हमारा रथ राजाप्रसाद के महाद्वार से भीतर प्रविष्ट हुआ। द्वारपालों ने आदर से झुककर पिताजी को अभिवादन किया। रथ अश्वशाला के पास रुका। सामने ही राजाप्रसाद में जाने के लिये ऊपर चढ़ती हुई असंख्य सीढ़ियाँ थीं| यों ही मेरे मन में आया और मैं उनको गिनने लगा । एक सौ पाँच थीं वे ! एकाध सीढ़ी कहीं छूट तो नहीं गयी, इस सन्देहवश मैं उनको पुन: गिनने लगा। अरे ! पिछली बार जब गिनीं थी, तब एक सौ पाँच थीं । अब एक सौ छ: कैसे हो गयीं ? मैं विचार करने लगा । पर मुझे क्या करना है ! यह सोचता हुआ अपना उत्तरीय सँभालता मैं हस्तिनापुर की उस वैभवशाली और पवित्र भूमि पर पैर रखने ही वाला था कि इतने में ही सात काले घोड़ों का रथ एकदम वायु की गति से, घड़-घड़ की ध्वनि करता हुआ महाद्वार से भीतर प्रविष्ट हुआ। किसी प्रतिहारी ने पुकार लगा दी, “हस्तिनापुराधिपति महाराज धृतराष्ट्रपुत्र युवराज शिरोमणी दुर्योधनऽऽ !” समस्त सेवक और द्वारपाल एकदम सावधान होकर खड़े हो गये। पिताजी ने भी रथ की ओर झुककर अभिवादन किया।
“कहिए चाचाजी, चम्पानगरी से कब आये ?” युवराज ने रथ से उतरते हुए हँसकर पूछा ।
“अभी-अभी ही आया हूँ, युवराज !” पिताजी ने सविनय उत्तर दिया।
मैं रथ से उतरते ही युवराज दुर्योधन को देखने लगा । वह चौदह-पन्द्रह वर्ष का होगा। उसने वीर-भेष धारण कर रखा था। उस वेष में वह विष्णु की तरह सुशोभित हो रहा था। हाथ में गुम्बदवाली गदा के कारण तो वह बहुत ही प्रभावशाली दिखाई पड़ रहा था। एक ही झटके में कीदकर वह नीचे उतर आया और पिताजी के पास आया। उसकी गति ऐसी गर्वीली और मोहक थी, जो अन्यत्र दुर्लभ होती है। उसका प्रत्येक चरण मत्त हाथी के चरण की तरह दृढ़ता से पृथ्वी पर पड़ रहा था। भुजदण्ड पर से बार-बार फ़िसलते उत्तरीय को सँभालते हुए वह अपने हाथों को सगर्व झटके दे रहा था। उसकी कंजी आँखें बड़ी भेदक और पानीदार थीं। नाक भाले के फ़लक की तरह सीधी और पैनी थी। लेकिन न जाने क्यों, उसकी केवल एक बात अच्छी नहीं लगी, वह यह कि सारे संसार को किसी अजगर की तरह अपनी कुण्डली में कस लेने की इच्छा करनेवाली उसकी भौहें बड़ी ही मोटी और कुटिल थीं ।
मेरी ओर देखते हुए उसने पिताजी से पूछा, “चाचाजी ! यह कौन है ?”
“यह मेरा पुत्र कर्ण है, युवराज !” पिताजी ने उत्तर दिया।
“कर्ण ! बहुत अच्छा । लेकिन इसको आज किसलिए लाये हैं ?”
“आपकी राजनगरी दिखाने के लिए ।“
“ठीक है, अमात्य से मिल लीजिए । वे इसको सारा नगर दिखा देंगे ।“