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इमिग्रेशन, सुरक्षा जाँच और अपने घर के परांठे जेद्दाह यात्रा भाग २ [Security, Immigration and Home made Parathe Jeddah Travel Part 2]

भाग १

शटल से मुंबई के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पहुँच गये, वहाँ कौन से गेट से हमें अंदर जाना है, कोई बताने वाला नहीं था, जब हम गलत गेट पर पहुँच गये तो वहाँ खड़े जवान ने बताया कि आप गलत गेट पर आ गये हैं, आपको तो पहले गेट पर जाना है, हम फ़िर से अपने सही गेट की ओर चल पड़े। बहुत सारे यात्री जो कि मस्कट और दम्माम जा रहे थे, वे भी उसी गेट की ओर चल पड़े क्योंकि वे भी हमारे साथ ही बस से उतरे थे।

मस्कट और दम्माम जाने वाले अधिकतर भारतीय अपनी वेशभूषा से कर्मचारी लग रहे थे, जिससे पता चल रहा था कि ये लोग अपने परिवार के लिये पैसे कमाने के लिये अपना देश छोड़कर दूसरे देश जाने को मजबूर हैं। कई बार न चाहते हुए भी अपने आप की तुलना उनसे कर बैठते थे, हम भी तो यही कर रहे हैं।

गेट पर हमारी सुरक्षा जाँच नहीं की गई केवल बोर्डिंग पास देखा गया, शायद शटल से आने के कारण हमें सुरक्षा जाँच से ढ़ील दे दी गई थी, उसके बाद हम जैसे ही इमारत में प्रविष्ट हुए वहाँ पहला हॉल इमिग्रेशन का था, जहाँ हमें हमारे कागजात अधिकारियों को दिखाने थे और भारत निकास की सील लगाई जाती है, वहाँ निकास पत्र भी भरना होता है जिसमें अपनी तमाम जानकारियाँ देनी पड़्ती हैं।

मुंबई में भी इमिग्रेशन में ज्यादा समय नहीं लगा, साधारणतया: लाईन का खेल होता है, और अधिकारी के ऊपर भी होता है कि उसे कितना तेज काम करना आता है और कितना आलस करना आता है, कुछ अधिकारी बेहद चुस्त होते हैं और फ़टाफ़ट अपनी पैनी निगाहों से सारी जाँच सतर्कता के साथ फ़टाफ़ट पूर्ण कर लेते हैं और कुछ अधिकारी तो कागजात ही पलट कर देखते रहते हैं, ऐसा लगता है कि इनको प्रशिक्षण ही नहीं दिया गया है और फ़िर बाद में यात्री को ही पूछते हैं कि यह कागज कहाँ है, और वह कागज अलग से दिखता रहता है,  बेहतर है कि ऐसे अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाये, इस तरह के कारनामों से भारत का बहुत नाम रोशन होता है ।

इमिग्रेशन अधिकारी हमसे पूछते हैं, अरे आपका तो जन्मस्थान मध्यप्रदेश का है फ़िर आप मुँबई में कैसे, हमने कहा कि हम तो बैंगलोर रहते हैं और जाने की फ़्लाईट वाया मुंबई मिली है, तो कहते हैं अच्छा अच्छा, मतलब जन्म होने के बाद आप बैंगलोर चले गये, मन में आया अब इस बुडबक को क्या कहते कि कब गये और क्यों गये, हमने कहा नहीं जी नौकरी के लिये बैंगलोर में रहते हैं, वे बोले अच्छा अच्छा ! और हमें सुरक्षा जाँच पर जाने के हरी बत्ती दे दी गई, हमें अपने कागजात दे दिये गये और हमने अपने कागजात को जांचा और सुरक्षा जांच के लिये चल दिये।

उसी हाल में सुरक्षा जाँच के लिये थोड़ा लंबा चले तो वहाँ देखा कि बहुत भीड़ लगी हुई है, हम भी वहीं खड़े हो गये, तो एक विशिष्ट लाईन अलग से लगी हुई थी, सुरक्षा कर्मी ने हमें उस लाईन में लगने को कहा और हमने अपना जेब का सारा समान मतलब पर्स, घड़ी, सिक्के, मोबाईल और बेल्ट अपने हैंड बैग में रख दिया और लेपटॉप निकालकर ट्रे में रख दिया, फ़िर कई स्तरीय सुरक्षा जाँचों के मध्य से निकले।

जब अपना लेपटॉप बैग में रखने लगे तभी एक सुरक्षा कर्मी ने हम से एक बैग दिखाते हुए पूछा कि क्या यह बैग आपका है, हमने मना किया तो एक और व्यक्ति ने आकर दावा किया तो उन्हें वह बैग खोलने को कहा गया और उसमें लाईटर था, तो सुरक्षाकर्मी ने उनका लाईटर जब्त किया और एक रजिस्टर में उनका पूरा विवरण नोट कर लिया गया, बहुत आश्चर्य होता है कि अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सुरक्षा जाँच में विवरण नोट करने के लिये आज भी रजिस्टर का उपयोग हो रहा है, क्यों नहीं इन चीजों का डिजिटलाईजेशन किया जा रहा है, जिससे एजेंसियों को जाँच करने में मदद मिलेगी और किसी छेड़ छाड़ की आशंका भी नहीं रहेगी।

सुरक्षा जाँच के बाद हम अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल के गेटों पर आ गये जहाँ कि गेटों की संख्या निर्देशित थी, और यात्री उन निर्देशों को देखकर अपने प्रस्थान द्वार पर जा सकते हैं। हमारे पास काफ़ी समय था, तो हम कस्टम फ़्री एरिया देखने के लिये निकल पड़े, क्योंकि जहाँ से हमारे फ़्लाईट थी वहाँ उस प्रस्थान द्वार के पास बहुत भीड़ थी, पहले हमने अपने घर के पराठे खाये और फ़िर चाय काफ़ी के लिये निकल पड़े। सभी चीजों के भाव देखकर हमें लगने लगा कि हम वाकई अब भारत के बाहर आ गये हैं और अंतर्राष्ट्रीय हो गये हैं, क्योंकि सारे भाव अंतर्राष्ट्रीय बाजार के ही लग रहे थे। फ़िर भी कहीं एक कोने में हमें ठीक ठाक भाव वाली कॉफ़ी मिल गई और हमने वहाँ से कॉफ़ी लेकर आराम से बैठकर पेय का आनंद लिया ।

वहीं पर एक प्रार्थना कक्ष बना हुआ था जिस पर कि सभी धर्मों के निशान बने हुए थे पर वहाँ केवल मुस्लिम धर्मावलम्बी अपनी प्रार्थना अदा कर रहे थे, और कोई दिख भी नहीं रहा था, पर हमें अच्छी बात यह लगी कि यहाँ किसी विशेष धर्म के लिये प्रार्थना कक्ष नहीं बना है, जबकि लगभग सभी जगहों पर हमने देखा है कि विशेष धर्म के निशान के साथ प्रार्थना कक्ष बना है। अंतर्राष्ट्रीय स्थलों पर सर्वधर्म समान समझना चाहिये और सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करना चाहिये।

प्रार्थना कक्ष

प्रार्थना कक्ष

मुंबई हवाई अड्डे पर

दुबई स्थित प्रार्थना कक्षधर्म विशेष प्रार्थना कक्ष

दुबई हवाई अड्डे पर                              सिंगापुर हवाई अड्डे पर

हवाई अड्डे पर इंतजार और शटल जेद्दाह यात्रा भाग १ (Mumbai Airport & Shuttle Jeddah Travel Part 1)

धूम्रपान कक्ष, खालिस उर्दू और विमान दल का देरी से आना जेद्दाह यात्रा भाग ३ (Smoking chamber, Urdu and Late Crew Jeddah Travel Part 3)

इमिग्रेशन, १२० की रफ़्तार, अलग तरह की कारें और रमादान महीना– जेद्दाह यात्रा भाग–४ (Immigration, Speed of 120Km, Different type of Cars and Ramadan Month Jeddah Travel–4)

हवाई अड्डे पर इंतजार और शटल जेद्दाह यात्रा भाग १ (Mumbai Airport & Shuttle Jeddah Travel Part 1)

इस बार की जेद्दाह यात्रा बहुत कुछ यादें और अपनी छापें जीवन में छोड़ गयी, एक अलग ही तरह का अनुभव था जो कि जीवन में पहली बार हुआ। इस बार २० जुलाई को बैंगलोर से दोपहर की जेट की फ़्लाईट थी और वाया मुंबई जेद्दाह जाना था, अच्छी बात यह थी कि मुंबई से सीधी फ़्लाईट थी।
बैंगलोर से मुंबई अंतर्देशीय हवाईयात्रा हुई परंतु चेकइन बैग बैंगलोर में ही जेद्दाह तक के लिये ले लिया गया। बैंगलोर में टर्मिनल पर जाने के लिये दो स्वचलित सीढ़ियाँ हैं जिसमें सीधी तरफ़ वाली सीढ़ी जो कि अधिकतर अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों के यात्रियों द्वारा उपयोग में लायी जाती हैं, वही पास ही सऊदी एयर लाईन्स का काऊँटर है, जिनकी सीधी उड़ान जेद्दाह वाया रियाद है। वहाँ बहुत सारे मुस्लिम धर्मावलम्बी जो कि उमराह पर मक्का और मदीना जा रहे थे, लाईन में खड़े थे और सब के सब सफ़ेद कपड़ों में थे। ऊपर जहाँ से टर्मिनल के लिये रास्ता है वहाँ स्थित शौचालय में यही लोग नहा रहे थे और पूरा शौचालय इस तरह बन पड़ा था कि जैसे यह एयरपोर्ट का नहीं कोई आम शौचालय हो।
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अंतर्देशीय हवाईअड्डे से शटल में जाते हुए कुछ फ़ोटो
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बरबस ही मुंबई में ऑटो पर नजर गई तो फ़ोटो खींचने का लोभ संवरण ना कर सके।
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विरार से अलीबाग की टैक्सी और नवनिर्माणाधीन पुल (कुबरी)
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ये वही कॉफ़ी शाप है जहाँ इमिग्रेशन के बाद सबसे सस्ती कॉफ़ी मिली थी, और आराम करता हुआ एक विमान।
मुंबई समय से पहुँच गये और खराब बात यह थी कि जेट कनेक्ट की फ़्लाईट में खाना पीना फ़्री नहीं मिलता है, जबकि जेट एयरवेज की फ़्लाईट में खाना फ़्री होता है। दोपहर हो चली थी, खाना सुबह १० बजे घर से ही खाकर चले थे, साथ ही दूध में मले आटे के परांठे बँधवा लिये थे, जिससे अगर आगे भूख लगे तो उसे इन परांठे से शांत किया जा सकता है। मुंबई जाते समय फ़्लाईट में सॉफ़्टड्रिंक और सैंडविच खाया जिसके भाव आसमान के माफ़िक ही थे। परांठे इसलिये रख लिये गये थे कि अगर खाना न खाते बना तो परांठे खाने का आखिरी रास्ता होंगे।
मुंबई से अगली फ़्लाईट लगभग ५ घंटे बाद का था, अब हमें अंतर्देशीय से अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर जाना था। अंतर्देशीय हवाईअड्डे पर उतरने के बाद हम सबसे पहले शौचालय के लिये चल दिये, वहाँ देखा कि सफ़ाई का नामोनिशान नहीं था, कम से कम मुंबई के स्तर का तो नहीं था, लगता है कि हवाईअड्डे केवल शुल्क लेते हैं और बेहतर व्यवस्था के नाम पर अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लेते हैं।
वहीं कन्वेयर बेल्ट पर लोगों के समान घूम रहे थे और उसी हाल के बीचों बीच में एक पिलर के पास अंतर्देशीय से अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे जाने के लिये शटल सेवा के लिये बोर्डिंग पास देखकर शटल के पास दिये जा रहे थे । जिसपर ON PRIORITY लिखा था और वहीं टीवी पर शटल का समय देखा तो पता चला कि अब अगली शटल आधे घंटे बाद है और यात्रियों की लाईन इतनी लंबी थी, कि हमने कई बार सोचा क्यों ना बाहर से टैक्सी करके चला जाया जाये। लोगों को वहीं खड़ा इंतजार करते हुए देख रहे थे, और लोग अपने पास पासपोर्ट और बोर्डिंग पास को बार बार चेक कर रहे हैं।
खैर ठीक ३० मिनिट से १० मिनिट पहले शटल आ गई, अच्छी खासी ए.सी. वोल्वो बस थी, शटल से बड़ी इज्जत के साथ अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर अंदर से ही ले जाया गया, जिसमें कि पास ही झुग्गी झोपड़ियों के लिये प्रसिद्ध धारावी दीवार से ही लगी थी, धारावी और अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के बीच केवल फ़ेंसिंग थी, शायद उसमें करंट दौड़ रहा हो। अंतर्राष्ट्रीय मानकों के हिसाब से यह बिल्कुल भी मान्य नहीं होगा।

लड़कियों वाली कटिंग की दुकान

आज बहुत दिनों बाद हैयर सैलून याने की नाई की दुकान में गये। बाल बहुत बढ़ गये थे, तो सोचा कि चलो आज कैंची चलवा ली जाये।

बचपन से ही नाई की दुकान पर जाते थे, उस समय जो स्टाईल हमारे पिताजी कह देते थे बन जाती थी। फ़िर बाद में जब थोड़ी समझ आ गई तो अपने हिसाब से कटिंग करवाते थे। फ़िर एनसीसी में रहे तो बस सैनिक कटिंग इतनी अच्छी लगी कि उसके बाद तो वहीं स्टाईल रखने लगे।

अब यहाँ दक्षिण में आये तो यहाँ के नाईयों की कटिंग ही समझ नहीं आई, धीरे धीरे उन्हें समझाना पड़ा कि कैसी कटिंग चाहिये, अब भी उन्हें समझाना पड़ता है। हमारे बेटेलाल हमें बोले कि हमें तो नुन्गे स्टाईल करवानी है। हम बोले कि ऐसी कोई स्टाईल नहीं है तो जवाब मिला अरे आप चलो तो सही नुन्गे स्टाईल करवायेंगे। जब नाई की दुकान पर पहुँचे तो उसने झट से नुन्गे कट बना दी, जो कि सैनिक कटिंग की मिलती जुलती स्टाईल थी। यहाँ कन्नड़ में छोटे बालों को नुन्गे कहा जाता है।

बाल कटवाने की समस्या मुंबई में ज्यादा नहीं झेलना पड़ी थी, क्योंकि वहाँ अधिकतर उत्तर भारतीयों की ही नाई की दुकानें हैं, जो अपनी भाषा समझते हैं और एक से एक बाल काटने के कारीगर हैं।

बीच में जब हम गंजे रहने लगे थे, तो हर पंद्रह दिन में सिरे का शेव करवाने जाना पड़ता था, नाई पहले सिर पर शेविंग स्प्रे करता फ़िर हाथ से पूरे सिर पर फ़ैलाता और फ़िर उस्तरे से गंजी कर देता, गंजी करने का काम भी बहुत सावधानी का होता है। पर हाँ बाल कटावाने से कम समय लगता था।

पहले उस्तरे धार करने वाले होते थे, हर शेविंग के बाद धार लगाते थे। परंतु उस्तरे के अपराध जगत में बढ़ते उपयोग के मद्देनजर कानून ने उस पर लगाम कस दी और ब्लेड वाले उस्तरे चलन में आ गये।

बाल काटने के भी विशेषज्ञ कारीगर होते हैं, जब उज्जैन में थे तो एक नाई था जो कि बारीक बाल काटने में माहिर था और उसके हाथ में बहुत सफ़ाई थी, उसके हाथ से बाल कटवाने के लिये उस समय उस दुकान पर लाईन लगा करती थी।

हमारे एक मित्र हैं जो घर पर ही बाल काट लेते हैं, हमने भी कोशिश करने की सोची परंतु हिम्मत ही नहीं पड़ी और आज भी दुकान पर नाई की सेवाएँ लेते हैं।

खैर अब तो बाल काटने का धंधा भी चोखा है, इसमें भी काफ़ी नामी गिरामी ब्रांड आ गये हैं, पहले तो सड़क पर ही नाई दुकान लगाते थे फ़िर धीरे धीरे दुकानें आ गईं और अब वातानुकुलित दुकानें हैं, जहाँ लड़कियाँ नाईयों की दुकान चला रही हैं, और ये लड़कियों वाली कटिंग की दुकान कहलाती है।

दलालों का शहर मुंबई (City of Brokers, Mumbai)

मुंबई छोड़े अब १ साल से अधिक हो गया है कुछ बातों में मुंबई की बहुत याद आती है और कुछ बातों से मुंबई से कोफ़्त भी होती है, जैसे कि दलालों का शहर मुंबई है। मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है और रियल इस्टेट में हर जगह ब्रोकर याने कि दलालों का बोलबाला है। आजकल क्या मैं तो बरसों से मुंबई में देख रहा हूँ मुंबई में दल्लों का धंधा चोखा है।
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आपको फ़्लेट किराये पर लेना हो या खरीदना हो हरेक जगह ब्रोकरों का राज है। मुझे अच्छे से याद है जब मैंने मुंबई आखिरी बार फ़्लेट किराये पर लिया था तब तक ब्रोकर लोग किरायेदार से एक महीने का किराया ब्रोकर के रूप में लेते थे और ११ महीने का कान्ट्रेक्ट होता है। ११ महीने बाद अगर उसी फ़्लेट को रिनिवल करवाना है तो उसके लिये भी एक महीने का किराया ब्रोकरेज के रूप में देना पड़ता था।
आज ही छोटे भाई से बात हो रही थी तो पता चला कि अब ब्रोकरेज याने कि दलाली फ़्लेट लेने के लिये दो महीने की लेने लगे हैं और रिनिवल पर एक महीने का किराया ब्रोकरेज के रूप में लिया जा रहा है। वहाँ मुंबई में आम आदमी तो कमाने के लिये गया है और ये ब्रोकर बैठे हैं लूटने के लिये। प्रशासन भी आँख मूँदे पड़ा है। बेचारा बाहर का आदमी आयेगा तो उसे तो परिवार के रहने के लिये घर चाहिये ही, और सब अपने परिवार को अच्छी जगह पर रखना चाहते हैं, तो मजबूरी में ब्रोकरेज भी देते हैं।
अगर बात अब आंकड़ों में की जाये, १ बीएचके याने कि लगभग ४६५ स्क्वेयर फ़ीट का फ़्लेट का किराया कांदिवली पूर्व में लगभग १८,००० से २१,००० रूपये है, अब किरायेदार को ब्रोकरेज के तौर पर कम से कम ३६,००० रूपया तो ब्रोकर को ही देना है और यह एग्रीमेंट मकान मालिक के साथ ११ महीने का होता है, और एग्रीमेंट रजिस्टर्ड होता है, उस रजिस्ट्रेशन का खर्च आधा आधा मकान मालिक और किरायेदार को वहन करना होता है जो कि ब्रोकर लगभग ७,००० रूपया लेते हैं। तो आधा हो गया ३,५००। ११ महीने के बाद फ़िर से बड़े किराये के साथ ब्रोकर का ब्रोकरेज भी बढ़ जाता है।
और ब्रोकर तो मुंबई में कुकुरमुत्ते की तरह हैं, हर गली हर चौराहों पर ब्रोकर मिलेंगे, ये ब्रोकर हरेक तरह का सहारा लेते हैं और गुंडई करने से भी बाज नहीं आते।
हमने अनुमान लगाया था कि अगर ब्रोकर के पास कम से कम ऐसे १०० ग्राहक भी हैं तो उसकी वर्ष भर की कमाई कम से कम १८ लाख रूपये है, और अधिक तो अब क्या बतायें ये तो आप खुद अनुमान लगा लें।
पता नहीं कब सरकार चेतेगी और आम आदमी को मुंबई से ब्रोकर से मुक्ति मिलेगी। वैसे अब बैंगलोर में भी ब्रोकरों का धंधा काफ़ी अच्छा हो चला है, धीरे धीरे मुंबई की बयार यहाँ पर भी बह रही है। इसलिये हम तो ब्रोकरों का शहर कहते हैं मुंबई को।
ऐसे बहुत ही कम मकान मालिक हैं जो कि अपने फ़्लेट बिना किसी ब्रोकर की सहायता के देते हैं, ऐसे फ़्लेट सुलेखा.कॉम, मैजिकब्रिक्स.कॉम, ९९एकर्स.कॉम और ओएलएक़्स.इन पर ढूँढे जा सकते हैं, अगर किस्मत अच्छी हुई तो जिस समय आप फ़्लेट ढूँढ़ रहे हैं उस समय आपको कोई फ़्लेट इन वेबसाईट पर मिल जाये और आप अपनी गाढ़ी कमाई का कुछ हिस्सा बचा सकें।

त्यौहार पर सीधे पहली गाड़ी पकड़कर अपने घर अपने जड़ की तरफ़ भागते हैं, अब आप कैसे समझोगे युवराज !

विकास नहीं होगा तो युवराज बाहर जाकर मजदूरी भी करनी पड़ेगी और भीख भी मांगना पड़ेगी। सभी युवराज आप जैसे सुनहरी किस्मत लेकर पैदा नहीं हुए हैं, अगर युवराज आपने कभी भूख और गरीबी को झेला होता तो शायद यह आप तो कभी नहीं कहते। आप और आपकी संपत्ति ५ वर्ष में २०० से १००० गुना तक बढ़ जाती है परंतु उनके ऊपर कोई आयकर जाँच नहीं होती है और एक व्यापारी जो कि अपनी मेहनत से काम करता है और किसी को घूस देने को मना कर देता है तो झट से सारी सरकारी मशीनरी उसके पीछे पड़े जाती है।

आपके मुँह से विकास की बातें अच्छी नहीं लगतीं, आप पहले कांग्रेस की भारत में उपलब्धियाँ गिनायें कि भारत देश को आगे विकास की राह पर ले जाने के लिये क्या क्या किया, चलो किया भी तो भी गिनायें, जनता को समझ तो आना चाहिये कि क्या क्या कर सकते थे और कितना किया । और अभी भी केवल विकास की भाषा बोल रहे हैं, नहीं युवराज अब ऐसी भाषा से जनता बहकने वाली नहीं है। ऐसी पार्टी से कैसे भारत देश के विकास की उम्मीद की जा सकती है जिनकी सरकार के दर्जन भर मंत्री जेल में हों और बहुत सारे दागी मंत्री हों। खुद केंद्रीय मंत्री आंदोलनकारियों को लात घूसे चलायें तो अब क्या बतायें।

आप बताओ विकास कैसे करोगे, जैसे कोई निजी कंपनी जब अपना उत्पाद किसी को बेचने जाती है तो उसके फ़ायदे बताती है, उस उत्पाद से कंपनी को फ़ायदा होगा तभी ना कंपनी खरीदेगी, जैसे सरकार, जब कोई भी चीज खरीदती है तो पूछा जाता है कि आपने कहाँ कहाँ उत्पाद बेचा है और उन लोगों को कितनी सुविधा हुई, उत्पाद कैसा चल रहा है । आपको समझना पड़ेगा कि जनता अब बेवकूफ़ नहीं रह गई है, जनता के पास सूचना है कि कब कहाँ क्या क्या हुआ और क्या क्या हो रहा है।

विकास के रास्ते पर देश को प्रदेश को कैसे ले जाओगे, उसका मास्टर प्लॉन बताओ तभी युवाओं और जनता की समझ में आयेगा। जब खुद दागी लोगों को आप टिकट देते हो, दागी मंत्री होते हैं, दागी मोटर पर घूम लेते हैं, तब प्रदेश में माफ़िया राज कहना कुछ ठीक नहीं लगता।

जो लोग घर से दूर पड़ें मजदूरी और नौकरी कर रहे हैं, उनके और उनके परिवार के दिल से पूछो कि क्या वे दूसरे प्रदेश में सुखी हैं, नहीं अलबत्ता लगभग सबका जबाब होगा कि अगर हमारे यहाँ भी घर में प्रदेश में अवसर होता तो बाहर तो नहीं आते, चाहे दो पैसे कम कमाते और दो पैसे कम बचाते।  किसी को भी घर के बाहर रहना अच्छा नहीं लगता अब आप को क्या पता युवराज जब ये सब आपके ऊपर बीतती तो आपको पता लगता। और वैसे भी भारत में कोई भी कहीं भी जाकर रह सकता है और कमा सकता है इसलिये यह बात बेमानी सी है कि आप केवल इतना कहकर मतदाता को बहका रहे हैं। और खुद पार्टी को हाशिये पर ले जाने की तैयारी कर चुके हैं।

बाहर जो भी रह रहे हैं पढ़े लिखे या अनपढ़ जो नौकरी कर रहे हैं या मजदूरी कर रहे हैं, पता है बाहर केवल पैसा कमाने आये हैं, त्यौहार पर सीधे पहली गाड़ी पकड़कर अपने घर अपने जड़ की तरफ़ भागते हैं, अगर यहीं रहना होता तो घर की तरफ़ नहीं जाते।

अब बात करें महाराष्ट्र की तो अगर मुंबई में बाहर का आदमी नहीं होगा तो मुंबई के चक्के थम जायेंगे, फ़ल फ़ूल और सब्जियाँ तो मिलनी ही बंद हो जायेगी, क्योंकि वहाँ ये सब काम तो अधिकतर बाहर वाले ही कर रहे हैं। ऑटो जो कि मुंबई के  परिवहन के मुख्य साधनों में से एक है बंद हो जायेंगे। दर्जी नहीं मिलते मुंबई में, दर्जी भी थोड़ी अच्छी कमाई के लिये मुंबई आते हैं, मैंने अपनी ऑखों से देखा है, दर्जी अपनी मशीन दुकान के बाहर लगाता है और रात को वहीं उसी मशीन के पास अपनी चादर बिछाकर सो जाता है, रहने के लिये कोई जगह नहीं लेता है क्योंकि उसमें भी पैसे खर्च होते हैं, और वह पैसे बचाकर अपने परिवार को भेजता है। नाई, नाई भी अधिकतर वहीं से हैं जहाँ से आप बोल रहे हो, परंतु क्या करेंगे वे भी घर पर कमाई १ हजार भी नहीं हो पाती और मुंबई में कम से कम १०-१२ हजार कमा लेते हैं, दुकान में ही सो जाते हैं, सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करते हैं, और पैसे बचाकर घर पर भेजते हैं, क्योंकि घर पर बुजुर्ग हैं जिन्हें दवा की जरूरत है छोटे भाई बहन हैं जिनको आगे पढ़ना है, घर में काम करवाना है, कम से कम अपने परिवार को सहारा तो देते हैं।

अगर आपने युवराज यह सब चीजें बहुत करीब से देखी होतीं तो शायद आपको पता होता कि विकास का क्या महत्व है। आपको वोट देने में कोई बुराई नहीं है परंतु विकास की राह तो बताईये कि हाँ हम गाँव और शहरों में कैसे विकास लायेंगे हमे दागी लोगों को टिकट नहीं देंगे, सरकारी मशीनरी की मदद से लोगों को स्वरोजगार में मदद करेंगे। केवल विकास की बातों से कुछ नहीं होगा।

यह दर्द है ऐसे ही एक दुखहारे का जिसके प्रदेश में कांग्रेस ने लगभग ४५-५० वर्ष शासन किया परंतु वहाँ प्रगति के नाम पर कुछ नहीं हुआ, और कुछ अपना करने की कोशिश भी की तो सरकारी तंत्र से कोई सहायता नहीं मिली और मजबूरी में बाहर नौकरी कर रहा है, नौकरी याने कि जो किसी का नौकर है, तो जब मालिक अपनी पर आता है तो वह बेचारा मजदूर बन जाता है। अगर उस प्रदेश में विकास के लिये कुछ महत्वपूर्ण काम किये गये होते तो वह दुखहारा भी अपने घर अपने प्रदेश अपनी माटी से उतना ही प्यार करता है जितना आप युवराज आप वोट से करते हो।

देखो ऑटो में जवानी उछल रही है

    रोज रात्रि भोजन के पश्चात अपनी घरवाली के साथ एकाध घंटा घूम लेते हैं, जिससे बहुत सारी बातें भी हो जाती हैं, और पान खाना भी हो जाता है।

    वैसे तो यहाँ बैंगलोर में हमने जितने जवान लोग भारत के हरेक हिस्से से आये हुए देखे हैं, उतने शायद ही किसी और शहर में होंगे, क्योंकि बैंगलोर आई.टी. हब है। पर यहाँ लोगों को (जवान लोगों)  अपनी मर्यादा में ही देखा था, परंतु आज जब हम मैन आई.टी.पी.एल. (ITPL is a IT Park in Bangalore) रोड होते हुए घर की ओर जा रहे थे, तो अचानक एक ऑटो पर नजर पड़ गयी, उस ऑटो में एक जवान जोड़ा बैठा हुआ था और अचानक बात करते करते लड़की लड़के के सीने से चिपट गई। और हमारे मुंह से निकल गया “देखो ऑटो में जवानी उछल रही है”।

    बैंगलोर में यह हमारे लिये नया सा है, क्योंकि यहाँ का वातावरण उतना स्वच्छंद नहीं है जितना कि मुंबई का। मुंबई में तो दो जवान दिलों का मिलन कहीं भी हो जाता है, और ऑटो में तो ये समझ लीजिये कि बस यही होता है, अगर जवान जोड़ा है तो, वहाँ यह सब साधारण सा लगता था, परंतु जब यहाँ आये तो थोड़ा कसा हुआ वातावरण पाया, इसलिये आज थोड़ा ठीक नहीं लगा। इसका कारण यह भी हो सकता है कि कभी हमें यह मौका नहीं मिला।

    मुंबई में तो ऑटो वाले खुद ही कई बार चिल्लाकर ऐसी सवारियों को दूर कर देते हैं, परंतु जवान दिलों को कोई रोक सका है ?

बेचारे बैंगलोर के मच्छर भी ना अपना मच्छरपना नहीं कर पा रहे हैं… और मुंबई के मच्छर उस्ताद हैं (Bangalor & Mumbai Mosquitoes)

    जब से बैंगलोर आये हैं, पता नहीं क्यों मुंबई से तुलना की आदत लग गई है, हरेक चीज में। खैर यह तो मानवीय स्वभाव है, हमें जहाँ रहने की आदत हो जाती है और जब नई जगह जाना पड़ता है तो उस माहौल में ढ़लने वाला जो समय है वह तुलना में ही निकलता है। यह चीज वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने पर भी होती है 🙂 यकीन नहीं होता तो किसी नये नवेले युगल दंपत्ति से पूछ कर देखें। और यह वस्तुस्थिती शादी के ४-५ वर्ष के बाद भी उत्पन्न होती है फ़िर तो दंपत्ति को आदत पड़ जाती है।

    जी तो आज तुलना है मच्छरों की, जी हाँ बैंगलोर के मच्छरों की। मुंबई के मच्छर इतने चालाक हैं, जैसे उनमें भी मुंबई की भाईगिरी के गुण आ गये हों।

    मच्छरों को मारने के उपाय भी बहुत सारे हैं, और हमने सभी अपनाये भी हैं पर साथ ही मुंबई के मच्छरों की चालाकी और धूर्तता भी देखियेगा और बेचारे बैंगलोर के मच्छरों का सीधापन..

१. अब हम तो मच्छर मारने के लिये इलेक्ट्रानिक रेकेट का उपयोग करते हैं।

मुंबई में जब सोने से पहले रेकेट लेकर निकलते थे, (अरे घर में, पूरी सोसायटी में नहीं) तो मच्छरों को या तो गंध लग जाती थी या उन्होंने अपनी आँखों में बढ़िया से लैंस लगवा लिये थे, जैसे ही रेकेट लेकर जाते मच्छर अपनी मच्छरी दिखा जाते और फ़टाक से उडकर छत पर बैठ जाते या फ़िर बिल्कुल छ्त और दीवार के कोने में बैठ जाते और हमें ऐसा लगता कि चिढ़ाते हुए कहते कि आ बेटा अब कैसे भुनेगा हमें, हम भी कभी बिस्तर पर खड़े होकर तो कभी स्टूल पर खड़े होकर तो कभी खिड़की पर खड़े होकर मारने की कोशिश करते पर ये मच्छर उसके पहले ही उड़ी मार जाते। हम मन मसोस कर रह जाते और फ़िर खिड़की खोलकर मारने की कोशिश करते तो बाहर उड़ी मार जाते और खिड़की के बाहर आँखों के सामने स्थिर उडकर हमें हमारे मुँह पर चिढ़ाते। और अगर किसी उड़ते हुए मच्छर को रेकेट से मारने की कोशिश करो तो वह क्या गजब की पलटी मारकर भाग लेता है।

बैंगलोर में बेचारे मच्छर बहुत आलसी हैं, जहाँ बैठे हैं वहीं बैठे रहेंगे, चालाकी और मच्छरी भाव यहाँ के मच्छरों में है ही नहीं। हम रेकेट लेकर घर में निकलते हैं तो बेचारे चुपचाप रेकेट में भुन जाते हैं, अगर कोई उड़ भी रहा है तो सीधा रेकेट में ही घुस लेता है। दीवार पर बैठा है तो यूँ नहीं कि थोड़ा ऊपर बैठे या छत पर बैठे, सीधा सादा सामने ही दीवार पर बैठ जायेगा और अपन भी बहुत ही इत्मिनान से रेकेट से निपटा देते हैं।

रेकेट उपयोग करने का फ़ायदा – सबसे बड़ा फ़ायदा कि हर दीवार या अलमारी पर खून के दाग या मच्छरों के दाग नहीं पड़े होते हैं, आप बैठे हुए आलस करते हुए, कविता करते हुए मच्छरों को और उड़ते हुए कानों में गुन गुन करते हुए मच्छरों को बहुत ही अच्छे तरीके से रेकेट से निपटा सकते हैं, पहले थोड़ी सी प्रेक्टिस की जरुरत होती है, पर जल्दी ही मच्छर अच्छे से प्रेक्टिस करवा देते हैं।

२. ऑल आऊट, गुडनाईट और भी पता नहीं कितने लिक्विड आते हैं, मच्छरों को मारने के लिये पर मुंबई में मच्छरों का जैसे इन सभी कंपनियों के साथ समझौता था और जो भी ये कंपनियों वाले इन लिक्विड में डालते थे तो मच्छरों को उसकी रेसेपी साझा कर देते होंगे जिससे मच्छर पहले ही इनके खिलाफ़ तैयार हो जाये। वैसे बैंगलोर के मच्छर भी कुछ ही ऐसे हैं, वरना तो अधिकतर तो इन लिक्विड के सामने टिक ही नहीं पाते, मच्छरों को सेटिंग करना अपने मुख्यमंत्री से सीख लेना चाहिये। यही हालात वो क्वाईल के साथ भी है।

३. हाथ से ताली बजाकर या मुठ्ठी बंद्कर कर मच्छर मारना – मुंबई में तो  ताली बजाकर मच्छर मारना लगभग नामुमकिन ही था और अगर कोई कोशिश भी करेगा तो ये मच्छर उस बेचारे को ताली पीटने वाला बनाकर छोड़ते हैं, और फ़िर भी मरते नहीं हैं, मुठ्ठी की तो बात ही छोड़ दीजिये, और साथ ही “साला एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है” इस गाने का टेप लेकर चलते हैं।  जो मच्छर अपनी मच्छरी से ताली से नहीं मरता वो मुठ्ठी बंद करने से क्या मरेगा। और इधर बैंगलोर में एक मच्छर एक ताली या एक मुठ्ठी, बस मच्छर खत्म। क्या आलसी मच्छर हैं यहाँ के उड़ते भी ऐसे हैं जैसे अपने पर एहसान कर रहे हों, इतनी आसानी से मार सकते हैं कि देखने की बात है।

तो कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि मुंबई के मच्छरों को बैंगलोर में ट्रैंनिग देने की जरुरत है और अच्छे रोजगार की संभावना भी है, साथ ही अच्छा खून भी उपलब्ध है, चूँकि बैंगलोर के मच्छर अपने मच्छरपना कर पाने में अभ्यस्त नहीं हैं तो उनके लिये हर तरह की वैरायटी का स्वच्छ खून उपलब्ध है। आईये मुंबई के मच्छरों आपका स्वागत करने के लिये बैंगलोर के मच्छर राह तक रहे हैं ।

कुछ पल मूँगफ़ली के दाने, भेलपुरी और बस का सफ़र, मुंबई और बैंगलोर

    ऑफ़िस से पैदल ही बाहर निकल पड़ा था, आज अकेला ही था, कोई साथ न था, या तो पहले निकल गये थे या फ़िर रुके हुए थे, मैं ही थोड़ा समय के बीच से निकल गया था। पता नहीं इन कांक्रीट के जंगलों में सोचता हुआ चला जा रहा था। आज तो वो मूँगफ़ली वाला ठेला भी नहीं था, जिससे अक्सर मैं पाँच रुपये के मूँगफ़ली के दाने बोले तो टाईमपास लेता था, पाँच रुपये में ४-५ कुप्पी, उसका भी अपना नापने का अलग ही पैमाना है, बिल्कुल फ़ुल बोतल के ढ्क्कन के साईज की कुप्पी है उसकी। अपनी पुरानी आदत जो पिछले ५-६ साल से मुंबई में लग गयी है, चलते हुए ही खा लेना।

    यहाँ तो सब ऐसे घूर घूर कर देखते हैं, कि जैसे चलते चलते खाकर गुनाह कर रहे हों, या फ़िर जैसे मैं उनका अनुशासन तोड़ रहा हूँ। पर अपन भी बिना किसी की परवाह किये अपने नमकीन वाले मूँगफ़ली के दाने टूँगते हुए अपने बस स्टॉप की ओर बड़ते जाते हैं।

     अब मूँगफ़ली वाला नहीं था और भूख भी लग रही थी थोड़ी कुनमुनी सी, जिसमें केवल टूँगने के लिये कुछ चाहिये होता है, वहीं बस स्टॉप के पास के भेलपुरी वाले को देखा था, देखा था क्या रोज ही देखते हैं, सोचा कि चलो आज इसको भी निपटा लिया जाये।

    १५-२० मिनिट चलने के बाद पहुँच लिये उसके पास, टमाटर काट रहा था, वो भी धीरे धीरे, उसको देखकर ही लगगया कि ये व्यक्ति यहीं का है, अगर मुंबई का भेलपुरी वाला होता तो पूछिये ही मत उनकी प्याज, आलू और टमाटर काटने की रफ़्तार देखते ही बनती है, वह भी चाकू से नहीं, एक पत्ती जैसी चीज होती है जिस पर उनका हाथ बैठ चुका होता है।

    सोचा कि चलो काटने दो, अब इसको क्या बोलें। सब समान भेलपुरी का एक स्टील के भगौने में चमचे से मिलाया और कागज की पुंगी बनाकर उसमें दे दिया और साथ ही एक प्लास्टिक का चम्मच, हमने कहा कि भई अपने को तो पपड़ी चाहिये, और पपड़ी लेकर चल पड़े बस स्टॉप की ओर।

    हालांकि भेलपुरी मुंबई की ही फ़ेमस है, परंतु अब तो हर जगह होड़ लगी है, एक दूसरे के पकवान बनाने की, जबकि मुंबई और बैंगलोर में जमीन आसमान का फ़र्क है, यहाँ मिनिटों में लेट होने पर कुछ नहीं होता, पर वहाँ मुंबई मिनिट मिनिट का हिसाब रखती है।

    वहाँ बस स्टॉप पर खड़े होकर बस का इंतजार भी कर रहे थे और साथ में भेलपुरी खाते भी जा रहे थे, तो लोग फ़िर घूर घूर कर देखना शुरु कर दिये जैसे कि मैं कोई एलियन हूँ। बस आई और हम भेलपुरी खाते हुए बस में चढ़ लिये, कंडक्टर टिकट देने आया तो उसके मनोभावों से लग रहा था कि अभी बोलेगा कि बस में भेलपुरी खाना मना है, परंतु वह चुपचाप टिकट देकर और अनखने से निकल लिया, अब बारी आई आसपास वालों की, तो शाम का समय रहता है, सबको हल्की भूख तो लगती ही है, मुंह में पानी भी आ रहा होगा पर करें क्या मांग तो सकते नहीं ना…! 😉  हम चटकार लेकर भेलपुरी खतम किये और वो कागज की पुंगी बेग के साईड जेब में डाली और बोतल निकाल कर पानी पीकर एक अच्छी सी डकार ली।

हालांकि सबके चेहरे अतृप्त लग रहे थे, पर मैं पूर्ण तृप्त था।

बैंगलोर में ४ ब्लॉगरों और एक पाठक का मिलन (4 Blogger’s and 1 Blog Reader Meet at Bangalore)

आज की ताजा खबर बैंगलोर में ४ ब्लॉगर्स और एक पाठक का मिलन हुआ ।

४ ब्लॉगर थे –

देव कुमार झा

मनीषा जी

विवेक रस्तोगी

हर्ष रस्तोगी

१ पाठक – हमारी धर्मपत्नी वाणी

बहुत सारे ज्वलंत मुद्दों पर बातें हुईं, और सौहार्दपूर्ण तरीके से बैंगलोर में ब्लॉगर मिलन संपन्न हुआ।

ज्वलंत मुद्दों में शामिल थे –

भाजपा द्वारा कर्नाटक बंद और आम जनता की तकलीफ़

भ्रष्टाचार

मुंबई

उड़नतश्तरी समीर लाल जी की कृति – “देख लूँ तो चलूँ”

दक्षिण भारत में हिन्दी

ए.टी.एम. से पैसे निकालने में हुई गड़बड़ी

ब्लॉग वार्ता

जिन ब्लॉगर्स का जिक्र हुआ इस छोटे से मिलन में वे हैं –

उड़नतश्तरी समीर लाल जी, घुघुती बासुती जी, प्रवीण पाण्डे जी, प्रशांत प्रियदर्शी जी PD, अभिषेक कुमार।

फ़ोटो कल देवकुमार झा जी द्वारा प्रकाशित किया जायेगा तब इस पोस्ट में भी लगा देंगे 🙂

बैंगलोर का भारी पानी और बिना मतलब का एक्वागार्ड (Hard Water and Aquaguard Fail…)

बैंगलोर में आकर बहुत सारा सामान्य ज्ञान बढ़ा, जिसमें से एक है हार्ड वाटर याने कि भारी पानी।
    मुंबई से बैंगलोर शिफ़्ट होने के बाद अपना एक्वागार्ड लगवाने का समय नहीं मिल पाया, एक प्लंबर को बुलाकर एक्वागार्ड संस्थापित तो करवा लिया, परंतु मुंबई से परिवहन के दौरान उसमें कुछ समस्या हो गई थी इसलिये वह शुरु ही नहीं हो रहा था। एक्वागार्ड के ग्राहक सेवा केन्द्र को फ़ोन लगाकर अपनी शिकायत भी दर्ज करवाई, जब ७ दिन तक एक्वागार्ड वाला नहीं आया तो वापिस से उनको फ़ोन करके कहा कि बैंगलोर में क्या सारी कंपनियाँ ऐसी ही हैं, जो कि अपने ग्राहकों का ध्यान नहीं रखती हैं। तो हमें कहा गया कि ठीक करने वाला बंदा २ दिन में पहुँच जायेगा। खैर हम तो एक्वागार्ड की घटिया सेवा से परेशान हो चुके थे।
    इसी दौरान एक सुबह एक्वागार्ड बेचने वाले ने हमारे घर पर दस्तक दी, तो हमने पहले पूछा कि ठीक करने आये हो, उसने जबाब दिया “नहीं”, हम तो बेचने आये हैं, पहले तो हमने जबरदस्त फ़टकार लगाई कि क्या ग्राहकों को सेवाएँ देते हो, ७ दिन पूरे होने के बाबजूद अभी तक कोई ठीक करने नहीं आया, क्या बकबास कंपनी है, और भी बहुत कुछ उसे गरिया दिया।
    पर वह भी पक्का बेचनेवाला था, बोला कि अगर आप इजाजत दें तो मैं आपके यहाँ का पानी जाँच लूँ, मैंने कहा कि चलो भई देख लो, क्योंकि हमने भी सुना था कि यहाँ बैंगलोर का पानी भारी है। उसने जाँच की और हमें बताया कि देखिये ४८५ है और बिसलरी का ७२, पीने लायक पानी होता है ५०-१०० अब क्या मानदण्ड होता है, पता नहीं । उससे हमने पूछा कि भारी पानी पीने से क्या नुक्सान होता है वह हमें बता नहीं पाया पर बोला कि RO वाला मॉडल आपको खरीदना होगा तभी यह भारी पानी पीने लायक होगा, हमने कहा अभी तो हम बिसलरी पी रहे हैं, पर जल्दी ही कुछ तो लेना ही होगा अगर हमारा साधारण एक्वागार्ड काम नहीं आयेगा।
    उस समय हमारे पास इंटरनेट था नहीं, और ऑफ़िस में थोड़ा बहुत पढ़ा तो सब सिर के ऊपर से निकल गया, तो पास के एक मॉल में गये जहाँ Water purifier के सभी कंपनियों के उत्पाद थे, हमने पहले उससे कहा कि पहले हमें जानकारी दीजिये कि भारी पानी से क्या होता है, तो वह भी हमें केवल इतना ही बता पाया कि जब बहुत प्यास लगती है तभी पी पायेंगे, ज्यादा पानी पीने की इच्छा नहीं होगी। नुक्सान कुछ भी नहीं है। हमें वहाँ व्हर्लपूल कंपनी का RO वाला उत्पाद अच्छा लगा, और हम तय कर चुके हैं कि एक्वागार्ड जैसी घटिया ग्राहक सेवा देने वाली कंपनी से तो उनका उत्पाद नहीं खरीदेंगे वह भी कम से कम बैंगलोर में तो बिल्कुल नहीं।
    अगर आप में से किसी के पास इस बारे में जानकारी हो तो लिंक साझा करें या फ़िर टिप्पणी में ज्ञान प्रदान करें, तो हम नया RO Water Purifier ले पायें।
१. भारी पानी के नुक्सान क्या हैं ?
२. RO वाला कौन सा Water purifier लें ?
३. भारी पानी के उपचार के और कौन से तरीके हैं ?