सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ५

    पर्णकुटी में पिताजी के लाये हुए अनेक प्रकार के और अनेक आकारों के धनुष थे। पता नहीं क्यों, लेकिन जब मैंने पहली-पहली बार उनमें से एक धनुष देखा था, और उसके प्रति मुझको जो आकर्षण लगा था, वह अद्भुत था। उसकी कपोत की ग्रीवा की तरह मुड़ी हुई कमान और नखमात्र से छे़ड़ देने पर ही टंकार करनेवाली प्रत्यंचा मुझको बहुत अच्छी लगी थी। पिताजी के हाथ से वह छीनकर उछलते हुए आँगन में घोड़े की पूँछ के बाल से क्रीड़ा करते हुए शोण के पास आया तो वह घोड़े की पूँछ के बाल निकालने में व्यस्त था, ये उसका प्रिय खेल था, मैं उसे बोला कि छोड़ अब इस खेल को, और धनुष दिखाते हुए बोला कि “देख ये है अपना नया खिलौना”।

    उत्सुकता से नाचता हुआ मेरे पास आकर मेरे हाथ से धनुष लेकर बड़ी बड़ी आँखें बनाकर बोलता है “यह तो बड़ा भारी है रे ?”

    और कर्ण के मन में यहीं से धनुर्विद्या के प्रति प्रेम और लगाव हुआ। वह पहले वट वृक्ष पर फ़िर हिलने वाली आम की डालियों के डण्ठल और एक साथ दो बाणों को भिन्न भिन्न लक्ष्यों का वेध करना। कर्ण सीखना चाहता था लक्ष्य को न देखते हुए आवाज की दिशा में बाण चलाना, जैसे साही नामक जन्तु रक्षा के लिये अपनी देह से सौ-दो सौ नलिकाएँ एक साथ छोड़ सकता है, उसी तरह से एक साथ असंख्य बाण छोड़ना सीखना चाहता था।

     कर्ण अकसर अपने कान के मांसल कुंडलों को हाथ लगाकर कुछ महसूस करने की कोशिश करता था। वैसे कुण्डलों के संबंध में कभी भी माँ से कोई भी सन्तोषप्रद उत्तर नहीं मिल सका था। एक बार तो उसने साफ़ साफ़ पूछा था “शोण और मैं – दोनों सगे भाई हैं न, फ़िर उसके क्यों नहीं है कुण्डल ?” भयभीत सी घबराहट में मेरे कुण्डलों की तरफ़ देखती और सचेत होकर कहती “मुझसे मत पूछो यह ! अपने पिताजी से पूछो।“

      मैं (कर्ण) उसी समय पिताजी के पास जाकर वही प्रश्न किया तो उन्होंने बड़ा ही विचित्र उत्तर दिया बोले “गंगामाता से पूछ इसका कारण ! कभी दिया तो इस प्रश्न का उत्तर वही तुझको देगी !” विचारमग्न सा चला गंगामाता भला कैसे उत्तर दे देगी ! क्या नदी कभी बोल सकेगी ? ओह, ये बड़े लोग कैसा व्यवहार करते हैं। छोटों से इस तरह की बातें क्यों करते हैं।

     उसी सायं सबकी दृष्टि से बचकर मैं अकेला ही गंगामाता के तट पर जाकर बैठ गया। उसकी लहर-लहर से मैंने प्रश्न पूछा, परन्तु एक भी लहर मेरे इस प्रश्न का उत्तर न दे सकी। उस दिन मुझको संसार के सभी बड़े लोग कपटी लगे। छोटों को अज्ञान के अन्धकार में रखने का काम वे ही करते हैं, नहीं तो फ़िर इतनी बड़ी गंगामाता चुप क्यों रही ?

      फ़िर वही प्रश्न अगले दिन खेलते समय मैंने शोण से किया, उसके उत्तर को सुनकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह बोला “मैं भी यह बात नहीं जानता हूँ । लेकिन इतना अवश्य है कि तुम्हारे कुण्डल मुझको बहुत ही अच्छे लगते हैं। रात को जब तुम सो जाते हो, ये तारों की तरह अविरत जगमगाते रहते हैं। उनका नीला-सा प्रकाश तुम्हारे लाल गालों पर बिखरा रहता है।“

     मेरे मन में एकदम अनेक प्रश्न उमड़ आये। जो अन्य किसी के पास नहीं थे, ऐसे दो मांसल कुण्डल मेरे कानों में थे। इतना ही नहीं वे चमकते भी थे। मुझको यों ही क्यों मिले ? कौन हूँ मैं ? शोण के दोनों कन्धों को झकझोरते हुए मैंने तड़पकर उससे पूछा, “शोण मैं कौन हूँ ?”

2 thoughts on “सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ५

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *