एन.सी.सी. मे हर वर्ष बटालियन में केम्प लगता था, जिसमें सेना से संबंधित बहुत सारी जानकारियाँ दी जाती, युद्ध क्षैत्र में कैसे दैनिक व्यवहार किया जाता है, फ़ायरिंग करवाई जाती है।
जब कैम्प में जाने की सूचना मिलती तो बड़े जोर शोर से पूरी तैयारी शुरु हो जाती थी, लोहे की पेटी पर रंगरोगन फ़िर अपना नाम और नंबर लिखकर पेटी तैयार करना। बेल्ट, जूते पर पॉलिश करके चमकाना और पीतल के बेज को चमकाना। पूरी आस्तीन के शर्ट और पैंट, जिससे मलेरिया का खतरा न रहे।
ट्रेन से जाना तय होता था, झाबुआ से मेघनगर तक जाने के लिये बस से जाना होता था, उस समय बस का सामान्य किराया ४ रुपये था पर स्टूडेन्ट कन्सॆशन में हमें केवल १ रुपया ही लगता था, अपनी पेटियाँ और बेडिंग बस के ऊपर खुद ही चढ़वानी होती थीं। मेघनगर पहुँचकर वापिस से बस से अपनी पेटियाँ और बेडिंग लेकर फ़िर रेल्वे स्टेशन की ओर प्रस्थान करते थे। लोग हमें घूर घूर कर देखते थे, क्योंकि हम सभी एन.सी.सी. की वर्दी में होते थे, पर हाँ एन.सी.सी. की वर्दी पहनने के बाद खुद को गौरवान्वित महसूस करते थे।
फ़िर इंतजार होता था, देहरादून ट्रेन का जो कि मेघनगर से १० बजे चलती थी और रतलाम लगभग १२ बजे पहुँचती थी, रेल्वे स्टेशन पर बटालियन के ट्रक हमारा इंतजार कर रहे होते थे, फ़िर ट्रक में लदफ़दकर शहर से ८-१० किमी दूर गंगासागर के पास केम्प लगता था।
और दस दिन का कैम्प खत्म करके वापिस घर की ओर लौट पड़ते थे। गोविन्दा की एक फ़िल्म आई थी “शोला और शबनम” जिसमॆं एन.सी.सी. का जीवन काफ़ी हद तक फ़िल्माया गया था, यह फ़िल्म मेरी मन पसंदीदा फ़िल्मों में से एक है आज भी। फ़िल्म के कुछ दृश्य देखिये जिससे एन.सी.सी. के पुराने दिन आज भी याद हो आते हैं –