कॉलेज के दिनों में कुछ ही दोस्तों के पास स्कूटर या मोटर साईकिल हुआ करती थी, जैसे कालिया के पास एल.एम.एल.वेस्पा और अनुराग के पास राजदूत मोटरसाईकिल, अब आजकल ये दोनों ही ब्रांड देखने को क्या सुनने को भी नहीं मिलते हैं।
(चित्र गूगल से लिये गये हैं, आपत्ति हो तो दर्ज करवा दें, हटा लिये जायेंगे, हरी भरी वादियों का चित्र नीरज जाट जी के ब्लॉग से लिया गया है)
कालिया, केटी और मैं वेस्पा पर लदकर अपने शहर से दूर २५ किमी दूर गाँव में अपने दोस्त से मिलने जाते थे, और हरी भरी वादियों में हम दोस्त गाना गाते हुए, वेस्पा लहराते हुए चले जाते थे। कालिया वेस्पा वही ३-४ रुपये लीटर वाले पेट्रोल से फ़ुलटैंक करके आ जाता था और हम तीनों निकल पड़ते थे, सफ़र पर, कभी ऐसे ही लांग ड्राईव पर कभी किसी गांव में, कभी किसी तालाब या नदी के किनारे।
अनुराग की राजदूत बहुत काम की थी, एक तो उस समय राजदूत शान मानी जाती थी, राजदूत की किक ऐसी कि ध्यान से नहीं मारी तो पलट के आती थी और टांग तोड़ देती थी। राजदूत काले और लाल रंग में बहुतायत में पाई जाती थी।
हम अपनी हीरो रेंजर साईकिल पर शान से घूमते थे, उससे पता नहीं कितने किलोमीटर घूम चुके थे, आगे डंडे पर और पीछे कैरियर पर अपने दोस्तों को बैठाकर घूमते थे। जब पापाजी ने बोला था कि देख लो कौन सी साईकिल लेनी है, तब बाजार में हीरो रेंजर बिल्कुल नई आयी थी, जब हमने बताया था तो पापाजी बोले कि एटलस, बीएसए एस.एल.आर या हीरो की साधारण डंडे वाली साईकिल ले लो। परंतु उस समय हीरो रेंजर बिल्कुल ही नया ब्रांड और नया फ़ैशन था तो भला साधारण साईकिल कैसे पसंद होती।
वो मेरे साईकिल वाले दिन और वेस्पा और राजदूत के सपने देखने वाले दिन, कैसे निकल गये, पता ही नहीं चला कि कब ये दिन निकल गये। जब तक मोटर साईकिल के दिन आये तब तक वापिस से साईकिल वाले दिनों के सपने आने लगे, ये सपने भी न बड़े अजीब होते हैं, पता ही नहीं होता है कि कब कौन से सपने देखने चाहिये और कब नहीं।
हकीकत की जिन्दगी जीने वाले कभी सपने नहीं देखते -राजदूत की याद आपने अच्छी दिलाई !
sapane to sapane hote hai
sapne kab apne hote hai
जबरदस्त चल रहा है आपके जिंदगी का सफर…
राजदूत मेरे मामा के पास थी…और लाल रंग वाली…और वेस्पा हमारे घर के बगल में रह रहे मामा के पास थी…दोनों की बहुत सी यादें हैं अपनी…
और हीरो रेंजर साइकिल तो अपने पास ही थी..मेरा सबसे अच्छा दोस्त में से आता था 🙂
हमारे यहां एक काली साइकिल थी जिसका ब्रांड नाम Eastern Star था 🙂
आपने तो बचपन याद दिलवा दिया, पापाजी की काली वाली साईकिल चलाने का मजा ही अलग था। आज स्कूटर चलाने में भी जितना मजा नहीं आता जितना उस साइकिल में आता था।
वैसे देखा जाये तो बच्चों में आज भी साइकिल का उतना ही क्रेज है।
बढ़िया पोस्ट, धन्यवाद।
पिताजी के पास लम्रेटा थी, अभी भी याद आती है।
रेंजर चलाने में बड़ी मुश्किल होती थी उसका हंडल सीधा होता था | पापा की बजाज स्कूटर भी अच्छे से चलाने आता था पर उन्होंने कभी उसे अकेले लेकर जाने नहीं दिया बस जब तक सिखा तब तक ही चला पाई | लगभग डेढ़ दसक के बाद अब फिर किसी से माग कर साइकल चलाई मैंने जब अपनी तीन साल की बेटी को सिखा रही थी की पैडल कैसे घुमाना है | एक बारगी तो डर रही थी की कही भूल तो नहीं गई हु |
मेरे घर में तो दोनो थी .. उस जमाने में वहीं चलता था !!
बहुत बढिया प्रस्तुति।
आंच पर संबंध विस्तर हो गए हैं, “मनोज” पर, अरुण राय की कविता “गीली चीनी” की समीक्षा,…!
बहुत सुंदर यादे, मैजब तक भारत मै रहा बस सपने ही देखता रहा स्कुटर ओर कारो के, ओर इन सपनो के बदले मुझे मिली तो एटलस साईकिल, जिसे खुब चलाया, ओर वो किसी मर्सिडिज से कम नही थी, फ़िर यहां आया ओर वो सब सपने पुरे हुये जो कभी देखे थे, धन्यवाद
बड़ी दूर ले गये आर एम आई साईकिल..मेरी पहली वाली.
वाह!!…..खूब याद दिलाया….घर पर कोई पिताजी से मिलने आया नहीं कि माँग के चले ..एक घट्टा लगाने…और वो भी..आधा पैडल मार के…..इस याद के साथ तो बस अब आह!!
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
हिन्दी का विस्तार-मशीनी अनुवाद प्रक्रिया, राजभाषा हिन्दी पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
यह ऊपर हरे-भरे रास्ते वाला चित्र तो मेरे द्वारा लिया गया है।
http://neerajjaatji.blogspot.com/2009/08/blog-post_24.html
उपरोक्त लिंक पर देखिये।
चित्र लगाने से मुझे कोई आपत्ति नहीं है, बस एक लिंक भर लगा दीजिये, नाम के साथ।
@नीरजजी- बिल्कुल सही, आपने बिल्कुल सही पकड़ा। अगर आपत्ति न हो तो लगा रहने दूँ।
ऐसी यादे बारिश की बौंछारो सी लगती है.. ठंडी ठंडी चेहरे पर गिरती हुई.. क्यों विवेक भाई..?
@ कुश – बिल्कुल तभी तो आजकल यादों को याद किया जा रहा है
खूब याद दिलाया आपने … राजदूत. हमारे चाचा के पास भी थी…….
गाँव से उनके दो दोस्त मिलने आये थे…. सुबह चाचा कह कर गए कि शाम को तुम्हारे साथ चलूँगा….
वो लोग सारा दिन इसी बात पर डिस्कस करते रहे कि ……"हरपाल यार मोटरसाइकिल पे जाड़ा बहुत लगेगा."""""""""
सच्ची, कुछ चीजे कभी नहीं भूलती.
बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
हमारे यहाँ हमेशा से ही राजदूत या येचडी रही कभी काली वाली तो कभी इससे भी बड़ी एक्सेल.. बढ़िया है.. haan meri cycle(A-one ranger) mangaane ka kissa bhi jabardast hai kabhi sunaaunga..
बेटे को ले कर दी थी हीरो रेंजर। कभी मन करता था चलाने का तो बहुत दिक्कत होती थी, सीधे हैण्डल के के कारण
जावा तो कई हजार किलोमीटर दौड़ाई है।
वैसे राजदूत और वेस्पा तो आज भी हमारे शहर में रोजाना दौड़ती देखी जा सकती हैं।
पुरानी जो गाड़ियां चलाई उसमें सबसे ज़्यादा मज़ा तो फैंटाबुलस में आया था। क्या तकनीक थी गज़ब की!
कितनी ही यादें ताज़ा करा गई आपकी यह पोस्ट
mere pas bhi rakha hai ek rajdoot..
meri mjanmbhoomi shri ganganagar me
aapne yad dila di uski….
@प्रवीण जी,
लम्रेटा मेरे नाना चलाते थे और फिर बाद में मामा ने कुछ दिन चलाया, वैसे पुराना वाला लम्रेटा अभी भी नानी घर के गैराज में रखा हुआ है…
क्या मस्त याद दिला दिया आपने
मैने भी रेंजर ली थी . इस शान से चलता था कि आज महंगी कारो मे भी वह मज़ा नही आता . बी .काम तक पहले रेंजर फ़िर बी एस ए स्ट्रीट केट से खूब घुमे . और अब वेस्पा या कहे एल एम एल वेस्पा को ढो रहे है