनी भलाई समझते हैं। या फ़िर ये है कि आधी चाय ले ली जाये अब आती है तो मना तो करते नहीं बनता ना। क्योंकि चाय की नाट बुरी होती है।

    दोपहर को खाना लेकर जाते हैं, मजे में खाना खाते हैं पर समस्या शुरु होती है ४बजे के बाद, लोगों को भूख लगने लग जाती है और चिप्स, बिस्किट और नमकीनों के पैकेट अपनी डेस्क पर ही खुलने शुरु हो जाते हैं, और हम अपने क्यूबिकल वालों को देखते रहते हैं, सोचते रहते हैं कि ये मुए कितनी कैलोरी खाते हैं, जैसे मेरी बंद हो गई है इन सबकी बंद हो जायेगी एक दिन।

    चिप्स के पैकेट या नमकीन के पैकेट लाकर बिल्कुल हमारे सामने ला देंगे और फ़िर मुस्कराते हुए चिढ़ाते हुए कहेंगे ले लो विवेक एक या दो से कुछ नहीं होगा और अगर गलती से अपना ईमान डोल गया तो बस क्यूबिकल की दूसरी साईड से आवाज आ जायेगी विवेक हाई बी.पी. है क्या कर रहे हो ?सबकी सोची समझी साजिश जैसी लगती है। परंतु क्या करें हम तो बेचारे हो जाते हैं।

    लिखने में ब्रेक हो गया था हमारे पारिवारिक मित्र के यहाँ रात्रिकालीन भोजन पर गये थे जहाँ दबाकर दाल ढ़ोकली और खरबूजे का पना खाया गया। विशेषकर आज बहुत दिनों बाद दो चीजें भोजन में मिली एक तो घी और दूसरी मसाला युक्त भुनी हुई हरी मिर्चें

    फ़िर शाम को ऑफ़िस से निकले तो गेट के बाहर ही कितने ही स्टॉल वाले खड़े रहते हैं, अब नाम हमसे बताया नहीं जायेगा नहीं तो यह पोस्ट पढ़ने के बाद हमारे उपर इल्जाम लगने लग जायेंगे कि खूब ऐश चल रही है और भी बहुत कुछ फ़लाना ढ़िमकाना …। फ़िर भीकाजी फ़ूडजंक्शन पड़ता है और समोसे आलूबड़े और भी गरम व्यंजनों की खुश्बुओं से अप्रभावित हुए बिना हम निकल लेते हैं सिग्नल के पास मूवी टाईम की ओर ऑटो पकड़ने के लिये, परंतु बीच में फ़िर एक सूखी भेलपूरी वाला मिल जाता है तो हम ५ रुपये में एक भेलपूरी ले लेते हैं ये सोचते हुए कि इसमें तो तला गला कुछ है नहीं खाया जा सकता है। कभी कभी उसके आगे भी रुक जाते हैं जहाँ एक पानी बताशे वाला है और इस बात पर तो हमारे एक मित्र ने घर पर शिकायत भी कर दी थी और खूब हंगामा हुआ था, और वह आज भी हमें धमकी दे देता है कि घर पर बोल दूँगा। पर फ़िर भी हम पर कोई असर नहीं है।

    “दाल ढ़ोकलीहमने बहुतायत में खा ली है और हमारा पेटेंट डायलॉग बोल देते हैं कि आज पेट पर अत्याचार कर दिया है, इसलिये यहीं विराम देते हैं। बाकी किसी ओर दिन… जब खाने पर लिखने का मन होगा ।

चैन्नई में भी कम लूट नहीं है.. लुटने वाला मिलना चाहिये..

जैसा कि आमतौर पर सभी शहरों में होती है लूट वैसी ही लूट चैन्नई में भी है, अब अभी समझ नहीं पा रहे हैं कि लूट कम है कि ज्यादा है, हमें तो ये पता है कि लूट, लूट ही होती है, चाहे वह कम हो या ज्यादा।
यहाँ पर ऑटो मीटर से चलाने का रिवाज ही नहीं है, हमें अपने गंतव्य तक जाने के लिये रोज ही मगजमारी करना पड़ती है, रोज इन ऑटो वालों से उलझना पड़ता है, जितनी दूरी का ये लोग यहाँ ८० रुपये मांगते हैं, उतनी दूर मुंबई में मीटर से मात्र १५-१८ रुपये में जाया जा सकता है।
अब और देखते हैं कि कौन कौन लूट मचा रहा है, क्योंकि टैक्सी वालों के भाव भी बहुत ज्यादा हैं, प्रीपैड टैक्सी अगर २८० रुपये लेती है तो बाहर अगर आप टैक्सी से मोलभाव करने जायेंगे तो वो ८५० रुपये से कम में नहीं मानेगा।
चारों तरह लूट मची है, लूट सके तो लूट !!!!

जलती हुई कार पर एक आटोवाले का विश्लेषण !!

कल मतलब कि इस रविवार याने कि २० सितम्बर को हम अपने परिवार के साथ जुहु पटाटी (इसको हम बाद मैं बतायेंगे) गये थे। विले पार्ले से अपने घर ऑटो से आ रहे थे, गोरेगाँव में वेस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे पर जाम लगा हुआ था, ट्राफ़िक सुस्त रफ़्तार से बढ़ रहा था। बस ये पता चल रहा था कि सड़क पर किसी गाड़ी में आग

लगी है।

ऑटोवाला बोला कोई छोटी गाड़ी जल रही है। वो आग को देखकर् अंदाजे से बोला, फ़िर बोला कि अरे ये तो छोटी गाड़ी है बड़ी गाड़ियाँ तक जल जाती हैं। तो हमने पूछ ही लिया कि ऐसे कैसे गाड़ियाँ जल जाती हैं, ऑटोवाला बोला कि कार बहुत लम्बे से चल कर आ रही होगी और बहुत गरम होगी, कार्बोरेटर का पानी खत्म हो गया होगा और वायर पिघल कर चिपकने से शार्ट् सर्किट हो जाने से आग लग जाती है।
कई लोग अपने आप गाड़ी जला देते हैं जो लोन की किश्त नहीं चुका पाते हैं और बीमा कंपनियों से पूरी राशि वसूल लेते हैं, और कई बार सही में जल जाती हैं। इनकी सेटिंग सब जगह रहती है।
इतने में हम जलती हुई कार के करीब से निकले हमने पहली बार कार जलती हुई देखी थी बहुत ही खौफ़नाक मंजर था, कार के चारों दरवाजे खुले हुए थे और हवा के साथ साथ आग का रुख था, चिंगारियों ने आसपास के नजारे को और खौफ़नाक बना दिया था। तमाशबीन अपनी गाड़ियाँ खड़ी करके जलती हुई कार देख रहे थे। हम रुके नहीं वहाँ से आगे चल दिये। पर वह जलती हुई कार का खौफ़नाक मंजर अभी भी भूले नहीं भूलता है, हम अपने मोबाईल से फ़ोटो लेना भूल गये।

बारिश में अपना धंधा बहुत अच्छा चलता है।

रोज ऑफ़िस आना जाना हम ऑटो से करते हैं और ऑटो में बैठते ही अपनी हिन्दी की किताब पढ़ना शुरु कर देते हैं पूरा आधा घंटा मिल जाता है। रोज आधा घंटा या कभी ज्यादा कभी थोड़ा कम समय का सदुपयोग हम हिन्दी साहित्य पढ़ने में व्यतीत करते हैं, शाम को लौटते समय अँधेरा हो जाता है तो शाम का वक्त फ़ोन पर बतियाते हुए अपने रिलेशन मैन्टेन करने मैं व्यतीत करते हैं। इस आधे घंटे में हम शिवाजी सामंत का प्रसिद्ध उपन्यास “मृत्युंजय” पढ़ चुके हैं, जिसके बारे में कभी ओर चर्चा करेंगे। आजकल महाकवि कालिदास का प्रसिद्ध खण्डकाव्य “मेघदूतम” पढ़ रहे हैं।

आज सुबह जब मैं  ऑटो से अपने ऑफ़िस जा रहा था, तो बहुत धुआंधार हवा के साथ बारिश हो रही थी। आटो में दोनों तरफ़ प्लास्टिक का पर्दा गिराने के बाद भी कुछ बूँदे हमें छू ही रही थीं। हम बारिश का मजा ले रहे थे तभी ऑटोवाला बोला कि आप किधर से जायेंगे “मलाड सबवे” से या कांदिवली के नये “फ़्लायओवर” से, हमने कहा कि हमारा रास्ता तो “फ़्लायओवर” वाला ही है क्योंकि यह रास्ता बारिश में सबसे सुरक्षित है, कहीं भी पानी नहीं भरता है। “मलाड सबवे” में तो थोड़ा बारिश होने पर ३-४ फ़ीट पानी भर जाना मामूली बात है।

 

फ़िर ऑटो वाला बोला कि साहब ये बारिश में अपना धंधा बहुत अच्छा चलता है क्योंकि हर आदमी ऑटो में आता जाता है, पैदल चलने वाला भी ऑटो में सवारी करता है। बस की सवारी भी ऑटो में यात्रा करती है  वह भी यह सोचती है कि कहां बस में भीगते हुए जायेंगे। लोकल ट्रेन में पास के स्टेशन पर जाने वाले भी ऑटो में ही यात्रा करते हैं तो कुल मिलाकर यात्री ज्यादा हो जाते हैं और ऑटो कम। अमूमन आधे ऑटो वाले ही बारिश में ऑटो बाहर निकालते हैं क्योंकि बारिश में ऑटो खराब होने का डर ज्यादा रहता है। वह ऑटोवाला शुद्ध हिन्दी भाषा में बात कर रहा था और जौनपुर टच टोन लग रही थी। वैसे यहाँ पर ज्यादातर ऑटो वाले यूपी या बिहार से ही हैं और उनसे ही शुद्ध हिन्दी सुनने को मिलती है, नहीं तो यहां हिन्दी भाषा का विकृत रुप ही बोला जाता है।